भीड़ की हिंसा अस्वीकार्य है

Afeias
10 Aug 2017
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Date:10-08-17

 

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किसी भी सामजिक घटना या दुर्घटना को देखने का नजरिया सबका अलग-अलग होता है। जब कोई समाज-विज्ञानी ऐसी किसी घटना की विवेचना करता है, तो उसे सामान्य वैज्ञानिक से अलग हटकर साक्ष्यों, आख्यानों एवं निष्कर्षों पर विचार करना चाहिए।

पिछले कुछ महीनों में उपद्रवी भीड़ के द्वारा गौरक्षा या धर्म-रक्षा के नाम पर होने वाली हत्याओं के कारण विपक्षी दलों ने सत्तारूढ़ दल को अनेक बार कटघरे में खड़ा किया है। इन घटनाओं को जाँचने-परखने के लिए तीन आधार हो सकते हैं।

  • पहला आधार आरोपों के विरूद्ध दोष सिद्ध करने का है। ‘अपराध सिद्ध होने तक निर्दोष माना जाना, और ‘हेबियस कारपस’ (गैरकानूनी रूप से हिरासत के विरूद्ध सुरक्षा), न्याय के दो मुख्य स्तंभ हैं। किसी भी हिंसात्मक घटना के गवाहों, अपराधियों और पीड़ितों के अपने अलग-अलग संस्करण हो सकते हैं। पुलिस का काम आरोपों और तथ्यों को इकट्ठा करके किसी मामले को न्यायालय तक ले जाना होता है। यहाँ आरोपों का अर्थ आरोप का सिद्ध होना नहीं होता।
  • दूसरा आधार पुष्ट आंकड़ों के खिलाफ मनगढंत कहानियों को जांचने का हो सकता है। हमारे यहाँ की गरीबी और अन्याय एवं अत्याचार के एक लंबे इतिहास के कारण कहानियों पर प्रबल विश्वास की हमारी प्रवृत्ति प्रवर्धित है। इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं कि हर एक अप्राकृतिक मौत को रोका जाना चाहिए। परन्तु मानवीय स्वभाव कभी-कभी वास्तविकता के बजाय कही-सुनी बातों पर अधिक विश्वास कर लेता है। यद्यपि 2012 की तुलना में 2017 में हत्याओं और भीड़ के द्वारा की गई हिंसा की घटनाओं में कमी आई है, परन्तु राजस्थान के आँकड़ों के अनुसार पिछले तीन वर्षां में अप्राकृतिक मौतों में कोई कमी नहीं दिखाई देती। दुर्भाग्यवश, हमारे देश में प्रतिदिन 22,500 लोगों की मृत्यु होती है। सरकार सुशासन के द्वारा अप्राकृतिक मृत्यु को रोकने का पूरा प्रयत्न करता है।
  • व्यक्तिगत उत्तेजना बनाम सामूहिक पूर्वाग्रह, इसका तीसरा आधार हो सकता है। हर व्यक्ति के अपने धार्मिक, जातिगत और लिंग संबंधी पूर्वाग्रह हैं। उनके आधार पर ही वह कर्म करता है। परन्तु कुछ व्यक्त्यिों के कर्मों को सामूहिक विचारधाराओं से जोड़ देना उचित नहीं है।

भीड़ की हिंसक घटनाओं में अक्सर यह देखने में आता है कि किसी एक व्यक्ति की उत्तेजना, उकसाने पर पूरी भीड़ का विचार बन जाती है और तभी ऐसी घटनाएं होती हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि व्यक्तिगत उत्तेजना का साथ परिस्थितियां और पुलिस कार्यवाही में देरी भी देती है। भीड़ की हिंसा के लिए दोषी किसी व्यक्ति को दंड अवश्य दिया जाना चाहिए।प्रधानमंत्री ने ऐसी घटनाओं को पूर्णतः गैरकानूनी ठहराते हुए इनके लिए दोषी व्यक्त्यिों को दंड देने की अपील की है। यह सच भी है कि पीड़ित के परिवार का एकमात्र सहारा न्याय है और इसके लिए हमें अपनी न्याय व्यवस्था को अधिक समावेशी, तीव्र और निष्पक्ष बनाना होगा।

टाइम्स ऑफ इंडिया में प्रकाशित वसुंधरा राजे के लेख पर आधारित।