03-05-2025 (Important News Clippings)

Afeias
03 May 2025
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Date: 03-05-25

Ramdev’s world

He likely likes controversies ’coz it’s good for business

TOI Editorials

Delhi HC said of Ramdev that he “is not in anyone’s control” and that “he lives in his own world”. The judge was earlier aghast at Ramdev’s ads, saying he couldn’t “believe my eyes and ears when I saw this (the videos)”. Ramdev’s company dragged its feet on following court’s orders but finally rushed in to do as required – an apology and promise of no more “such” ads. YouTube still had the ads apparently on a “private” mode for his subscribers. And Delhi HC will check out their compliance of its orders on May 9.

But does the baba entrenched in the material worlds of politics and business really inhabit his own world, as HC said? Not really. A more astute businessman than his saffron robes let on, he gambled on waging a new ‘cola’ war with his communally charged attack on a Hamdard product. Reality is, Ramdev can barely wrench himself from the headlines for too long. With full mindfulness, he breezily walks in and out of controversies and court cases. He has little compunction about making religiously coloured statements, getting hauled up in court, or having his company dish out apologies after going slow on compliance. Only for him to do something anew. The company has almost 30 cases against it, mostly for misleading ads. The Supreme Court last Aug closed a contempt case following an apology.

Ramdev knows a tinge of saffron can dish up a winner. But dollops of it can leave a bitter aftertaste in the foods, medicines and consumer goods sectors his business straddles. The brouhaha is all free publicity, and likely only enhances his brand. He also believes he’s likely to wriggle out each time, legally, none the worse for wear. That’s probably the part where that fitness routine kicks in.


Date: 03-05-25

How to Really Instal A Creative Economy

Freedom+critical culture+patronage+individualism

ET Editorials

This week, there was considerable focus on influencers who shared their ideas about making India a ‘creative economy’ at the inaugural World Audio Visual and Entertainment Summit. India, of course, is already a creative economy. But one reckons what the speakers were talking about was to optimise the country’s creative industries, both monetarily as well as in terms of enhancing India’s soft power globally. The concept of ‘creative economy’ was developed in 2001 by John Howkins — reformatted in 2013 by Pedro Buitrago and Iván Duque (the latter, a former Colombian president) as ‘orange economy’ — to describe economic systems where value is based on ‘novel imaginative qualities rather than the traditional resources of land, labour and capital’. While India’s advantages in this sphere — rich story-telling legacy, huge pool of consumers and creators, tech-ableness — are much touted, focus could be given to four key ingredients that make for a steady, hyper-fertile ‘dream factory’.

One, freedom — to create, without patrons, guardians or regulators constantly looking over the shoulders to ensure that the proverbial mob approves, or doesn’t disapprove, a creation. Two, a genuine critical culture that reviews, critiques, applauds and elaborates on the many contents created. Not just saying Movie X is great and Novel Y is bad, but why they are so, without any statutory push or pull.

Three, patronage. All content — ‘art’ or otherwise — needs financial food. A culture where creative arts and sciences are seen as investments, with its own set of RoIs, has to be inculcated. And, most importantly, four, putting the individual on top. The individual creator, armed with the three other conditions, can be both incubator and brand ambassador of an economy where productions of creativity can thrive, minus the dead weight of a soviettype ideological collective.


Date: 03-05-25

जाति जनगणना का निर्णय अचानक नहीं लिया गया है

संजय कुमार, ( प्रोफेसर व राजनीतिक टिप्पणीकार )

जाति जनगणना को लेकर अब तक आनाकानी करने वाली भाजपानीत केंद्र सरकार ने अचानक इस मुद्दे पर यू-टर्न क्यों ले लिया?

क्या यह पहलगाम आतंकी हमले से ध्यान हटाने की रणनीति है या जाति जनगणना कराने का श्रेय लेकर विपक्ष को और कमजोर करने की? क्या भाजपा इस पहल से चुनावी लाभ उठा पाएगी या कांग्रेस और अन्य सहयोगी दल लोगों को यह समझाने में सफल होंगे कि यह सब केवल दबाव में किया जा रहा है? सवाल यह भी उठ रहे हैं कि आजादी के इतने दशकों बाद जाति जनगणना कराने का क्या उद्देश्य है?

