
05-05-2025 (Important News Clippings)
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Date: 05-05-25
जाति गणना और आरक्षण
संपादकीय
जातिगत जनगणना की घोषणा के बाद ऐसे निष्कर्ष निकाले जाने पर हैरानी नहीं कि इस जनगणना के आंकड़े आ जाने के उपरांत आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को बढ़ाने के साथ अन्य पिछड़ा वर्ग की कुछ समर्थ जातियों को ओबीसी के दायरे से बाहर किया जा सकता है। भविष्य में जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि आरक्षण की 50 प्रतिशत सीमा को तोड़ने की मांग पहले से ही हो रही है। इसी तरह यह भी एक सच्चाई है कि ओबीसी की आर्थिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से सक्षम कुछ जातियों ने आरक्षण का अधिक लाभ अर्जित किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने पिछले लगभग चार दशकों में आर्थिक प्रगति से हुए बदलावों का लाभ उठाकर स्वयं को उन्नत किया है। पिछड़े वर्ग की कुछ सक्षम जातियां आरक्षण का अधिकतम लाभ उठाने में इसलिए समर्थ रहीं, क्योंकि वर्तमान आरक्षण नीति इस पर केंद्रित नहीं है कि सर्वाधिक लाभ वास्तविक रूप से सबसे पिछड़ी जातियों को मिले। इसके अतिरिक्त इस तथ्य को भी ओझल नहीं किया जा सकता कि सामाजिक न्याय की बात करने वाले कुछ क्षेत्रीय दलों के नेता जब सत्ता में आए तो उन्होंने समस्त पिछड़े वर्ग के स्थान पर जाति विशेष के लोगों के उत्थान पर अधिक ध्यान दिया ।
स्पष्ट है कि जातिगत जनगणना कराए जाने के साथ ही आरक्षण नीति की विसंगतियों को दूर करने की भी आवश्यकता है। एससी- एसटी, ओबीसी एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के आरक्षण के जरिये यह सुनिश्चित किया जाना आवश्यक ही नहीं, बल्कि अनिवार्य है कि उसका लाभ पात्र लोगों को ही मिले। ऐसा करके ही सामाजिक न्याय के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसके साथ ही ऐसे भी कुछ उपाय करने होंगे, जिससे आरक्षण और साथ ही देश की आर्थिक प्रगति से लाभान्वित होकर खुद को हर तरह से समर्थ बना चुके लोगों को आरक्षण सूची से बाहर किया जाए। जातिगत जनगणना के वास्तविक आंकड़े मिल जाने पर ऐसा करना कहीं अधिक आसान होगा, लेकिन तभी जब आरक्षण को वोट बैंक की राजनीति का हथियार बनाने से बचा जाएगा। आरक्षण नीति में विसंगतियां इसलिए हैं, क्योंकि अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल जातियों के सामाजिक-आर्थिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े होने का कोई ठोस आंकड़ा नहीं है। क्या यह विचित्र नहीं कि उन आंकड़ों से काम चलाया जा रहा है जो 1931 अर्थात अविभाजित भारत की जातिगत जनगणना से मिले थे। किसी भी नीति को सही तरह से क्रियान्वित करने के लिए ठोस आंकड़े उपलब्ध होना पहली आवश्यकता होती है। निःसंदेह इस आवश्यकता की पूर्ति जातिगत जनगणना करेगी, लेकिन इसके साथ ही इस आशंका को दूर किया जाना चाहिए कि जातिगत जनगणना की आड़ में जातीय विभाजन को बढ़ाने वाली राजनीति को नए सिरे से बल मिल सकता है। राजनीतिक दलों को यह समझना होगा कि जातिवाद की राजनीति करके सामाजिक न्याय के उद्देश्य की पूर्ति कभी भी नहीं की जा सकती ।
