
10-05-2025 (Important News Clippings)
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Date: 10-05-25
Good For Free Speech
SC gives a fine & necessary order
TOI Editorial
Overturning a Delhi HC verdict, Supreme Court on Friday held that public scrutiny of court orders is not just kosher, but also necessary “as a check against judicial caprice or vagaries”, in the words of an earlier 9-judge bench. SC reiterated public gaze was “a powerful instrument for creating confidence of the public in the fairness, objectivity and impartiality of the administration of justice.”
The case was about Delhi HC’s order to Wikimedia to take down a website page that discussed the court’s order on the legal dispute between ANI and Wikimedia . ANI had accused Wikimedia of defamation; the page in question detailed the case – this, Delhi HC held, was “contempt of court”. Wikimedia moved SC, which on Friday correctly said that “it is not the court’s job to tell the media: delete this, take that down.”
Courts frequently bristle at even bona fide criticism, using a very broad definition in the Contempt of Courts Act 1971, which criminalises acts that “scandalise” a court. Even Chandrachud’s pan-India initiative to live-stream court proceedings was also centred on enhancing transparency. SC in this case used twin tests of ne cessity and proportionality to conclude that to im prove any system, including the judiciary, introspection was key, and only robust debate could ensure that, “even on issues before the court”. Thi s is not just a blow for free speech but a step towards a maturing of Indian democracy.
आर्थिक विध्वंस के मुहाने पर आ गया है पाकिस्तान
संपादकीय
भारत के 688 अरब डॉलर की संचित विदेश मुद्रा के मुकाबले पाकिस्तान के पास मात्र चंद दिनों के खर्च की मुद्रा (15 अरब डॉलर) बची है। आईएमएफ के पास भीख का कटोरा ले कर खड़ा यह देश कुछ पा भी जाए तो उससे युद्ध में होने वाली कमरतोड़ क्षति नहीं पूरी होगी। शाश्वत जड़ता और अकर्मण्यता के आगोश में मृतप्राय पड़े इस देश का गवर्नेस भारत के खिलाफ जनता को गुमराह करने, कट्टरपंथ को राज्य की नीति बनाने और आतंकवादी तंजीमों को राज्य प्रश्रय देने की बुनियाद पर टिका है। लिहाजा कुछ पारम्परिक उद्योग जैसे कपड़ा छोड़कर इसका निर्यात घटता गया। अगर भारत के खिलाफ जारी युद्ध हफ्ते-दो हफ्ते चल गया तो बम- गोली से तो यह देश बाद में मरेगा, आर्थिक विपन्नता से अकाल मृत्यु का शिकार बन जाएगा। यही कारण है कि आईएमएफ की चौखट पर यह एक बार फिर बेलआउट पैकेज के लिए और पिछले कर्ज का अगला ट्रेंच हासिल करने के लिए पहुंचा है। इस पर अंतरराष्ट्रीय संस्था को फैसला लेते समय यह भी देखना होगा कि कोई भी आर्थिक मदद हथियार खरीदने में इस देश की मदद करेगी। 2021 में इसके पास सबसे अधिक 27.1 अरब डॉलर का रिजर्व था, जबकि वर्ष 1972 में यह सबसे कम मात्र 96 डॉलर रहा था। कारण, वर्ष 1971 में भारत से युद्ध के बाद पाकिस्तान की यह दुर्गति हुई थी।
