02-05-2025 (Important News Clippings)

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02 May 2025
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Date: 02-05-25

Simply Magisterial

Mumbai magistrate’s ruling on live-in couples’ rights contrasts with many higher courts’ dodgy moralising

TOI Editorials

Given the times, a magistrate court’s order on live-ins was especially welcome. The court ruled that a woman in a live-in relationship is entitled to monthly maintenance, as provided in the domestic violence Act. The magistrate didn’t agree with the monetary claim the woman asked for but, even while setting a smaller amount, agreed in principle she has a right to claim maintenance. The order is excellent news for legal protections for live-ins. But that it came from a subordinate court is perhaps the greater win. High courts and subordinate courts far too frequently issue orders contravening Supreme Court’s precedents and legislative amendments, especially on issues involving live-in relationships and couple-rights. As a result, petitioners must trudge through the arduous appeals process to avail simplest of protections. Not everyone has the financial wherewithal or stamina to do this.

In 2003, Malimath Committee recom- mended that a woman in a live-in relationship for a reasonable period has the legal rights of a wife. In 2006, the domestic violence Act extended protection against violence to live-in partners. SC’s view has consistently evolved from considering such partnerships as a precursor to marriage to seeing living-in as a parallel, autonomous institution of civil union, partners deserving the same protections as a married couple in terms of family finances, inheritance/ succession, and physical/mental securities.

On live-ins, many subordinate courts and even some high courts have brazenly flouted established precedents. Uttarakhand HC, while hearing a 23-year-old’s PIL against the state’s terrible new rules mandating registration of live-ins, told the petitioner they were “brazenly living together without marriage”. Gujarat HC called a couple’s live-in status “timepass”. Allahabad HC asked for “saving moral values in society”. Given that many judges’ moralising instincts are getting the better of their jurisprudence skills, the Mumbai magistrate’s order has exceptional significance.


Date: 02-05-25

Turn and churn

A caste census should not be allowed to ossify social segmentation

Editorials

The Centre’s decision to include caste enumeration in the next national Census marks a sharp departure for the ruling BJP from its previous position. Prime Minister Narendra Modi had in 2024 targeted the Congress election manifesto promise of a caste census as a reflection of its ‘urban Naxal’ thinking. During the general election last year, BJP leaders had asked the people for a massive Lok Sabha majority to remodel the Constitution. This promise of a constitutional overhaul was seen by OBC and Dalit groups as a threat to dismantle caste reserva tions, and partly explains why the BJP fell short of an electoral majority. In 2015, the RSS chief’s call for a debate on caste-based reservation led to set- backs for the BJP in the Bihar Assembly elections. The Maharashtra and Haryana Assembly election victories in 2024 suggested that the BJP’s plank of Hindu unity, and its resistance to caste-based politics, continued to retain electoral salience. But, as it turns out, the BJP was probably unsure of its electoral ground and feared or sensed an under- current in favour of caste census that it could no longer politically ignore, particularly in Bihar which will vote later this year.

It is now a race to claim credit. The BJP and the Opposition have accused each other of undermining social justice. National formations, which include the BJP, the Congress and the Left, have historically taken an ambiguous, if not hostile, view towards caste claims. Subaltern parties that mobilised OBC and Dalit groups in Uttar Pradesh and Bihar displaced all national parties from these States in the 1990s. The BJP responded by turning more inclusive towards the OBCs, that has culminated in its continuing electoral dominance since 2014. The Congress, under Rahul Gandhi, started espousing caste justice, in a remarkable turn in the party’s history. Apart from a caste census, Mr. Gandhi now seeks the removal of the 50% ceiling in reservations, and an expansion of reservation in private educational institutions. Though there is no evidence yet that the Congress has or will make electoral gains from the new stirring, it is evident that the BJP is worried. The counting of castes and communities unleashed social forces in colonial India that continue till date, and a comprehensive caste count, the first since 1931, is set to unmake and remake many political and social realities. A caste census would not automatically result in reservation according to population figures, which is obnoxious; as Article 16(4) of the Constitution makes it clear, special provision for reservation in favour of any backward class can be made only if such community is inadequately represented in public services. A caste census should not be allowed to ossify social divisions, but only used to better target benefits of affirmative action.


Date: 02-05-25

जाति जनगणना के निर्णय के अनेक आयाम हैं

संपादकीय

देश में 96 वर्ष बाद और आजाद भारत में पहली बार जाति आधारित जनगणना होगी। सत्ता पक्ष ने फैसले के बाद इसका श्रेय लेना चाहा, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर इस मांग के जनक राहुल गांधी ने बाजी अपने हाथ में लेते हुए अगली मांग रखी- आरक्षण में 50% की सीमा को खत्म करना और निजी शिक्षण संस्थानों में आरक्षण के अनुच्छेद 15 (5) के प्रावधान को लागू करना । याद करें चुनाव मंचों पर पिछले साल प्रधानमंत्री ने कहा था- मेरे लिए चार ही जातियां हैं- महिलाएं, युवा, गरीब और किसान । लेकिन राहुल और विपक्ष की आवाज जातिगत जनगणना को लेकर बुलंद होती गई और अब बिहार चुनाव के पहले सरकार को यह घोषणा करनी पड़ी। बिहार ने जाति सर्वे की रिपोर्ट 2023 में जारी की थी। इसके अनुसार ओबीसी का प्रतिशत 63 था। जाहिर है बिहार चुनाव में राजद और कांग्रेस ‘जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी हिस्सेदारी’ का नारा बुलंद करेंगे। फिलहाल देश (दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़कर) में ओबीसी के लिए 27.5% आरक्षण है। दबाव होगा इसे आबादी के प्रतिशत के अनुसार बढ़ाने का भाजपा केंद्र और राज्य दोनों में सत्ता में है। यह सच है कि बिहार चुनाव तक जनगणना के आंकड़े नहीं आएंगे, लिहाजा विपक्ष का पलड़ा भारी रहेगा। दूसरी तरफ भाजपा का परम्परागत सवर्ण वोटर भी सरकारी नौकरियों में आरक्षण बढ़ने से नाराज होगा।


Date: 02-05-25

सिंधु जल समझौते के पांच जरूरी पहलुओं को समझें

विराग गुप्ता, ( सुप्रीम कोर्ट के वकील )

भारत द्वारा सिंधु जल समझौते पर रोक को पाकिस्तान ने युद्ध की शुरुआत माना है। इस पर पाकिस्तान के कानून मंत्री अकील मलिक भारत के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मंचों में चार तरह से मामले को उठाने का प्रयास कर रहे हैं- अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता, वियना संधि 1969 के उल्लंघन पर हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय विश्व बैंक, यूएन सुरक्षा परिषद।