Date: 05-05-25
जातिवार जनगणना के निहितार्थ
गिरीश्वर मिश्र, ( लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति हैं )
भारतीय राजनीति के लिए यह एक दुर्लभ क्षण है जब सत्ता पक्ष एवं विपक्ष, दोनों एकमत हुए हैं। दोनों पक्ष देश में जाति के आधार पर अगली जनगणना कराने के मुद्दे पर राजी हो गए हैं। अंतिम बार वर्ष 1931 में अंग्रेजों ने देश में जातीय जनगणना कराई थी। इस दूरगामी फैसले को सामाजिक न्याय मुहैया कराने और पिछड़ों के सशक्तीकरण से जोड़कर प्रस्तुत किया जा रहा है और सभी दल इसका श्रेय लेने के लिए अपना-अपना दावा पेश कर रहे हैं। भारतीय समाज की एक प्राचीन संस्था के रूप में जाति के अनेक संस्करण होते रहे हैं। शुद्धता और अपवित्रता की अवधारणा के इर्द-गिर्द फैली पसरी जाति व्यवस्था से जुड़ी कुरीतियों के चलते आधुनिक दृष्टि प्रायः इसे लेकर चिंता प्रकट करती रही है। देश के सभी नेता इसे विभाजनकारी, शोषक और प्रगति के मार्ग में प्रमुख बाधा मानते आए हैं। जाति जन्म से जुड़ी एक पदानुक्रमिक समाजिक श्रेणीकरण की परिपाटी है। परंपरा के अनुसार जाति व्यवस्था उस व्यक्ति के लिए सुविधाओं और प्रतिबंधों की परिधि बनाती चलती है। सामाजिक सीमा बनाती जाति खास तौर पर वैवाहिक संबंधों को अंतरजातीय परिधि में सीमित करते हुए सामाजिक गतिशीलता को रोकने वाली रही है। जाति व्यक्ति के निजी गुणों की उपेक्षा कर उसके ऊपर अपेक्षाओं का बोझ लादती है, जिसे उसे जीवन भर ढोना पड़ता है।
जाति एक जटिल सामाजिक व्यवस्था है, जिसका स्वरूप समय और स्थान के साथ बदलता रहा है। कर्म पर आधारित चार वर्णों वाली मूल व्यवस्था कब जन्म आधारित जाति की रूढ़ि में ढल गई, यह कहना तो मुश्किल है, परंतु जाति की व्यवस्था ने निश्चित रूप से भारतीय समाज और उसके सोच-विचार को बुरी तरह से जकड़ लिया कि उससे उबरने की कोशिश कारगर न हो सकी। आज जाति की चेतना को लेकर देश में विचित्र स्थिति पैदा हो रही है। एक और जाति से जुड़े प्रतिबंध टूट रहे हैं तो दूसरी ओर प्रत्येक जाति की अलग संस्था बनाने का उन्माद भी दिख रहा है। लोग जाति से आसानी से जुड़कर अपनी सामाजिक पहचान बना लेते हैं और अतिरिक्त ऊर्जा का अनुभव करने लगते हैं, जो जाति की सदस्यता से मिलती है। यह प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बलवती हो रही है। आज देश में जातियों और उपजातियों के नाम पर गठित संस्थाओं की भरमार हो रही है। अभिमान और गर्व के साथ लोग इन संस्थाओं का गठन कर रहे हैं, जिनका कथित उद्देश्य उस जाति विशेष के सदस्यों का कल्याण होता है। जाति के साथ नस्ली श्रेष्ठता जैसी भावना भी कुछ समुदायों में दिखती है । स्थानीय स्तर पर बने जाति संघ, जाति परिषद्, जाति सेना या जातीय दल भी संबंधित समुदाय के लिए तरह-तरह के काम करते हैं।