Date: 10-05-25
उत्पादकता बढ़ाने की कवायद
संपादकीय
भारत ने हाल ही में चावल की दो जीनोम-संवर्धित किस्में जारी की हैं और यह कृषि क्षेत्र में एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है। साइट डायरेक्टेड न्यूक्लिएज 1 (एसडीएन1) जीनोम परिवर्तन तकनीक की मदद से विकसित डीआरआर धान 100 (कमला) और पूसा डीएसटी राइस 1 नामक ये किस्में न केवल 30 फीसदी तक अधिक पैदावार का वादा करती हैं बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा, पर्यावरण को हानि तथा क्षेत्रीय कृषि असंतुलन जैसी चुनौतियों से निपटने में भी मददगार साबित हो सकती है। चावल की ये दोनों किस्में अपनी मूल किस्मों यानी क्रमश: सांबा मंसूरी (बीपीटी 5204) और कॉटनडोरा सन्नालू (एमटीयू-1010) की तुलना में बेहतर परिणामों का वादा करती हैं। एक बात जो इन दोनों नई किस्मों को अधिक आकर्षक बनाती है वह है तैयार होने की 15 से 20 दिन की कम अवधि। इसके चलते फसलों को जल्दी बदला जा सकता है और जमीन का अधिक किफायती इस्तेमाल संभव हो सकता है।
इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पानी की कम जरूरत और उच्च नाइट्रोजन-उपयोग दक्षता भारतीय कृषि की एक बड़ी चुनौती को हल कर सकता है, जो है भूजल का अत्यधिक दोहन। खासकर पंजाब और हरियाणा जैसे क्षेत्रों में। ये दोनों राज्य चावल के बड़े उत्पादक हैं और भूजल की सबसे अधिक क्षति वाले राज्यों में भी यही शामिल हैं क्योंकि यहां दशकों से धान की खेती हो रही है जिसमें बहुत अधिक पानी की आवश्यकता होती है। ये जीनोम-संवर्धित चावल की किस्में सूखे से काफी हद तक सुरक्षित हैं और मिट्टी की खराब स्थिति में भी बची रह सकती हैं। ऐसे में ये पूर्वी उत्तर प्रदेश, तटीय पश्चिम बंगाल और ओडिशा तथा महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में बड़ा बदलाव ला सकती हैं। ये वे इलाके हैं जो ऐतिहासिक रूप से धान की कम उत्पादकता के लिए जाने जाते हैं। ऐसा इन राज्यों में मिट्टी और जलवायु के चुनौतीपूर्ण हालात के कारण है। इन इलाकों में धान की खेती को प्रोत्साहन देने से चावल के उत्पादन क्षेत्र का विस्तार होगा। इससे पारिस्थितिकी पर दबाव कम होगा क्योंकि कुछ इलाकों में धान की अत्यधिक खेती की जाती है। इससे कृषि अर्थव्यवस्था में समता आएगी।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जीनोम-संवर्धित करने की तकनीक मसलन एसडीएन1 आदि पारंपरिक जीन संवर्धित प्रणाली से अलग है क्योंकि इसमें बाहरी डीएनए नहीं शामिल किया जाता। इसका अर्थ यह हुआ कि नियामकीय और नैतिक स्तर पर बहुत बाधाएं नहीं होतीं, जनता में इनकी स्वीकार्यता अधिक होती है और इनको अधिक तेजी से अपनाया जा सकता है। विज्ञान के साथ-साथ नीतिगत व्यवस्था को उन्नत बनाने की आवश्यकता है। सरकारी खरीद करने वाली एजेंसियों को इन किस्मों को चिह्नित करना चाहिए और उन्हें सरकारी खरीद तथा वितरण प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए। किसानों को प्रशिक्षित करने तथा खेत के स्तर पर इनके इस्तेमाल के स्पष्ट दिशानिर्देश जारी करके जैव सुरक्षा चिंताओं को दूर किया जा सकता है।