सिंधु घाटी सभ्यता की सांस्कृतिक धरोहर को नकारने वाला पाकिस्तान संधि के दुरुपयोग से सिंधु और अन्य नदियों के पानी का बेशर्मी से इस्तेमाल करता आ रहा है। पहलगाम में आतंकी हमले के तार पाकिस्तानी सेना और आईएसआई से जुड़े हैं, इसलिए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत का पक्ष बहुत मजबूत है। जल मंत्रालय की संसदीय समिति की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार भारत सिंधु समझौते से एकतरफा तौर पर अलग नहीं हो सकता (अध्याय 11, परिच्छेद 11.2) पाकिस्तान इस रिपोर्ट का अंतरराष्ट्रीय मंचों में दुरुपयोग नहीं करे, इस बारे में सतर्कता बरतने की जरूरत है। नदी समझौतों से जुड़े मामलों के लिए इन 5 पहलुओं पर बेहतर समझ बनाने की जरूरत है।

1. चीन : चीन, पाकिस्तान और भूटान के साथ हुई संधियों के तहत भारत में 20 हजार मेगावॉट के पॉवर प्रोजेक्ट्स की सम्भावना है। संसदीय समिति के अनुसार भारत में सिर्फ 3482 मेगावॉट प्रोजेक्ट्स का निर्माण हुआ है। सिंधु नदी तिब्बत से निकलती है, जहां पर चीन ने साम्राज्यवादी तरीके से कब्जा कर रखा है। वह अंतरराष्ट्रीय नियमों का उल्लंघन करके ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्लांट भी बना रहा है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय मंचों में पाकिस्तान का अनैतिक समर्थन करने के कारण चीन को भी सच का आईना दिखाने की जरूरत है।

2. संविधान : संविधान की सातवीं अनुसूची के तहत अंतरराज्यीय नदियों और पड़ोसी राज्यों के साथ संधि के विषय केंद्र के अधीन हैं। लेकिन नदी और पानी का मामला राज्य सरकारों के अधीन आता है। सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में नदियों को जोड़ने (आईएलआर) वाले फैसले में केंद्र को निर्देश दिया था। पानी को संविधान की समवर्ती सूची में लाने के लिए आईएलआर समिति के सामने मैंने विस्तृत नोट दिया था, लेकिन उसके अनुसार संविधान संशोधन नहीं हुआ है।

3. जल संकट : पंजाब ने भाखड़ा बांध से जाने वाले 5 हजार क्यूसेक पानी की आपूर्ति को रोक दिया है, जिसकी वजह से हरियाणा में जल संकट बढ़ गया है। सिंधु समझौते में पूर्वी क्षेत्र की 3 नदियों सतलज, व्यास और रावी नदी पर सम्पूर्ण अधिकार होने के बावजूद पानी का पूरा इस्तेमाल नहीं होने पर संसदीय समिति ने 2021 की रिपोर्ट में रोष व्यक्त किया था। पश्चिम की सिंधु, झेलम और चिनाब नदी के पानी से कृषि और जल ऊर्जा के साथ भारत 36 लाख एकड़ फीट पानी के भंडारण का ढांचा बना सकता है। इन तीन नदियों से लगभग 13.43 एकड़ सिंचित भूमि का विकास करने के बजाय भारत में सिर्फ 7.59 लाख एकड़ भूमि ही सिंचित हो पाई है। इस वजह से उत्तर भारत के राज्यों में खेती के नुकसान पर समिति ने चिंता जताई थी।

4. बाढ़ : राष्ट्रीय बाढ़ आयोग की रिपोर्ट के अनुसार 1953 से 2018 के बीच बाढ़ से 4 करोड़ हेक्टेयर खेतिहर भूमि, 4 लाख करोड़ की संपदा के नुकसान के साथ 1 लाख इंसानों और 6 लाख जानवरों की जान गई है। पूरे देश में आपदा लाने वाली बाढ़ के विषय का केंद्र, राज्य या समवर्ती सूची कहीं भी आवंटन नहीं हुआ है। ड्रेनेज और तटबंधों का विषय राज्यों के अधीन है, जिसके अनुसार राज्य सरकारें सीमित कार्रवाई कर रही हैं संसदीय समिति की स्पष्ट सिफारिशों के बावजूद अभी तक संसद से बांध सुरक्षा बिल और रिवर बेसिन मैनेजमेंट बिल पारित नहीं हुआ है।

5. बांग्लादेश : भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने बांग्लादेश जा रहे पानी को रोकने की मांग की है। जनता पार्टी सरकार में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई और फिर प्रधानमंत्री देवगौड़ा ने गंगा जल बंटवारे की संधि पर बांग्लादेश के साथ जल संधि पर हस्ताक्षर किए थे। सिंधु संधि के खिलाफ जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार और बांग्लादेश के साथ जल संधि का ममता बनर्जी सरकार विरोध कर रही हैं। ममता के अनुसार बांग्लादेश के साथ गंगा, तीस्ता और फरक्का बांध संधियों में भारत सरकार ने पश्चिम बंगाल की सहमति नहीं ली। 30 साल की संधि दिसम्बर 2026 में खत्म हो रही है। कोलकाता बंदरगाह में पानी की गहराई और पश्चिम बंगाल में जल संकट से निपटने के लिए संधि के नवीनीकरण में सरकार को बांग्लादेश के साथ सख्त रवैया अपनाना होगा।


Date: 02-05-25

जाति जनगणना के नफा-नुकसान

डा. एके वर्मा, ( लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक हैं )

मोदी मंत्रिमंडल ने जाति जनगणना कराने का अप्रत्याशित निर्णय लिया। लगभग सौ वर्षों बाद पूर्ण जाति जनगणना होगी। संभवतः 2031 तक हमें जातियों के प्रामाणिक आंकड़े मिल सकेंगे। अंतिम जाति जनगणना 1931 में हुई थी। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही समय-समय पर इस मुद्दे पर अपना दृष्टिकोण बदलती रही हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी इस पर अपना रुख बदला है। अब विपक्षी दलों में जाति जनगणना के निर्णय का श्रेय लेने की होड़ है। मोदी ने यह फैसला तब लिया, जब विपक्षी दलों को इसकी बिल्कुल उम्मीद न थी। सबका ध्यान पहलगाम आतंकी हमले पर था और विपक्ष मोदी सरकार के साथ खड़ा था। इस निर्णय को बिहार के आगामी चुनावों से भी जोड़कर देखा जा रहा है, जहां तेजस्वी यादव और राहुल गांधी जातिगत जनगणना को अपना प्रमुख चुनावी एजेंडा बना कर मोदी-नीतीश को शिकस्त देना चाहते थे ।