आज अगर किसी जाति का कोई संघ मौजूद नहीं है तो वह जाति अपने को कमतर मानती हैं और समुदाय बनाने चल पड़ती है। इस तरह आज भारतीय समाज में जाति का विरोध और जाति का समर्थन करने वाली, दोनों ही तरह की प्रवृत्तियां साथ-साथ पनप रही हैं। जाति की संस्था का विरोध और खंडन राजनीतिक और सामाजिक चिंतन के लिए वैचारिक आधार देता आया है। अब जाति सामाजिक आचार-विचार से अधिक राजनीतिक लक्ष्य के साथ अधिकाधिक जुड़ती जा रही है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि आम चुनावों में पार्टियां प्रत्याशियों का चुनाव जाति को ध्यान में रखकर ही करती हैं। जाति से जुड़ाव एक आदिम सामाजिक जरूरत को पूरा करता है। राजनीतिज्ञ इसका लाभ उठाते हैं। लोकतंत्र में संख्या बल का महत्व है। इसलिए आज जातिगत समीकरण का खेल हर कहीं दिख रहा है। जिस क्षेत्र में जो जाति या उपजाति अधिक संख्या में होती है वहां से उसी जाति का प्रत्याशी खड़ा किया जाता है चाहे वह योग्य हो या न हो। यह प्रकट तथ्य है कि जाति और उपजाति को इस तरह प्रमुखता देना जाति की भावना को तीव्र करने वाला है। जाति को योग्यता मान कर हो रही राजनीति सिर्फ पूर्वाग्रह, भेदभाव और शोषण को बढ़ावा देने वाली साबित हो रही है।
यह भी एक सत्य है कि जाति का बंधन भारतीय समाज के एक बड़े तबके के लिए विकास के मार्ग में रोड़ा बना रहा है। स्वतंत्र भारत में जाति के आधार पर होने वाले अमानवीय भेदभाव को समाप्त करने के लिए तमाम कदम उठाए गए हैं। साथ ही पीढ़ियों से शोषित समुदायों को राहत देने और दूसरों की तरह ही विकसित होने का समान अवसर देने के लिए संविधान में विशेष सुविधाओं का प्रविधान किया गया है। इनके लिए शिक्षा और नौकरी में आरक्षण देने की व्यवस्था हुई हैं। इन सुविधाओं की पात्रता को लेकर समय-समय पर विचार और संशोधन भी होता रहा है। इस क्रम में जातियों को अनुसूचित और ओबीसी, दलित, महादलित आदि की श्रेणियां बनाई गईं और इनके लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्धारण किया गया है। अब भारत में जातियों का आकलन कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण होगा। इससे न केवल सामाजिक- सांस्कृतिक परिवर्तन का मानचित्र उभरेगा, बल्कि समाज की अपेक्षाओं का भी पता चलेगा। इस प्रयास में समाज विज्ञानियों का भी सहयोग लिया जाना लाभदायक होगा। सबके विकास के लिए जरूरी है कि उन लोगें को अच्छी तरह से चिह्नित किया जाए, जो गरीब, पिछड़े और वंचित हैं तथा मानवीय सुविधाओं से वंचित हैं। आशा है कि एक समावेशी समाज के लिए, जिसके सदस्यों की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में साक्रिय भागीदारी हो यह जनगणना निश्चित रूप से फलदायी सिद्ध होगी।
Date: 05-05-25
हिन्दुस्तान के साथ खड़े मुस्लिम मुल्क
संजय के भारद्वाज, ( प्रोफेसर जेएनयू )