देश की जरूरतों को देखते हुए हमें जीन संवर्धित फसलों पर अपने रुख की समीक्षा करनी चाहिए। साल 2022 में सरकार ने जीएम मस्टर्ड हाइब्रिड, डीएमएच-11 को मंजूरी दी थी। यह एक ऐतिहासिक कदम था जहां जीन संवर्धित फसलों को लेकर सकारात्मकता दिखाई गई थी। समुचित नियमन और वैज्ञानिक पारदर्शिता के साथ जीएम फसलें उत्पादकता बढ़ा सकती हैं। इनसे जैविक दबाव को लेकर प्रतिरोध कम हो सकता है और इनपुट की लागत कम हो सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वे जीएम फसलों पर एक राष्ट्रीय नीति तैयार करें। सरकार को इस बारे में समूची संभावनाओं को भी खंगालना चाहिए। इतना ही नहीं जैव प्रौद्योगिकी की संभावनाओं का लाभ लेने के लिए भारत को कृषि शोध एवं विकास में निवेश बढ़ाना चाहिए, जैव प्रौद्योगिकी संस्थाओं के लिए संस्थागत सहायता बढ़ानी चाहिए और जलवायु के प्रति टिकाऊपन को खाद्य सुरक्षा नीतियों में शामिल करना चाहिए। कृषि शोध और विकास व्यय के लिए वर्तमान बजटीय आवंटन केवल 10,466 करोड़ रुपये है और अगले दो-तीन सालों में इसे बढ़ाने की आवश्यकता है। कृषि जैव प्रौद्योगिकी अब दीर्घकालिक रूप से खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है।
Date: 10-05-25
जाति जनगणना और जातीय पहचान
आर जगन्नाथन
विक्टर ह्यूगो का एक मशूहर कथन है- ‘उस विचार को कोई नहीं रोक सकता है जिसका वक्त आ चुका हो।’ इस कथन के साथ दिक्कत यह है कि यह हमें इसके आगे की बात नहीं बताता। कोई विचार अगर एक बार आजमाने के बाद उतना अच्छा नहीं साबित होता तब? यह भी कि किसी बुरे विचार के लिए कौन-सा सही समय होता है जब वह पीछे हट जाए? परंतु हम ह्यूगो के कथन के राजनीतिक प्रभाव को जानते हैं और वह यह है कि धरती पर कोई भी ताकत राजनेताओं को किसी विचार को आगे बढ़ाने से नहीं रोक सकती फिर चाहे वह कितना भी संदिग्ध क्यों न हो? अगर चुनाव के समय उन्हें इससे कुछ अतिरिक्त वोट मिलें तो वे उसे खत्म करने में भी वक्त नहीं लगाएंगे। अंतहीन चुनावी रेवड़ियां इसका एक उदाहरण हैं।
उसका दूसरा उदाहरण अब सामने है जब नरेंद्र मोदी की सरकार अगली जनगणना के साथ जाति जनगणना करने जा रही है। वह यह मानकर ऐसा कर रही है कि उसे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का पूरा समर्थन मिलेगा। वहीं पिछड़ा वर्ग का सोचना है कि अब उनकी संख्या पहले के अनुमानों से अधिक है इसलिए उन्हें ज्यादा जातीय कोटा मिलेगा।
राजनीतिक दल इस विचार से पूरी तरह सहमत हैं और इसके पीछे उनके अपने-अपने आकलन हैं। कांग्रेस ने इस विचार का समर्थन किया है क्योंकि उसे लगता है कि जाति की राजनीति भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कमजोर करेगी। भाजपा को अपनी व्यापक हिंदू पहचान के लिए सभी जातियों को साथ लाने की जरूरत है। इन जातियों में विभाजन दूर करके पार्टी हिंदू वोट एकजुट रख सकेगी। पार्टी को पता है कि छोटी मानी जाने वाली जातियों को हिंदुत्व की छतरी के नीचे लाने की सोशल इंजीनियरिंग अपनाने के बाद उसकी वोट हिस्सेदारी बढ़ी है। दबदबे वाले एक जाति आधारित दल मसलन उत्तर प्रदेश और बिहार में यादवों की प्रमुखता वाले दो दल, सैद्धांतिक तौर पर इससे कमजोर साबित हो सकते हैं क्याेंकि अन्य जातियों का सशक्तीकरण उनकी पकड़ को कमजोर करेगा। हालांकि, वे भी चाहते हैं कि जाति जनगणना हो ताकि आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाकर उनके मौजूदा कोटे में इजाफा किया जा सके।