ब्रिटिश काल में जब 1881 से 1931 तक जाति जनगणना हुई, तो उसे बंद क्यों किया गया और अब करीब सौ वर्षों बाद उसे पुनः शुरू क्यों किया जा रहा है? 1941 में भी जाति जनगणना हुई, पर उसके आंकड़े प्रकाशित नहीं हुए। स्वतंत्रता के बाद 1951 से 2011 तक आंशिक जाति जनगणना होती रही, जिसमें अनुसूचित जातियों और जनजातियों की गणना की गई। 1941 के जनगणना कमिश्नर एमडब्ल्यूएम यीट्स ने जाति जनगणना को खर्चीला, समय खपाऊ, सामाजिक विद्वेष पैदा करने वाली और डा. आंबेडकर के जाति विहीन समाज के मार्ग में अवरोध बताया था। जाति जनगणना से दलितों-आदिवासियों को कोई फर्क नहीं, क्योंकि उनकी गणना तो बराबर होती रही है, लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को लगता है कि अब उसे इसका लाभ होगा, पर किसी को नहीं पता कि ऐसा कैसे होगा ? क्या जाति जनगणना केवल एक चुनावी दांव- पेच का खेल है और राजनीतिक दलों द्वारा समाज के एक बड़े वर्ग को साधने की कवायद है? बेशक जाति जनगणना से ओबीसी जातियों के भी आंकड़े मिल जाएंगे और आरक्षण के उपवर्गीकरण से उन्हें कुछ लाभ भी मिलेगा, लेकिन यह भविष्य बताएगा कि जातिवार गणना से सामाजिक न्याय को सच में नई उड़ान मिलेगी। यदि जाति जनगणना से ही सामाजिक न्याय की स्थापना होती, तो क्या एससी-एसटी समाज को वांछित सामाजिक न्याय मिल सका ? यह सही है कि दलितों में एक-दो जातियों की स्थिति में बेहतरी आई है, लेकिन शेष सैकड़ों जातियों का क्या? यही स्थिति आदिवासियों में भी है।

संविधान के अनुसार जनगणना का एकाधिकार संसद यानी केंद्र को प्राप्त है, पर बिहार, कर्नाटक आदि ने अपने-अपने यहां जाति सर्वेक्षण किया। यद्यपि उसमें पारदर्शिता का अभाव और राजनीतिक निहितार्थ थे। जिन राज्यों ने जाति सर्वेक्षण कर विभिन्न जातियों के आंकड़े प्राप्त किए, उन्होंने ऐसा कौन सा कदम ओबीसी की बेहतरी के लिए उठाया, जो बिना जातिगत आंकड़ों के संभव नहीं था ? पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2011 में एक सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण कराया, लेकिन उसके जातिगत आंकड़े प्रकाशित नहीं कर सके। तब गृहमंत्री चिदंबरम ने जाति जनगणना न कराने के कई कारण बताए थे, जैसे केंद्र और राज्यों की अलग-अलग ओबीसी सूचियां होना, कई राज्यों में ओबीसी सूचियां न होना, कई जातियों का एससी और ओबीसी, दोनों में होना, मतांतरण कर ईसाई और इस्लाम अपनाने वालों की भिन्न-भिन्न राज्यों में अलग-अलग स्थिति होना, एक से दूसरे राज्यों में जाने वालों की भिन्न- भिन्न स्थितियां और अंतर धार्मिक विवाह से उत्पन्न बच्चों की अस्पष्टता। अब जब मंत्रिमंडल ने निर्णय ले ही लिया है, तो जनगणना आयोग को इन समस्याओं से निपटना पड़ेगा। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि किसी भी नागरिक को अपनी जाति बताने की स्वतंत्रता है और उसके लिए उसे कोई प्रमाण नहीं दिखाना । क्या अब देश में लोक नीतियां जाति देख कर बनेंगी? क्या आरक्षण ही सामाजिक न्याय का एकमात्र संवाहक है ? क्या जातियों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में देश के संसाधनों और सेवाओं का आवंटन हमारी समस्याओं का सही समाधान है? जातियां हमारी सामाजिक संरचना का आधार हैं। इस संरचना में कुछ लचीलापन आया है और हम जातिवाद से निकलने की कोशिश कर रहे हैं, पर देखना होगा कि कहीं जाति जनगणना से इस प्रवृत्ति पर विराम न लगे और पदसोपनीय सामाजिक संरचनाएं और कठोर न हो जाएं, जो सामाजिक विखंडन को हवा दें।

2011 की जनगणना से पता चला था कि देश में लगभग 46 लाख जातियां और उपजातियां हैं। जाति जनगणना और आरक्षण के समन्वय से किसी जाति समूह में असंख्य वंचित उप समूहों को भी सामाजिक-आर्थिक मुख्यधारा में आने का मौका मिलेगा, जो उनके लिए सामाजिक न्याय को सच बनाएगी, पर इससे उन नेताओं का खेल भी समाप्त होगा, जो जातिवादी राजनीति कर अपने जाति समूह के लाभ पर किसी उपजाति का एकाधिकार स्थापित कर लेते हैं।

क्या मुस्लिमों, ईसाइयों को भी जाति जनगणना के दायरे में लाया जाएगा ? भले ही मुस्लिम नेता जातियों का अस्तित्व नकारें, पर सच्चर समिति के अनुसार मुस्लिम अशरफ, अजलाफ और अरजाल कही जाने वाली जातियों में बंटे हैं। आजकल पसमांदा (अजलाफ और अरजाल) मुस्लिम अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। ईसाइयों में भी दलित ईसाइयों की मांग है कि उन्हें भी अनुसूचित जाति माना जाए और तदनुसार सुविधाएं दी जाएं। जाति जनगणना के समर्थक नेताओं में यह चिंता है कि कहीं भाजपा जातिगत जनगणना को हिंदू समाज को एक करने के एजेंडे में न बदल दे। भाजपा का एजेंडा है कि वह एक समावेशी, सशक्त और समृद्ध समाज चाहती है, लेकिन गैर- राजग पार्टियां विभिन्न सामाजिक समूहों की अस्मिता को बनाए रखकर उन्हें हिंदू समाज से बाहर रखना चाहती हैं। भविष्य ही बताएगा कि इन दोनों में कौन अपने एजेंडे में सफल होता है ?