एक पल के लिए तमाम अगर-मगर, क्यों कैसे और घोषणा की टाइमिंग को अलग रख दें। मेरी राय में सरकार द्वारा जाति जनगणना कराने की घोषणा एक स्वागतयोग्य कदम है। और मुझे नहीं लगता यह निर्णय अचानक लिया गया है। ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय रातों-रात या जल्दबाजी में नहीं लिए जा सकते। भाजपा में इसको लेकर सावधानीपूर्वक विचार-विमर्श हुआ होगा। पिछले कुछ वर्षों में भाजपा इस बात को लेकर अनिश्चित थी कि अगर जाति जनगणना कराने का निर्णय लिया जाता है तो मतदाता भाजपा को कितना श्रेय देंगे।

कारण, विपक्षी दल और मुख्य रूप से कांग्रेस इस मुद्दे का उपयोग भाजपा के खिलाफ मतदाताओं को लामबंद करने के लिए कर रहे थे। लेकिन पिछले तीन लोकसभा चुनावों और कई विधानसभा चुनावों में जीत ने भाजपा को आश्वस्त किया होगा कि पार्टी अब ओबीसी मतदाताओं के बीच भी लोकप्रिय हो रही है।

हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस फैसले से कौन-सी पार्टी सबसे ज्यादा चुनावी लाभ उठा पाएगी, क्योंकि सभी इसका श्रेय लेने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन कम से कम लोकनीति-सीएसडीएस सर्वेक्षणों के साक्ष्य बताते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद ओबीसी वर्ग बड़े पैमाने पर भाजपा की ओर झुक गया है। 2024 के लोकसभा चुनाव में भी 43% ओबीसी ने भाजपा को वोट दिया, जबकि केवल 19% ने ही कांग्रेस को चुना। जबकि 2009 के लोकसभा चुनावों तक कांग्रेस और भाजपा दोनों ही ओबीसी वोटों के लिए प्रतिस्पर्धा करते थे और दोनों को लगभग एक चौथाई ओबीसी वोट मिलते थे।

चुनावी लाभ के लिए सभी दल आपस में होड़ कर रहे हैं। कांग्रेस और इंडिया के गठबंधन सहयोगी यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि ऐसा सिर्फ
इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने सरकार पर दबाव बनाया था। जवाब में भाजपा कांग्रेस पर ओबीसी विरोधी होने का आरोप लगा रही है, क्योंकि कई दशकों तक सत्ता में रहने के बाद भी उसने कभी जाति जनगणना नहीं करवाई थी। कांग्रेस और भाजपा दोनों के ही द्वारा दिए जा रहे तर्कों में दम नजर आता है।

भाजपा ने इस बारे में फैसला शायद इसलिए किया, क्योंकि इस मुद्दे को नजरअंदाज करना उसे अपने खिलाफ जाता दिख रहा था। कई मौकों पर कांग्रेस ने उस पर ओबीसी विरोधी होने का आरोप लगाया था। वहीं भाजपा अपने ओबीसी सांसदों और मंत्रियों का हवाला देती रहती थी। कांग्रेस जाति जनगणना के मुद्दे को विभिन्न चुनावों में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए इस्तेमाल करती रही है। अपने फैसले से भाजपा कांग्रेस से यह मुद्दा भी छीनने में सफल रही है।

इसका स्वागत इसलिए किया जाना चाहिए क्योंकि जाति जनगणना से एकत्र किए जाने वाले डेटा से हमें विभिन्न जातियों के आंकड़े और उनकी सामाजिक- आर्थिक स्थिति जानने में मदद मिलेगी। यह विभिन्न समुदायों/जातियों से संबंधित लोगों के कल्याण के लिए सरकार की पहल का आधार बन सकता है। पिछले कई दशकों से एससी और एसटी के मामले में यही होता रहा है। मंडल आयोग की रिपोर्ट के कार्यान्वयन के साथ केंद्र सरकार की नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में क्रीमी लेयर के बिंदु सहित ओबीसी के लिए आरक्षण का प्रावधान है, लेकिन आरक्षण का अनुपात (प्रतिशत) और क्रीमी लेयर के मानदंड बिना किसी पुख्ता इनपुट के लागू किए गए हैं। जाति जनगणना के आंकड़े सरकार को दोनों मुद्दों को ठीक करने में मदद कर सकते हैं।