पहलगाम आतंकी हमले की इस्लामी देशों द्वारा मुखरता से निंदा करना एक नया संकेत है। पहले दक्षिण एशिया में होने वाले आतंकी हमले पर विश्व समुदाय का रुख बंटा हुआ दिखता था। मगर पहलगाम की बर्बरता को दुनिया के तमाम देशों ने मानवता के खिलाफ माना है, जिसमें इस्लामी देशों का रुख विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इंडोनेशिया के राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो ने तो आतंकवाद से निपटने में भारत का साथ देने का वायदा करते हुए यह भी कहा है कि इंडोनेशिया में जिस इस्लाम का पालन किया जाता है, वह आतंकी हमलों की शिक्षा नहीं देता। निस्संदेह, उन्होंने ऐसा इसलिए क कहा होगा, क्योंकि आज आम धारणा में इस्लाम में और आतंक को एक-दूसरे का पर्याय समझा जाने लगा है। मगर सच यही है कि अन्य धर्मों की तरह इस्लाम भाईचारे की बात करता है। इस्लाम के खिलाफ यह धारणा इसलिए बनी, क्योंकि संयुक्त अरब अमीरात, कतर, सऊदी अरब जैसे देशों ने कभी राज्य प्रायोजित आतंकवाद को बढ़ावा दिया था। उन दिनों भारत और अरब की इस्लामी संस्कृति में तनाव भी खूब था। मगर अब यह भेद काफी हद तक खत्म हो चुका है, जिसके कारण इस्लामी देश भारत के पक्ष में खड़े दिखने लगे हैं और पाकिस्तान अलग-थलग पड़ता नजर आ रहा है।
सवाल है कि पाकिस्तान आतंकवाद का पनाहगाह कैसे बना ? दरअसल, 9/11 हमले से पहले तक आतंकवाद को लेकर अमेरिका दोहरा रवैया रखता था । वहपाकिस्तान-समर्थित गुटों की क की कड़ी निंदान दा नहीं करता, क्योंकि सोवियत संघ (अब रूस) और साम्यवाद उसके निशाने पर थे। अफगानिस्तान में सोवियत संघ की सेना से लड़ने के लिए अमेरिका ने ही मुजाहिदीन तैयार किए, जो बाद में तालिबान बनकर उभरे। मगर 11 सितंबर, 2001 को जब वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के ट्वीन टावर गिराए गए, तब उसका रवैया बदला। तब उसने दक्षिण एशियाई आतंकवाद को माना और इसके खिलाफ वैश्विक आह्वान किया। हालांकि, अफगानिस्तान की जंग में उसे पाकिस्तान का साथ चाहिए था, इसलिए उसने यहां कोई कार्रवाई नहीं की। नतीजतन, कई आतंकियों के लिए पाकिस्तान एक सुरक्षित ठिकाना बन गया। मगर एबटाबाद में आतंकी सरगना ओसामा बिन लादेन के खिलाफ की गई अमेरिकी कार्रवाई ने पूरी दुनिया में पाकिस्तान को बेपरदा कर दिया। उससे यह फिर साबित हुआ कि पाकिस्तान एक तरफ तालिबान से लड़ने की बात कह रहा था, तो दूसरी तरफ आतंकियों को अपने यहां पनाह भी दे रहा था और अमेरिकी मदद का इस्तेमाल भारत के खिलाफ कर रहा था।
इस बीच, भारत ‘ग्लोबल साउथ’ की एक मजबूत आवाज बनकर उभरा, जिस कारण पश्चिमी देशों के ही नहीं, संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, सऊदी अरब, कतर जैसे मुल्कों के रुख में भी बदलाव आया। इतना ही नहीं, जब जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 वापस लिया गया और पुलवामा हमले के जवाब में बालाकोट पर कार्रवाई की गई, तब भी इन इस्लामी देशों ने पाकिस्तान के दावे को नकारते हुए भारत का पूरा साथ दिया।