Date: 02-05-25

दरक रही यूपीएससी की परीक्षा प्रणाली

प्रेमपाल शर्मा, ( भारत सरकार में संयुक्त सचिव रहे लेखक शिक्षाविद हैं )

संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा में सफल उम्मीदवारों की गूंज हर वर्ष की तरह इस साल भी है। पिछले कई वर्षों से इसमें लड़कियां टाप कर रही हैं। इस बार भी शक्ति दुबे अव्वल रहीं। पहले 25 रैंक में 11 लड़कियां हैं। कुल मिलाकर 29 प्रतिशत हर साल इसमें वृद्धि हो रही है। यह नारी शक्ति या कहें स्त्री शिक्षा के लिए बहुत सुखद खबर हैं। पिछले कुछ वर्षों की समीक्षा की जाए तो सिविल सेवा परीक्षा के विरोधाभास भी कम नहीं हैं। लगभग 70 प्रतिशत उम्मीदवारों की शैक्षिक योग्यता इंजीनियरिंग, मेडिकल या प्रबंधन जैसे तकनीकी क्षेत्र में हैं, लेकिन इनमें से 80 प्रतिशत से ज्यादा के यूपीएससी परीक्षा में वैकल्पिक पेपर सामाजिक विज्ञान जैसे समाजशास्त्र, एंथ्रोपोलाजी, राजनीतिशास्त्र आदि होते हैं। इस बार की टापर शक्ति दुबे ने यूपीएससी में विषय राजनीतिशास्त्र चुना, तीसरी रैंक पाए अर्चित पराग डोंगरे ने फिलासफी और चौथे-पांचवें रैंक पाए दोनों उम्मीदवारों ने समाजशास्त्र चुना, जबकि स्नातक स्तर पर इनकी पढ़ाई इंजीनियरिंग या मेडिकल जैसे तकनीकी क्षेत्र में हुई है। यहां प्रश्न अच्छे और बुरे विषय का नहीं, बल्कि शिक्षा व्यवस्था और यूपीएससी में कोई तालमेल नहीं होने का है।

दूसरा महत्वपूर्ण विरोधाभास अंग्रेजी और भारतीय भाषाओं का है। अंग्रेजी मातृभाषा वाले इस देश में दो प्रतिशत भी नहीं होंगे, लेकिन सिविल सेवा परीक्षा में 95 प्रतिशत उम्मीदवार अंग्रेजी माध्यम से ही चुने जाते हैं। भारतीय भाषाओं के मुश्किल से पांच प्रतिशत उम्मीदवार चुन जाते हैं। 2011 में प्रारंभिक परीक्षा में अंग्रेजी शामिल करने का दुष्परिणाम यह हुआ कि देश के नौजवान अंग्रेजी स्कूलों की तरफ ही झुकते चले गए और यह इस सरकार की भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देने की नीति के बावजूद भी वैसा ही जारी है। अंग्रेजी स्कूलों की तरफ कौन जा सकता है, वही जो अपेक्षाकृत संपन्न हैं । महानगर में रहकर महंगे स्कूल-कालेजों में पढ़ना और कोचिंग करना देश के गरीबों की हैसियत से बाहर है। पिछले 10 वर्षों से ज्यादा समय से यूपीएससी की पूरी परीक्षा प्रणाली में भी एक और बड़ी दरार सामने आ रही है। इस बार की टापर तीन बार प्रारंभिक परीक्षा में फेल होती रहीं और पांचवीं बार देश में अव्वल रहीं। दूसरी रैंक की हर्षिता गोयल भी दो बार प्रारंभिक परीक्षा में फेल हुईं। पिछले 10 वर्ष के रिकार्ड देखें तो प्रारंभिक परीक्षा और मुख्य परीक्षा में कोई तालमेल नजर नहीं आता। सिविल सेवा परीक्षा प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए दौलत सिंह कोठारी की अगुआई में बनी कमेटी की रिपोर्ट 1979 में लागू हुई थी। वह परीक्षा प्रणाली 2011 तक ठीक रही। उस पूरे दौर में ऐसे विचित्र परिणाम कभी नहीं आए।

अब कई बार तो ऐसा भी हो रहा है कि पहले प्रयास में कम रैंक के साथ उम्मीदवार सफल हो गया, लेकिन ऊंची रैंक हासिल करने के लिए जब फिर परीक्षा दी तो चार बार में भी प्रारंभिक परीक्षा पास नहीं कर पाया। मानो यूपीएससी की प्रारंभिक परीक्षा लाटरी या जुआ हो। पहले ही चरण में असफल होना हजारों-लाखों नौजवानों के सपनों को धराशायी कर देता है। ऐसे सक्षम उम्मीदवारों की भी कमी नहीं है, जो 10-10 वर्षों तक महानगरों में किराए पर रहकर इस संघर्ष में लगे हुए हैं। यूपीएससी ने नियम ही ऐसे बना रखे हैं कि उम्र सीमा सामान्य वर्ग के लिए 32 और आरक्षित वर्ग के लिए 37 वर्ष तक है। वर्षों से कई कमेटियों ने उम्र सीमा कम करने का सुझाव दिया है, लेकिन पता नहीं सरकार के पास कौन सी राजनीतिक मजबूरियां हैं। परीक्षा में सफल होने के बाद उम्मीदवारों में नैतिकता की बात तो न की जाए तो ही अच्छा। एक उदहरण पर्याप्त होगा। छह वर्ष पहले जिस उम्मीदवार को नैतिकता के पर्चे में यूपीएससी ने सर्वोच्च नंबर दिए थे और जिसकी बदौलत वह आइपीएस बना था, अगले वर्ष वह यूपीएससी की मुख्य परीक्षा में नकल करते पकड़ा गया। पूजा खेडकर का मामला तो अभी आपकी स्मृति में होगा ही कि कैसे क्रीमीलेयर से बचते हुए उन्होंने आरक्षण का सर्टिफिकेट पाया और यूपीएससी और कार्मिक मंत्रालय को धता बताते हुए ऐसी सुविधाओं की मांग करने लगीं, जिनकी वह हकदार नहीं थीं?