अब यह स्पष्ट है कि राजनीति किस दिशा में जा रही है। पहली बात, एक बार जाति जनगणना के आंकड़े सामने आने के बाद शैक्षणिक और रोजगार संबंधी आरक्षण बढ़ाने की मांग उठेगी। अभी यह आंकड़ा 60 फीसदी से थोड़ा ही कम है इसमें आर्थिक रूप से कमजोर तबकों के लिए 10 फीसदी का आरक्षण शामिल है। ऐसे में निकट भविष्य में आरक्षण बढ़कर 70-75 फीसदी होता दिख रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा साहनी मामले में अपने फैसले में आरक्षण 49 फीसदी पर सीमित कर दिया था जो अब इतिहास है क्योंकि आर्थिक रूप से कमजोर तबकों काे आरक्षण मिल चुका है और तमिलनाडु में यह पहले ही 69 फीसदी हो चुका है।
दूसरा, जातियों के भीतर उप कोटा अपरिहार्य हो जाएगा क्योंकि इस समय अधिकतम लाभ ले रही जातियां चाहेंगी कि उनकी हिस्सेदारी बची रहे जबकि अन्य अलग कोटा चाहेंगी। हमें अन्य पिछड़ा वर्ग में दो या तीन उप कोटा देखने को मिल सकते हैं और शायद अनुसूचित जाति में भी।
तीसरी बात, कुछ शर्तों के साथ राजनेता कभी न कभी आरक्षण को निजी कंपनियों तक बढ़ाने का प्रयास करेंगे। निजी क्षेत्र में आरक्षण के लिए आय की सीमा लागू की जा सकती है लेकिन जब नई नौकरियां नहीं सामने आ रही हैं तो आरक्षण प्राय: अनिवार्य प्रतीत होता है। परंतु निजी क्षेत्र प्रभावित नहीं होगा: छोटी कंपनियों को रियायत दी जा सकती है और बड़ी कंपनियां निचले स्तर के रोजगार को मशीनों से करवाने लगेंगी।
आंबेडकरवादी विचार जाति के विनाश की बात करता है लेकिन अब वह आंशिक रूप से विफल हो चुका है क्योंकि हर प्रकार का सुधार अब आपकी जन्म की जाति से तय होगा। जाति के जाल से बचने का इकलौता तरीका यही है कि छोटा कारोबार किया जाए जहां कोटा लागू होने से बचा जा सके। इन बातों का यह अर्थ नहीं है कि जाति जनगणना एक बुरा विचार है लेकिन इसके ऐसे अनचाहे परिणाम सामने आ सकते हैं जो अभी हमारी दृष्टि से बाहर हैं। हमने देखा था कि 1931 में जब ब्रिटिश ने आखिरी बार देशव्यापी जाति सर्वेक्षण किया था तो हर जाति को हिंदू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित चार वर्णों में शामिल करने की कोशिश की थी। यूरोप के ईसाई नज़रिये में धर्म ग्रंथ सामाजिक संगठन और नैतिकता को परिभाषित करते हैं और इसलिए उन्होंने अपने सिद्धांत का समर्थन करने के लिए हिंदू धर्म ग्रंथों की तलाश की और इसे जाति व्यवस्था में पाया। इन सर्वेक्षणों के दौरान विभिन्न सामाजिक समूहों द्वारा कथित उच्च वर्णों में खुद को अपग्रेड करने की कोशिश के कारण काफी अराजकता की स्थिति बनी।
इस बार ऐसा होता नहीं दिखता क्योंकि इस बार कोई किसी जाति को जबरन किसी वर्ण में नहीं शामिल करेगा। परंतु चूंकि कोटा आंकड़ों पर निर्भर करता है इसलिए जातियों में संख्या बढ़ाने का प्रयास किया जाएगा। आंकड़ों के इस खेल में पिछड़ने वाली जातियों की वजह से संघर्ष की स्थिति बन सकती है। या उप कोटा बनने की स्थिति में ऐसा हो सकता है।