राजनीतिक दलों का मूल काम राजनीति करना ही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि पार्टियां जाति जनगणना के मुद्दे पर भी जमकर राजनीति करेंगी, क्योंकि उन्हें इससे चुनावी लाभ मिलने की उम्मीद है। लेकिन जिस सबसे बुनियादी सवाल पर ध्यान देने की जरूरत है, वो यह है कि क्या सत्तारूढ़ पार्टियां ओबीसी के सामाजिक और आर्थिक कल्याण के लिए सच में ही ठोस काम करेंगी या इस मुद्दे के इर्द-गिर्द सिर्फ राजनीति ही करती रहेंगी ?


Date: 03-05-25

पाकिस्तानी और बांग्लादेशी

संपादकीय

पहलगाम में आतंकी हमलाकर पाकिस्तान ने किस तरह भारत में रह रहे, सगे-संबंधियों से मिलने आए अथवा उपचार करा रहे अपने नागरिकों के लिए भी मुश्किलें खड़ी कर दी, यह इससे पता चलता है कि ऐसे लोगों के वीजा रद होने के बाद उसकी ओर से उन्हें लेने में आनाकानी करना । उसने ऐसे लोगों के लिए एक दिन अपना गेट बंद रखा। जो भारतीय पाकिस्तान में रह रहे, उन्हें भी भारत लौटने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन उनकी संख्या कहीं कम है। भारत में तो ऐसे पाकिस्तानी नागरिकों की गिनती करना और उन्हें खोजना भी कठिन हो रहा है, जो भारत आए थे। इनमें से कुछ तो वर्षों और यहां तक कि दशकों से रह रहे थे। कई तो वीजा अवधि खत्म होने के बाद भी रह रहे थे। कुछ ऐसे भी निकले, जो भारत में भारतीयों जैसी सुविधाएं पा रहे थे और तो और वोट भी डाल रहे थे । आखिर ऐसा कैसे हो गया? समस्या केवल यह नहीं कि पाकिस्तानी नागरिकों को वापस भेजना कठिन हो रहा है। समस्या यह भी है कि भारत में जन्मीं तमाम महिलाएं ऐसी हैं, जिनका विवाह पाकिस्तान में हुआ, लेकिन उन्हें वहां की नागरिकता नहीं मिली या उन्होंने ली ही नहीं। इनमें से कुछ ऐसी हैं, जिनके बच्चों को वहां की नागरिकता मिली हुई है। ऐसे बच्चे तो लौट पा रहे हैं, लेकिन माताएं नहीं। भारत को ऐसे जतन करने होंगे कि ऐसी महिलाएं बच्चों के साथ लौट सकें।

पाकिस्तान ने जो मानवीय संकट खड़ा किया, उसका संज्ञान लेकर भारत ने उनके लौटने की समय सीमा बढ़ाकर ठीक किया, लेकिन यह भी समझना होगा कि वीजा अवधि खत्म होने के बाद भी यहां रह रहे पाकिस्तानी नागरिक सुरक्षा के लिए खतरा हो सकते हैं। इसलिए और भी, क्योंकि ऐसे कई पाकिस्तानी मिल नहीं रहे। कुछ ने तो छल-छद्म से भारतीय पहचान हासिल कर ली है। ऐसे भी प्रकरण हैं कि पाकिस्तानी महिला ने ऐसे भारतीय पुरुष से विवाह किया, जो सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील पद पर है। साफ है कि या तो आवश्यक नियम-कानूनों का अभाव है या फिर उनकी अनदेखी हो रही है। इसे भूला न जाए कि अतीत में कई पाकिस्तानी नागरिक भारत आए और फिर वे यहीं कहीं गुम हो गए । सामान्य स्थितियों में दोनों देशों के लोगों का आना-जाना लगा रहेगा और उनके प्रति नरमी बरतनी होगी, लेकिन भारत को यह तो देखना होगा कि ऐसा कुछ न हो, जो सुरक्षा के लिए खतरा बने । बात केवल वीजा लेकर आए पाकिस्तानी नागरिकों की नहीं, अवैध बांग्लादेशियों की भी है। अकेले गुजरात में वे हजारों की संख्या में पाए गए। वह सही समय है भारत अपने वीजा नियमों को दुरुस्त करे और एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर के बारे में भी विचार करे ।