बीते दिनों केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने स्टार्टअप कंपनियों की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि वे सिर्फ खाना और सामान सप्लाई करने जैसे सर्विस सेक्टर में हैं। चीन की तरह एआइ और रोबोटिक्स में क्यों नहीं? अच्छा हुआ कि यह उन्होंने खुद स्वीकार किया। इसके बाद आइआइटी आदि संस्थानों से निकले नौजवानों ने आक्रोश व्यक्त किया कि हमें अपने स्टार्टअप के लिए नौकरशाही के इतने चक्कर लगाने पड़ते हैं कि हमारी बुद्धि और कृत्रिम बुद्धि दोनों ही मंद पड़ जाती हैं। यह हकीकत है। कुछ ने तो कहा कि क्या भारत चीन, इजरायल, जापान की तरह विज्ञान एवं शोध में उतना पैसा खर्च कर रहा है? इन प्रश्नों का संबंध सिविल सेवा परीक्षा से इसलिए है कि जब तक इसमें चुने हुए नौकरशाहों की नीयत ईमानदार नहीं होती, वे भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं होते और उनके काम में राजनीतिक हस्तक्षेप कम नहीं होता और जब तक पूरी परीक्षा प्रणाली एवं शिक्ष में सुधार नहीं होता, तब तक हमारे सर्वश्रेष्ठ युवा इन सेवाओं में नहीं जाएंगे। गलती इन नौजवानों की नहीं है हमारे लोकतंत्र के पूरे ढांचे की है। सरकार को इसे तुरंत बदलने पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए है।


Date: 02-05-25

जाति की जटिलताएं

संपादकीय

राजनीतिक मामलों की केंद्रीय कैबिनेट कमेटी ने बुधवार को अगली जनगणना में जाति की गणना को शामिल करने का निर्णय लिया। आज़ादी के बाद यह पहला मौका होगा जब जनगणना के दौरान जाति के आंकड़े संग्रहीत किए जाएंगे। हालांकि अनुसूचित जाति और जनजाति के आंकड़े दर्ज किए जाते हैं लेकिन व्यापक स्तर पर जातिगत आंकड़े इससे पहले 1931 की जनगणना में एकत्रित किए गए थे। इस घोषणा को दोनों प्रमुख दलों का समर्थन मिला है जो बताता है कि जाति जनगणना की राह में कोई मुश्किल नहीं है। वास्तव में 2024 के लोकसभा चुनावों में जाति जनगणना कांग्रेस सहित विपक्षी दलों के सबसे प्रमुख चुनावी वादों में से एक था।

चूंकि सरकार ने अगली जनगणना में जाति को दर्ज करने का निर्णय ले लिया है इसलिए अब इसके परिणामों पर चर्चा करना भी आवश्यक है। हालांकि, उससे पहले यह ध्यान देना आवश्यक है कि जल्द से जल्द जनगणना करना भी आवश्यक है। कोविड- 19 महामारी के कारण 2020 में होने वाली दशकीय जनगणना को टाल दिया गया था लेकिन यह समझना मुश्किल है कि हालात सामान्य होने के बाद भी सरकार उसे क्यों टालती जा रही है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के आंकड़ों के मुताबिक 2011 में जब भारत में पिछली जनगणना हुई थी तब हमारी अर्थव्यवस्था का आकार 1.8 लाख करोड़ डॉलर था। यह संभव है कि जिस समय तक अगली जनगणना पूरी होगी या उसके परिणाम आने शुरू होंगे तब तक भारत पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बन चुका होगा। यह एकदम अलग देश होगा। ऐसे में यह अहम है कि जनगणना नियमित हो ।

यही नहीं, जाति को शामिल करने की अतिरिक्त आवश्यकता को देखते हुए इसमें और देरी हो सकती है। ऐसे में यह भी संभव है कि अब जनगणना शायद 2026 के बाद ही हो सके और संविधान के मुताबिक संसदीय सीटों के नए परिसीमन का आधार बने। ऐसे में इसके परिणाम देश में सामाजिक विभाजन को बढ़ाने वाले साबित हो सकते हैं और उनका बहुत सर्तकता के साथ प्रबंधन करना होगा । दक्षिण भारत राज्यों ने भी नियमित रूप से यह चिंता जताई है कि लोक सभा में उनकी हिस्सेदारी कम की जा सकती है। यह संभव है कि कुछ राजनीतिक दल विधायिका में भी जाति आधारित आरक्षण की मांग करें। एक स्तर पर जातीय आंकड़े संग्रहीत करना तथा अन्य सामाजिक-आर्थिक आंकड़े हासिल करना उपयोगी हो सकता है क्योंकि यह नीति निर्माण में मददगार होगा। बहरहाल, जोखिम यह है कि जाति के आंकड़ों का इस्तेमाल राजनीतिक कारणों से भी किया जा सकता है। हालांकि यह तो अभी भी हो रहा है। ताजा आंकड़े इस खाई को और बढ़ा सकते हैं। कम तादाद वाले जातीय समूहों को हाशिए पर धकेला जा सकता है।

जाति जनगणना के अन्य संभावित परिणामों में अधिक आरक्षण की मांग भी शामिल है। वास्तव में इसकी शुरुआत हो भी चुकी है। लोक सभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने सुझाव दिया है कि आरक्षण पर सीमा समाप्त की जानी चाहिए और निजी शैक्षणिक संस्थानों में भी कोटा लागू किया जाना चाहिए। व्यापक स्तर पर देखें तो 2025 में जाति जनगणना का इतना महत्त्वपूर्ण होना बताता है कि हम अभी तक कुछ बुनियादी चीजों को दुरुस्त करने में विफल रहे हैं। कई समूहों के लिए जाति जनगणना और आरक्षण में हिस्सेदारी आगे बढ़ने की एक उम्मीद है। कुछ समूह जहां इससे लाभान्वित होंगे वहीं राजनीतिक वर्ग के लिए अहम प्रश्न यह है कि क्या एक ही चीज को अलग ढंग से बांटने से देश बेहतर जगह बन सकेगा? और क्या यह सबसे वांछित हल है। असल मुद्दा है आम जनता के लिए शिक्षा की कम गुणवत्ता और आर्थिक अवसरों की कमी। जब तक इन मुद्दों को हल नहीं किया जाएगा, जाति जनगणना और आरक्षण का संभावित पुनसंयोजन देश को बहुत आगे नहीं ले जा पाएगा।


Date: 02-05-25

स्वास्थ्य बीमा को ‘सेहतमंद बनाने की जरूरत

तमाल बंद्योपाध्याय, ( लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं )

भारत में स्वास्थ्य बीमा के दावे खारिज होने का डर पॉलिसीधारकों में बढ़ता जा रहा है। दूसरी तरफ, बीमा उद्योग जगत के सूत्रों का कहना है कि कम से कम 10 फीसदी स्वास्थ्य बीमा दावे फर्जी होते हैं। उनके अनुसार इससे स्वास्थ्य बीमा उद्योग को हर साल 12,000 करोड़ रुपये नुकसान होता है। सूत्रों के अनुसार अगर फर्जीवाड़े के मामले न हों तो एक ईमानदार पॉलिसीधारक के लिए प्रीमियम लगभग 20 फीसदी तक कम हो सकता है।