हमने देखा कि कैसे वोक्कालिगा और लिंगायत उस समय नाराज हो गए जब कर्नाटक के जाति सर्वेक्षण में उनकी संख्या पहले लगाए गए अनुमानों से कम निकली। हमने यह भी देखा कि कैसे मैतेई समुदाय को अनुसूचित जाति में शामिल करने के अदालती फैसले ने मणिपुर में गृह युद्ध की स्थिति पैदा की। हमें ऐसी परिस्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए।
जाति आधारित कोटा तथा उपचारात्मक कदमों या अफर्मेटिव एक्शन के पीछे तर्क यह है कि जाति दरअसल एक दमनकारी व्यवस्था है। परंतु जाति का एक और पहलू है जो अक्सर भुला दिया जाता है। जाति एक सामाजिक पूंजी और सामूहिक पहचान है। यही वजह है कि सदियों के प्रयासों के बावजूद इसे समाप्त नहीं किया जा सका। आंबेडकर के जाति के विनाश के विचार को पूर्ण समर्थन नहीं मिला क्योंकि इसने जाति को पूरी तरह सामाजिक अन्याय से जोड़ दिया।
आर्थिक तथा अन्य रुझानों ने आज पहचानों को उतना ही महत्त्वपूर्ण बना दिया है जितना कि विभिन्न सामाजिक समूहों का आर्थिक लाभ। वैश्वीकरण, शहरीकरण और तकनीकी स्वचालन ने पुरानी सामाजिक पहचानों को चोट पहुंचाई, सामुदायिक बंधनों को कमजोर किया जबकि एक समय ये लोगों को एकजुट रखने का काम करते थे। शहरी हकीकत लगातार अकेलेपन, अलग-थलग पड़ने से परिभाषित हो रही है और पहचान को लेकर आग्रह पहले से कहीं अधिक हो गया है।
जाति बची रही क्योंकि उसने व्यक्तिगत पहचानों को गुमनाम करने की प्रवृत्ति को नकारा। वास्तव में इस बात के प्रचुर प्रमाण हैं जो बताते हैं कि कथित निचली जातियां अब अपनी पहचान को लेकर शर्मिंदा नहीं होतीं। वे अक्सर अपनी जातीय पहचान को लेकर गर्व करते हैं। अब अगर कोई दलित दूल्हा अपनी शादी में घोड़ी पर चढ़ना चाहता है तो यह उसकी विरासत का हिस्सा नहीं बल्कि अपनी जातीय पहचान के कारण उत्पन्न गौरव बोध के चलते होता है। अब वह मानता है कि वह भी औरों के बराबर है। मायावती के दलितों के बीच लोकप्रियता गंवाने की एक वजह यह भी रही क्योंकि दलित कोई जाति समूह नहीं है-जाटव अवश्य ऐसे हैं। दलितों की व्यापक पहचान शायद सभी अनुसूचित जातियों को एक छत्र के नीचे नहीं ला सकती।
क्या इस बार जाति जनगणना से कुछ बेहतर हासिल हो सकता है? शायद क्योंकि अनापेक्षित परिणामों के नियमों के अनुसार कुछ लाभ उन विचारों से भी निकल सकते हैं जो सवाल उठाने लायक होते हैं। मसलन नोटबंदी ने भारत को डिजिटल लेनदेन में उन्नत बनाया। इसी तरह, सबसे अच्छे इरादों के साथ भी बुरी चीजें होती हैं। मसलन कैसे कोटा ने जाति की पहचान को कम करने के बजाय उसे मजबूत किया है। हमें आशावादी होना चाहिए कि जनगणना से समझदारी नष्ट नहीं होगी।
Date: 10-05-25
समानता की राह में जाति का चक्र
प्रमोद भार्गव