Date: 03-05-25

समझ-बूझ कर बढ़ना होगा

प्रमोद भार्गव

पहलगाम के हमले को लेकर जनता में पाकिस्तान के खिलाफ गुस्से के बीच नरेन्द्र मोदी सरकार ने जातीय जनगणना की घोषणा करके देश को चौंका दिया है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में हुई केंद्रीय कैबिनेट की राजनीतिक मामलों की समिति ने आगामी जनगणना के साथ व्यक्ति की जाति आधारित गिनती कराने का निर्णय ले लिया है। विपक्षी दलों के साथ प्रमुखता से राहुल गांधी जातीय जनगणना की मांग पुरजोरी से संसद से सड़क तक उठाते रहे हैं।

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले इस घोषणा को सरकार की बड़ी राजनीतिक कूटनीतिक चाल मानी जा रही है। वैसे भी मोदी सही वक्त पर विपक्ष के मुद्दों के परिप्रेक्ष्य में अचानक निर्णय लेकर मुद्दों को अपने अनुकूल बनाने में सफल रहे हैं। खासतौर से बिहार चुनाव के संदर्भ में इस मुद्दे की अहमियत परखी जाएगी। परतंत्रता के दौरान फिरंगी हुकूमत ने पहली बार जाति जनगणना कराई थी, लेकिन स्वतंत्र भारत में नेहरू जी जब प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने इसकी जरूरत को सिरे से नकार दिया था। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जोर-शोर से बिहार में केंद्र सरकार की इच्छा के विरुद्ध जातीय जनगणना कराई थी तभी से राहुल गांधी समेत इंडिया गठबंधन ने इसे मुद्दा बनाकर पूरे देश में जातिवार गणना कराने की मांग शुरू कर दी थी कर्नाटक की पिछली कांग्रेस सरकार ने भी जातीय सर्वेक्षण कराया था, लेकिन उसके आंकड़े आज तक सार्वजनिक नहीं किए गए हैं। दरअसल, संविधान के अनुच्छेद 246 की केंद्रीय सूची में जनगणना को रखा गया है, इसलिए राज्यों को जाति जनगणना कराने का अधिकार नहीं है। यह तथ्य अपनी जगह ठीक हो सकता है कि जाति, शिक्षा और आर्थिक आधार पर एकत्रित आंकड़े जनकल्याणकारी योजनाओं को अमल करने में मदद करते हैं। इसलिए जातिगत आरक्षण का प्रतिषत भविष्य में बढ़ाया जा सकता है? नीतियां बनाने में भी जातीय गिनती की रिपोर्ट को अमल में लाया जा सकता है, लेकिन आरक्षण को लेकर समाज में जो दुविधाएं और कुंठाएं पनप रही हैं, वहीं परिणति जाति आधारित गणना में भी देखने को मिल सकती है ? क्योंकि आरक्षण का आधार तो जाति आधारित गिनती ही है। देश के सभी राजनीतिक दल जातीय समीकरण के आधार पर ही चुनाव में टिकट बांटते हैं। इस लिहाज से यह कहना गलत नहीं होगा कि जातीय गिनती से समाज की संरचना मजबूत होगी? वर्तमान में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की गिनती जातीय आधार पर ही होती है, फिर भी जातीय ताना-बाना अपनी जगह बदस्तूर है

नीतीश कुमार ने तो अति पिछड़ी और अति दलित जातियों के विभाजन के आधार पर ही जद (यू) का वजूद कायम किया हुआ है। भाजपा अब इसमें सेंध लगा रही है मोदी सरकार में पिछड़ों का ही वर्चस्व है। स्वयं मोदी इसी वर्ग से आते हैं। इसी वर्ग के एचडी देवगौड़ा भी प्रधानमंत्री रह चुके हैं। यानी राजनीति में जो चतुर हैं, वे अपनी चतुराई से जातिगत सभी सीमाएँ लांघते हुए संविधान के सर्वोच्च पदों पर आसीन हो सकते हैं। नब्बे के दशक में बीपी सिंह प्रधानमंत्री रहते हुए जब मंडल आयोग की सिफारिशें लागू की थी, तब से ज य गणना की मांग तीव्रता से उठती रही है।