स्वास्थ्य बीमा दावे निपटान के दौरान फर्जीवाड़े से निपटना बीमा उद्योग के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसके अलावा दूसरी चुनौतियां भी हैं। अस्पतालों पर निगरानी का अभाव भी उनमें एक है क्योंकि भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र राज्य सूची में आता है। विभिन्न अस्पतालों में एक ही बीमारी के इलाज के लिए अलग-अलग रकम मांगी जाती है। इससे पॉलिसीधारकों और बीमा कंपनियों दोनों के लिए समस्याएं खड़ी होती हैं। भारी भरकम बिल की समस्या आम हो गई है। अस्पतालों में यह काम कई तरीकों से किया जाता है, जैसे गैर-जरूरी सेवाओं की आड़ में अधिक रकम ऐंठना, अत्यधिक महंगे इलाज का हवाला देकर भारी भरकम बिल तैयार करना और एक प्रक्रिया के तहत आने वाली विभिन्न सेवाओं के लिए भी अलग-अलग बिल तैयार करने जैसे हथकंडे अपनाए जाते हैं। कभी-कभी तो बिना मरीज के ही बिल और चिकित्सकों के फर्जी परामर्श तैयार हो जाते हैं। किस अस्पताल से कब कितना बिल आ जाए इसका कोई ठिकाना न होने की वजह से ही बीमा कंपनियां अधिक प्रीमियम वसूलती हैं।

व्यक्तिगत स्वास्थ्य बीमा (स्टैंड अलोन) उद्योग वित्त वर्ष 2023-24 में 3.5 फीसदी मुनाफा मार्जिन के साथ कारोबार किया था। निजी क्षेत्र की सामान्य जीवन बीमा कंपनियां अधिक मार्जिन कमाती हैं जबकि सरकारी सामान्य जीवन बीमा कंपनियों के मामले में यह कम होता है। अस्पतालों के लिए औसत मार्जिन कम से कम 30 फीसदी हो सकता है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल में ही कहा था कि वर्ष 2032 तक भारत दुनिया का छठा सबसे बड़ा बीमा बाजार बन जाएगा। उन्होंने कहा कि 2024- 2028 के बीच यह कारोबार 7. 1 फीसदी की सालाना चक्रवृद्धि दर से बढ़ेगा। इस तरह, जी-20 देशों में भारत सबसे तेजी से बढ़ता बीमा बाजार साबित होगा ।

अगर बात स्वास्थ्य बीमा की करें तो वर्ष 2047 के लिए सभी के लिए स्वास्थ्य बीमा का लक्ष्य हासिल करने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं ? इस सवाल का जवाब खोजने से पहले हम कुछ आंकड़ों पर विचार करते हैं। स्वास्थ्य एवं सामान्य जीवन बीमा कंपनियों के बीमा कवरेज की पहुंच वित्त वर्ष 2024 में 57.2 करोड़ लोगों तक हो गई थी । इन बीमा कंपनियों ने वित्त वर्ष 2024 में 83,500 करोड़ रुपये के दावे निपटाए, जो वित्त वर्ष 2023 की तुलना मे 17.7 फीसदी अधिक थे। स्वास्थ्य एवं सामान्य जीवन बीमा उद्योग ने वित्त वर्ष 2024 में कुल 2.68 करोड़, जो कि इसके पिछले साल 2.35 करोड़ था। इन कंपनियों ने वित्त वर्ष 2022 में 2.18 करोड़ दावे निपटाए थे। सिर्फ स्वास्थ्य बीमा देने वाली एकल कंपनियों ने अपना दावा अनुपात सुधार कर वित्त वर्ष 2024 में 89 फीसदी तक पहुंच दिया, जो वित्त वर्ष 2023 में 84 फीसदी था। वित्त वर्ष 2024 में इस उद्योग में 19 लाख एजेंट सक्रिय थे और 4.75 लाख करोड़ रुपये मूल्य की प्रबंधनाधीन परिसंपत्तियां थीं।

वित्त वर्ष 2024 में 25 सामान्य बीमा कंपनियां थी जिनमें चार सार्वजनिक क्षेत्र की भी थीं। 5 एकल स्वास्थ्य बीमा कंपनियां भी थीं। भारत में गैर-जीवन बीमा ( जिसमें स्वास्थ्य बीमा भी शामिल है) की पहुंच डीपी के महज 1 फीसदी तक है। इसमें विभिन्न सरकारी बीमा कंपनियों द्वारा चलाई जा रहीं स्वास्थ्य पॉलिसियां भी शामिल हैं।

वैश्विक स्तर पर अमेरिका में गैर जीवन बीमा की पहुंच सबसे अधिक (9.3 फीसदी) है जिसके बाद नीदरलैंड (7.2 फीसदी), कनाडा (4.7 फीसदी), जर्मनी (3.4 फीसदी) और ऑस्ट्रेलिया (3.3 फीसदी) का नाम आता है। बीमा पहुंच का आकलना जीडीपी में बीमा प्रीमियम प्रतिशत अनुपात के आधार पर किया जाता है। देश में बीमा पहुंच बढ़ाने के लिए भारत को बहु-आयामी उपाय करने होंगे जिसमें सभी हितधारकों ( सरकार, बीमा कंपनियां, स्वास्थ्य सेवा प्रदाताएं और आम लोग ) की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी।

आइए, दुनिया में कुछ सफल प्रारूपों पर नज़र डालते हैं। अमेरिका में सार्वजनिक कार्यक्रम (मेडिकेयर एवं मेडिकएड) और निजी बीमा, दोनों की मिश्रित प्रणाली काम करती है। वहां नियोक्ता – प्रायोजित बीमा कवर की सुविधा देने का प्रमुख जरिया है। ब्रिटेन, स्पेन और न्यूजीलैंड में ‘बेवरिज’ स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली अपनाई गई है। इसमें कराधान के जरिये सरकार द्वारा वित्त पोषित स्वास्थ्य देखभाल की व्यवस्था है और लोगों को सीधे अपनी जेब से प्रीमियम का भुगतान नहीं करना पड़ता है। जर्मनी और जापान ‘बिस्मार्क मॉडल’ का इस्तेमाल करते हैं जिसमें कर्मचारी एवं नियोक्ता स्वास्थ्य बीमा प्रीमियम भरते हैं।

कनाडा और कुछ अन्य देश राष्ट्रीय बीमा ढांचा अपनाते हैं। इस ढांचे में सरकार करों के माध्यम से राजस्व जुटाकर स्वास्थ्य सेवाओं के लिए पूरा खर्च वहन करती है। सिंगापुर में हाइब्रिड मॉडल के अंतर्गत सस्ते प्रीमियम पर उच्च गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सेवाएं दी जाती हैं।

मगर भारत में स्वास्थ्य बीमा क्षेत्र में कई चुनौतियां हैं। देश में वित्त वर्ष 2024 में इलाज पर आने वाला खर्च 14 फीसदी बढ़ गया, जो एशिया के किसी भी देश की तुलना में सबसे अधिक रहा। अगर सभी स्वास्थ्य बीमा कवर के लिए प्रीमियम में बढ़ोतरी की शिकायत कर रहे हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