अंतिम जाति जनगणना वर्ष 1931 में हुई थी। इस गणना को लेकर भाजपा, कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के जो भी दृष्टिकोण रहे हों, लेकिन इसके बाद इस मुद्दे पर विराम लग जाएगा। अब सरकार की ताजा घोषणा के मुताबिक, भारत की संपूर्ण जातियों की गिनती होगी। इसमें मुसलिम, ईसाई और पारसी भी शामिल रहेंगे। इसके परिणाम क्या होंगे, यह भविष्य के गर्भ में हैं, लेकिन जातियों की गणना को लेकर जिस तरह से इसे सामाजिक न्याय का मुद्दा बना कर उछाला गया है, उसके नतीजों में बहुत कुछ शेष नहीं रह गया है। ज्यादातर राज्यों में अभी भी नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की सुविधा पिछड़े और अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को मिल रही है। इसलिए आरक्षण को बढ़ाने की कवायद खोखली ही साबित होगी? दरअसल, जिस जातीय व्यवस्था को नेताओं को तोड़ने की जरूरत थी, वे उसे तात्कालिक बनाम काल्पनिक लाभ का मुद्दा बना कर कमजोर होते जातीय क्षरण को मजबूती देने के प्रयास में लगे दिख रहे हैं।
भारतीय समाज की यह विडंबना रही है कि मुद्दा कोई भी हो, जाति उभर कर सामने आ जाती है। इसीलिए चुनाव में यह मुद्दा प्रायः उछाला जाता है। जबकि भेदभाव पैदा करने वाली व्यवस्था को समाप्त करने की जरूरत है। सामाजिक समानता भारतीय परंपरा का हिस्सा रही है, लेकिन इसे भुला दिया गया। नतीजतन, घातक परिणाम सामने आए। आरंभ में वर्ण और जाति व्यवस्था में कोई भेदभाव नहीं था। मगर ब्रिटिश शासक अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए इस खाई को गहरा करते रहे। आजादी के बाद जातीय भेदभाव के इस अतीत को हमें भुला देना चाहिए था, लेकिन चुनाव जिताऊ इस टोटके को सभी प्रगतिशील दलों ने अपनाया। जबकि जाति के स्तर पर छुआछूत खत्म होने लगा था। स्त्रियों में आर्थिक स्वावलंबन बढ़ने से अंतरजातीय विवाह भी बढ़े और ऐसे विवाहों को सामाजिक स्वीकार्यता मिलने लगी है। गणना के नतीजे आने के बाद ऊंट किस करवट बैठेगा, फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता।
जाति तो नहीं, लेकिन वर्ण की पहचान ऋग्वेद की कतिपय ऋचाओं में मिलती है। हालांकि इसे प्रकृति और पुरुष में समानता का दर्जा देते हुए उल्लेखित किया गया है। कहा गया है कि अखिल ब्रह्मांड एक महामानव या विराट पुरुष है। कालांतर में इसी विराट पुरुष को चार मुख्य श्रेणियों में विभाजित कर दिया गया। जातीय संरचना अपनी जगह हजारों वर्षों से है। आभिजात्य वर्ग यही स्थिति बनाए रखना चाहता है। मुसलमानों के बीच भी कई जातियां हैं, पर इनकी जनगणना में भी पहचान का आधार धर्म है शायद इसीलिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि ‘जाति व्यवस्था का कुछ ऐसा दुश्चक्र है कि हर जाति को अपनी जाति से निम्न मानी जाने वाली जाति मिल जाती है। यह एक पूरा का पूरा चक्र है। अगर यह जाति चक्र एक सीधी रेखा में होता, तो इसे तोड़ा जा सकता था। यह वर्तुलाकार है।’ वैसे भी धर्म के बीज संस्कार जिस तरह से हमारे बाल अवचेतन में जन्मजात संस्कारों के रूप में बो दिए जाते हैं, कमोबेश उसी स्थिति में जातीय संस्कार भी कम उम्र में उड़ेल दिए जाते हैं।