पहलगाम की बात करें, तो ‘यूनाइटेड वॉइस अगेंस्ट टेररिज्म’ (आतंकवाद के विरुद्ध साझा आवाज) के रूप में इस्लामी देशों की प्रतिक्रिया सामने आई है। चूंकि जब यह हमला हुआ था, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सऊदी अरब में थे भारत का सामरिक सहयोगी है, इसलिए उसने न सिर्फ आतंकवाद के खिलाफ, बल्कि अन्य तमाम क्षेत्रों में भी भारत को सहयोग देने की बात कही है। आज अरब ही नहीं, संयुक्त अरब अमीरात, कतर, ईरान जैसे तमाम देश भारत को अपना सामरिक सहयोगी मानते हैं, क्योंकि यह न सिर्फ एक उभरती आर्थिक ताकत है, बल्कि उनका महत्वपूर्ण तेल आयातक देश भी है। यही कारण है कि प्रमुख इस्लामी देश अब भारत को पाकिस्तान की नजर से नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया के एक महत्वपूर्ण सहयोगी के रूप में देखने लगे हैं।
इस्लामी देश मानने लगे हैं कि पाकिस्तान ने इस्लाम के नाम पर उनका इस्तेमाल किया है। मुस्लिम वर्ल्ड लीग के महासचिव शेख डॉ मोहम्मद बिन अब्दुल करीम अल-इस्सा ने भी इस हमले की निंदा करते हुए पीड़ित परिवारों के प्रति अपनी संवेदना जताई है।
आज आलम यह है कि फलस्तीन हो, संयुक्त अरब अमीरात हो या ओमान या फिर ईरान, कतर, इजरायल, लेबनान जैसे देश, ये सभी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में भारत का साथ देने को तैयार हैं। आज इस्लामी देशों में कोई शांति की वकालत कर रहा है, कोई सहयोग देने का वायदा कर रहा है, कोई सहानुभूति जता रहा है, तो कोई मुंहतोड़ जवाब जवाब देने का समर्थन कर रहा है। पाकिस्तान को सुनने के लिए शायद ही कोई देश तैयार ने के है। यहां तक कि इस्लामी सहयोग संगठन की बैठक में भी आतंकवाद के खिलाफ बातें उठीं। यहां पाकिस्तान एक बार फिर पहलगाम हमले की तटस्थ देश द्वारा निष्पक्ष जांच की आवाज उठाई, लेकिन इस्लामी देशों उसकी सफाई को नजर अंदाज कर दिया। बैठक में आतंकवाद की सामाजिक-आर्थिक जड़ों से निपटने पर भी जोर दिया गया और कहा गया कि आतंकियों की भर्ती करने वाले ने लेनेटर्वक और ‘टेरर फंडिंग’ के खिलाफ भी सख्त कदम उठाए जाने चाहिए। इसके लिए ‘ग्लोबल पार्टनरशिप’ की वकालत की गई है।
यह सब इसलिए संभव हुआ है, क्योंकि भारत का दबदबा अब काफी गया है। इस्लामी देशों के साथ हमारे अच्छे कारोबारी रिश्ते हो गए हैं। अरब व यूरोपः रोप से कनेक्टिविटी व आर्थिक संबंध बढ़ाने के लिए भारत- मध्य पूर्व आर्थिक गलियारा भी बनाया जा रहा है। इतना ही नहीं, , इस्लामी देशों की अर्थव्यवस्था में भारतवंशी समुदाय एक बड़ी भूमिका निभाने लगे हैं। फिर, भारत ‘ग्लोबल साउथ’ की एक मजबूत आवाज बन गया है। और वैश्विक कल्याण की वकालत करता रहता है। यानी एक जिम्मेदार एशियाई देश के रूप में भारत की छवि ने इस्लामी देशों को प्रभावित किया है।
यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चर्चा लाजिमी है। उनकी करिश्माई छवि ने भी विश्व मंच पर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाई है। यही कारण है कि आज कई इस्लामी देशों ने उनको अपनेसर्वोच्चसम्मान से नवाजा है। इतना ही नहीं, एक मजबूत नेता के रूप में उन्होंने जिस तरह से पश्चिमी एशियाई व दक्षिण-पूर्व के देशों से संबंध विकसित किए हैं, उसका भी भारत को फायदा मिला है और आतंकवाद के खिलाफ नई दिल्ली की लड़ाई में सभी देशों ने अपनी सहभागिता निभाने की बात कही है। वास्तव में, यह विकसित हो रहे भारत का असर है।