दरअसल, मंडल के बाद मुलायम, लालू शरद यादव और ने इस राजनीति को धार दी। इसी का परिणाम निकला कि उत्तर प्रदेश और बिहार में यह राजनीति कांग्रेस को बेदखल करके उत्कर्ष के चरम पर पहुंची डॉ. राममनोहर लोहिया की समाजवादी वैचारिकता उदय हुई इस राजनीति का नारा है कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।’ हालांकि इन्हीं मांगों के चलते 2011 की जनगणना के साथ अलग से एक प्रारूप पर सामाजिक, आर्थिक और जाति आधारित जनगणना की गई थी, किंतु मूल जनगणना के साथ की गई इस गिनती के आंकड़े न तो मनमोहन सिंह सरकार ने उजागार किए और न ही नरेन्द्र मोदी सरकार ने? इस तरह की गणना की मांग करने वाले नेताओं का कहना है कि इसके निष्कर्ष से निकले आंकड़ों के आधार पर जिन जातियों की जितनी संख्या है, उस आधार पर कल्याणकारी योजनाओं के साथ सरकारी नौकरियों में आरक्षण का लाभ मिले? वस्तुतः जातिगत जनगणना एक ऐसा मुद्दा है, जिसमें सतह पर तो खूबियां दिखाई देती हैं, लेकिन अनेक डरावनी आशंका भी इसके गर्भ में छिपी हैं। जातिगत गणना के परिणामों को संख्या बल के आधार पर आरक्षण दिया जाता है तो समाज में विषमता के साथ कटुता भी उत्पन्न होगी।

जातिगत आरक्षण के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 16 की जरूरतों को पूरा करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था है, लेकिन आरक्षण किसी भी जाति के समग्र उत्थान का मूल कभी नहीं बन सकता? निजी क्षेत्र में भी आरक्षण देने की मांग की जा रही है, परंतु जब तक सरकार समावेशी आर्थिक नीतियों को अमल में लाकर आर्थिक रूप से कमजोर लोगों तक नहीं पहुंचती, तब तक पिछड़ी वा निम्न जाति अथवा आय के स्तर पर पिछले छोर पर बैठे व्यक्ति के जीवन स्तर में अपेक्षित सुधार नहीं आ सकता। एक समय आरक्षण का सामाजिक न्याय से वास्ता जरूर था, लेकिन सभी जाति व वर्गों के लोगों द्वारा शिक्षा हासिल कर लेने के बाद जिस तरह से देश में शिक्षित बेरोजगारों की फौज खड़ी हो गई है, उसका कारगर उपाय आरक्षण जैसे चुक गए औजार से संभव हे? लिहाजा सत्तारूढ़ दल अब सामाजिक न्याय से जुड़े सवालों के समाधान आरक्षण के हथियार से खोजने की बजाय रोजगार के नये अवसरों का सृजन कर निकालेंगे तो बेहतर होगा?

भूमंडलीकरण के दौर में खाद्य सामग्री की उपलब्धता से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास संबंधी जितने भी ठोस मानवीय सरोकार है, उन्हें हासिल करना इसलिए और कठिन हो गया है, क्योंकि अब इन्हें केवल पूंजी और अंग्रेजी शिक्षा से ही हासिल किया जा सकता है? ऐसे में आरक्षण लाभ के जो वास्तविक हकदार है, वे अर्थाभाव में जरूरी योग्यता और अंग्रेजी ज्ञान हासिल न कर पाने के कारण हाशिये पर उपेक्षित पड़े हैं। अलबत्ता आरक्षण का सारा लाभ वे लोग बटोरे लिए जा रहे हैं, जो पहले ही आरक्षण का लाभ उठाकर आर्थिक व शैक्षिक हैसियत हासिल कर चुके हैं।