इस तथ्य को एकदम से नहीं नकारा जा सकता कि जाति एक चक्र है। अगर जाति चक्र न होती, तो अब तक टूट गई होती। जाति पर जबरदस्त कुठाराघात ऋषि चार्वाक ने किया था। उनका दर्शन था, इस अनंत संसार में कुल में जब कामिनी ही मूल है तो जाति की परिकल्पना किसलिए ? गौतम बुद्ध ने भी जो राजसत्ता भगवान के नाम से चलाई जाती थी, उसे धर्म से पृथक किया। चाणक्य ने जन्म और जातिगत श्रेष्ठता को तिलांजलि देते हुए व्यक्तिगत योग्यता को मान्यता दी। गुरुनानक देव ने जातीय अवधारणा को अमान्य करते हुए राजसत्ता में धर्म के उपयोग को मानवाधिकारों का हनन माना। संत कबीरदास ने जातिवाद को धता बताते हुए कहा कि ‘जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ी रहने दो म्यान’ जातीयता को सर्वथा नकारते हुए संत रविदास ने कहा था कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा ।’
महात्मा गांधी के जाति प्रथा तोड़ने के प्रयास तो इतने अतुलनीय थे कि उन्होंने ‘अछूतोद्धार’ जैसे आंदोलन चला कर साफ-सफाई का काम दिनचर्या में शामिल कर उसे आचरण में आत्मसात किया । भगवान महावीर, संत रैदास, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद सरस्वती, विवेकानंद, संत ज्योतिबा फुले और भीमराव आंबेडकर ने जाति तोड़ने के अनेक प्रयत्न किए, लेकिन जाति प्रथा मजबूत होती चली गई। इतने सार्थक प्रयासों के बाद भी क्या जाति टूट पाई ? कुलीन मानसिकता, जाति तोड़ने की कोशिशों के समांतर अवचेतन में पैठ जमाए बैठे मूल से अपनी जातीय अस्मिता और उसके भेद को लेकर लगातार संघर्ष करती रही है। नतीजतन जातीय संगठन और राजनीतिक दल भी अस्तित्व में आ गए। कई बड़े नेताओं ने जातीय संगठनों की आग पर खूब रोटियां सेंकीं ।
भविष्य में निर्मित होने वाली इन स्थितियों को आंबेडकर ने 1956 में ही भांप लिया था। उन्होंने आगरा में भावुक होते हुए कहा था कि ‘उन्हें सबसे ज्यादा उम्मीद दलितों में पढ़े-लिखे बौद्धिक वर्ग से थी कि वे समाज को दिशा देंगे, लेकिन इस तबके ने हताश ही किया है। दरअसल, आंबेडकर का अंतिम लक्ष्य जातिविहीन समाज की स्थापना थी । जाति टूटती तो स्वाभाविक रूप से समरसता व्याप्त होने लग जाती, लेकिन देश की राजनीति का यह दुर्भाग्यपूर्ण पहलू रहा कि नेता जाति और वर्ग भेद को ही आजादी के समय से मुख्य हथियार बनाते रहे हैं।
जातिगत आरक्षण के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 16 की जरूरतों को पूरा करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था है। मगर आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सकता ? आरक्षण के सामाजिक सरोकार केवल संसाधनों के बंटवारे और उपलब्ध अवसरों में भागीदारी से जुड़े हैं। इस आरक्षण की मांग शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार और ग्रामीण अकुशल बेरोजगारों के लिए सरकारी योजनाओं में हिस्सेदारी से जुड़ गई हैं। निजी क्षेत्र में भी आरक्षण देने की मांग की जा रही है। परंतु जब तक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती, तब तक पिछड़ी या निम्न कही जाने वाली जाति या आय के स्तर पर पिछले छोर पर बैठे व्यक्ति के जीवन स्तर में सुधार नहीं आ सकता। यहां सवाल यह उठता है कि पूंजीवाद की पोषक सरकारें समावेशी आर्थिक विकास की पक्षधर क्यों होगी ? यदि सरकारें समतामूलक व्यवस्था बनाती हैं, तो आरक्षण का औचित्य कम होगा और जातियां टूटने का रास्ता प्रशस्त होता चला जाएगा। जाति को संरक्षण देने की बजाय उसे तोड़ने की जरूरत है।