सामान्य बीमा परिषद के आंकड़े दर्शाते हैं कि स्वास्थ्य बीमा की वृद्धि दर पिछले वित्त वर्ष की 20.25 फीसदी से घट कर वित्त वर्ष 2025 में 8.98 फीसदी रह गई । बीमा कंपनियों की सकल प्रीमियम आय 1.18 लाख करोड़ रुपये रही जो वित्त वर्ष 2024 में 1.08 लाख करोड़ रुपये रही थी । बीमा प्रीमियम में बढ़ोतरी और दावे के अस्वीकार होने के कारण लोग स्वास्थ्य बीमा खरीदने से परहेज करने लगे हैं।

समस्या की जड़ यह है कि अस्पतालों पर निगरानी केंद्र एवं राज्य दोनों के कानूनों से रखी जाती है। इन कानूनों के क्रियान्वयन सभी राज्यों में समान रूप से नहीं होते हैं। निदान केंद्रों के लिए एकीकृत निगरानी नहीं होने से भी सेवा की गुणवत्ता और मूल्य निर्धारण मानक दोनों से जुड़ी चिंताएं पैदा होती है। स्वास्थ्य राज्य सूची में आता है इसलिए ब्रिटेन की तरह एक केंद्रीकृत नियमन का प्रावधान नहीं किया जा सकता मगर इससे निपटने के दूसरे तरीके जरूर मौजूद हैं। रियल एस्टेट नियामक प्राधिकरण (रेरा) की तर्ज पर एक स्वास्थ्य नियामक तैयार किया जा सकता है जो अस्पतालों में इलाज खर्च और इससे जुड़ी प्रक्रियाओं के लिए मानक तय कर सकता है और खर्च में कमी कर सकता है।

लोकपाल कार्यालय और उपभोक्ता न्यायालय कुछ हद तक सहायक जरूर हैं मगर स्वास्थ्य क्षेत्र की विशेष जानकारियों के साथ एक समर्पित नियामक अस्पतालों, ग्राहकों और थर्ड पार्टी क्लेम प्रबंधन कंपनियों के फर्जीवाड़े से कड़ाई से निपट सकता है। अगले सप्ताह ‘2047 तक सभी के लिए बीमा’ पर चर्चा होगी।


Date: 02-05-25

सार्थक रूप देना होगा

संपादकीय

आखिरकार केंद्र सरकार ने बुधवार को देश में जातीय जनगणना कराने का चिर-प्रतीक्षित निर्णय ले लिया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में राजनीतिक मामलों की कैबिनेट की बैठक में जातीय गणना को हरी झंडी दी गई। यानी अगले वर्ष संभावित जनगणना के साथ ही जातीय जनगणना भी होगी । देश में आजादी के बाद पहली बार जातिवार गणना की जाएगी। पहलगाम कांड के बाद अचानक से लिये गए फैसले से हालांकि सियासी दलों से लेकर आमजन भी चौंक गए। क्योंकि अभी किसी को भी यह भान नहीं था कि सरकार इस तरह का कोई बड़ा फैसला लेगी। इससे पहले कई बार जाति सर्वेक्षण हुए हैं, लेकिन पूरी गणना नहीं की गई। स्वाभाविक तौर पर सरकार के इस कदम से सियासत में उबाल आ गया है। एक तरफ जहां विपक्ष इसे अपनी जीत बता रहा है वहीं सत्ताधारी भाजपा इतिहास का हवाला देकर कह रही है कि कांग्रेस ने हमेशा से जातिवार गणना का विरोध किया। बहरहाल, जाति भारतीय समाज की सचाई है। इसे न तो उपेक्षित रखा जा सकता है और न इसके खिलाफ जाया जा सकता है। जाति के आधार पर ही विकास के पैमाने तय होते हैं। जाति के आंकड़े नियम बनाने और उन पर अमल करने के साथ ही देश के संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित करने के लिए बेहद जरूरी होते हैं। इससे इस बात की सटीक जानकारी हासिल होती है कि कौन सी जातियां तमाम नीतियों, सुविधाओं और आरक्षण के बावजूद किस हालत में है और उनमें इतने वर्षों के दरमियान किस तरह का बदलाव आया है। अलबत्ता, इस काम में पांच साल का विलंब हो चुका है। यहां तक कि गृह मंत्रालय ने अभी भी यह नहीं बताया है कि वृहद गणना किस तारीख से कराई जाएगी। अच्छा होता सरकार इस बारे में भी कैबिनेट की पहली बैठक में ही स्थिति साफ करती। जहां तक राजनीति की बात है, विपक्ष खासकर कांग्रेस इस मसले पर लगातार आक्रामक रुख अख्तियार किए हुए थी। वहीं राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव भी इसे अपनी जीत बता रहे हैं। चूंकि बिहार में इसी साल विधानसभा चुनाव होना है, लाजिमी है इसका श्रेय लेने की होड़ मचेगी, मगर सभी आम जन और सियासी दलों को इस तथ्य पर ज्यादा गंभीर और संवेदनशील होना होगा कि इस फैसले को राजनीतिक जंजाल में न फंसाकर इसे सार्थक रूप देने की पहल करें।


Date: 02-05-25

जाति पर जोर की जारी रहेगी राजनीति 

संजय कुमार, ( प्रोफेसर, सीएसडीएस )
अगली जनगणना के साथ ही जाति जनगणना कराने की केंद्र सरकार की घोषणा स्वागतयोग्य है। भले यह एलान देरीसेहुआहै, जिससे सियासी दलों को इस पर सियासत करने का मौका मिल गया है, लेकिन यह एक महत्वपूर्ण कदम है, क्योंकि जाति संबंधी दुरुस्त आंकड़े अब देया के सामने आएंगे। हालांकि, जाति जनगणना कराने की केंद्र सरकार की अचानक घोषणा ने कई सवाल खड़े कर दिए हैं। सबसे पहला तो यही कि आजादी के इतने सालों बाद जनगणना कराने का आखिर क्या औचित्य है ? क्या इससे कोई बड़ा उद्देश्य पूरा होगा ? जाति जनगणना पूरी होने के बाद कौन सी पार्टी इसका श्रेय लेगी? कौन सी पार्टी ओबीसी की खैरख्वाह बनकर उभरेगी? क्या भाजपा इससे कोई राजनीतिक लाभ उठा पाएगी या कांग्रेस व ‘इंडिया’ ब्लॉक की अन्य पार्टियां लोगों को यह समझाने में सफल हो जाएंगी कि यह कदम ‘इंडिया’ ब्लॉक के दबाव में उठाया गया है?
यह सच है कि जाति जनगणना की जरूरत आज की तुलना में आजादी के समय कहीं अधिक थी, लेकिन ऐसा नहीं है कि इसका आज कोई उपयोग नहीं है। जाति जनगणना से हमें विभिन्न जातियों के आंकड़ों और उनकी सामाजिक व आर्थिक स्थिति की ठोस जानकारी मिल सकेगी। जनगणना से जुटाए गए आंकड़े ही विभिन्न समुदायों या जातियों के लोगों के सामाजिक व आर्थिक कल्याण के लिए शुरू किए जाने वाले सरकारी प्रयासों का आधार बनते हैं। पिछले कई दशकों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मामले में ऐसा होते हम देख चुके हैं।
नई जाति जनगणना से हमें न केवल विभिन्न जातियों से जुड़े लोगों की संख्या के बारे में पता चल सकेगा, बल्कि विभिन्न जातियों से जुड़े लोगों के सामाजिक और आर्थिक विकास को समझने अथवा मापने में भी मदद मिल सकेगी। इससे विशेषकर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को खासा मदद मिलेगी, क्योंकि सच यही है कि यदि अतीत में यह कवायद हुई होती, तो ओबीसी की असल संख्या सामने आती और तत्कालीन हुकूमत पर इनके लिए कल्याणकारी योजनाएं शुरू करने के लिए दबाव बनाया जा सकता था। मगर ऐसा नहीं हो सका। हालांकि, आज भी ऐसा कोई आंकड़ा सामने आता है, तो सरकार को योजनाओं में मदद मिल सकती है। मंडल आयोग की रिपोर्ट के लागू होने के साथ ही केंद्र सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी के लिए क्रीमी लेयर के प्रावधान के साथ आरक्षण की व्यवस्था की गई है, लेकिन आरक्षण का अनुपात और क्रीमी लेयर के मानदंड बिना किसी अधिकृत जानकारी के लागू किए गए हैं। जातिगत जनगणना सरकार को इन दोनों मुद्दों को सुलझाने में मदद कर सकती है।
सरकार द्वारा इस बाबत घोषणा किए जाते ही राजनीतिक दलों के बीच इसका श्रेय लेने की होड़ मच गई है। एक तरफ, कांग्रेस और ‘इंडिया’ ब्लॉक के उसके सहयोगी यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि केंद्र सरकार पर उनके दबाव के कारण ही ऐसा होने जा रहा है, तो दूसरी तरफ, भाजपा और उसके सहयोगी दल इसके जवाब में कांग्रेस पर ओबीसी विरोधी होने के आरोप लगा रहे हैं, क्योंकि कई दशकों तक सत्ता में रहने के बाद भी उसने कभी जाति जनगणना नहीं करवाई। दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं, लेकिन फैसले में देरी करना भाजपा के खिलाफ जाता दिखता है, क्योंकि कई बार कांग्रेस ने भाजपा पर ओबीसी विरोधी होने का आरोप लगाया है, जबकि भारतीय जनता पार्टी अपने ओबीसी सांसदों और मंत्रियों के आंकड़ों का हवाला देती रही है। देखा जाए, तो कांग्रेस पार्टी के लिए यह मुद्दा विभिन्न चुनावों में मतदाताओं को एकजुट करने का आधार रहा है, जो कभी सफल हुआ, तो कभी विफल। मगर भाजपा का कांग्रेस पर यह पलटवार कि कई दशकों तक सत्ता में रहने के बावजूद उसने जाति जनगणना क्यों नहीं कराई, मतदाताओं के एक वर्ग को रास आ सकता है।
बेशक, अभी यह साफ नहीं है कि कौन सी पार्टी चुनाव में इसका लाभ उठा सकेगी, लेकिन तथ्य यही बताते हैं कि 2014 के आम चुनाव के बाद से ओबीसी का झुकाव भाजपा की ओर हुआ है। उल्लेखनीय है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में 42 फीसदी ओबीसी ने भाजपा को वोट दिया, जबकि 2009 के चुनाव तक कांग्रेस और भाजपा दोनों ओबीसी मतों के लिए एक- दूसरे से जूझते रहते थे और दोनों को लगभग 25-25 फीसदी ओबीसी वोट मिलते थे।
फिलहाल यह तो स्पष्ट नहीं है कि मतदाता जाति जनगणना का श्रेय किस दल को देंगे, लेकिन एक बात साफ है कि जाति आधारित लामबंदी तमाम दलों की प्रमुख चुनावी रणनीति बनने वाली है, खासतौर से उत्तर भारतीय राज्यों की पार्टियों की। बेशक, पहले भी जाति आधारित लामबंदी होती रही है, लेकिन अब इसमें दो बदलाव आ सकते हैं। पहला, जाति आधारित लामबंदी का मुद्दा फिर से सियासत के केंद्र में आ जाएगा। मगर इससे भी अधिक बुनियादी सवाल यह है कि क्या पार्टियां (जो भी सरकार में हैं) ओबीसी की सामाजिक और आर्थिक बेहतरी के लिए काम करेंगी या सिर्फ श्रेय लेने की होड़ में इस मुद्दे पर राजनीति करती रहेंगी ? राजनीतिक दल निस्संदेह राजनीति करते हैं, और इस पर भी वे राजनीति खूब करेंगे, क्योंकि उन्हें इस मुद्दे पर चुनावी लाभ मिलने की उम्मीद है।
अब चर्चा जाति जनगणना की प्रक्रिया और तौर- तरीकों पर हो सकती है। कांग्रेस पहले ही समय-सीमा, प्रारूप आदि पर सवाल उठा चुकी है। कामना यही की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार का यह कदम विवादों, आरोप-प्रत्यारोप में न फंस जाए। जाति जनगणना की प्रक्रिया न तो थकाऊ और समय लेने वाली है और नही महंगी। इसके लिए अगली जनगणना के फॉर्म में केवल कुछ कॉलम जोड़ने की जरूरत है। सरकार का इरादा भी नियमित जनगणना के साथ ही इसे कराने का है, न कि अलग से कराने का। फिलहाल, जनगणना के दौरान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की जातियां ही दर्ज की जाती हैं, साथ ही आर्थिक आंकड़े भी जमा किए जाते हैं, इसलिए जाति जनगणना कराने को लेकर कोई परेशानी नहीं आनी चाहिए और इसे सामान्य जनगणना के साथ आसानी से किया जा सकता है। बस उम्मीद यही की जानी चाहिए कि सरकार जल्द से जल्द इस प्रक्रिया को शुरू करे, ताकि हमें विभिन्न जातियों की संख्या और उनकी सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति के बारे में ठोस जानकारी मिल सके।