काल्पनिक जगत की हिंसा से बचना जरूरी है

Afeias
29 Aug 2016
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Date: 29-08-16

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यदि हम पिछले 50 वर्षों पर नजर दौड़ाएं, तो पता चलता है कि ये वर्ष हिंसा की दृष्टि से सबसे शांत रहे। इस दौर में विश्व नहीं युद्ध नहीं हुए। मृत्यु-दण्ड तथा महिलाओं के प्रति हिंसा आदि में भी काफी गिरावट रही। इन सबमें आतंकवाद ही एक विसंगति रही। परंतु राजा-महाराजों के युग एवं विश्व-युद्धों की तुलना में इसके कारण मृत्यु दर अपेज्ञाकृत कम रही।

वास्तविक जिंदगी से हटकर देखें, तो पता लगता है कि हमने हिंसा की तुष्टि के लिए एक काल्पनिक जगत खोज लिया है। यह फिल्मों, इलैक्ट्रॉनिक मीडिया या खेलों का ऐसा जगत है, जिसकी रचना हमने स्वयं की है और सोच-समझकर की है। आखिर ऐसा क्यों है? आज के विकसित समाज में कुछ बेहतर और प्रगतिशील करने की अपेक्षा हम अपने संतोष को हिंसा में ढूंढ रहे हैं। इस हिंसा-मिश्रित मनोरंजन का औचित्य क्या है?

क्या हम सभ्य समाज का मात्र जामा पहने हुए है? ऐसा लगता है कि कहीं गहरे हमारे भीतर हिंसा की स्वाभाविक प्रवृत्ति छुपी हुई है और वह किसी न किसी तरह से संतुष्टि चाहती है।

समाज में रहते हुए हमारा वास्ता बहुत से हिंसात्मक प्रसंगों से पड़ता रहता है। जब हम समाज के निकृष्ट पहलू को देख लेते हैं, तो हम अपने सामान्य और सुरक्षित जीवन को ही बड़ी प्रशंसा की नजर से देखने लगते हैं।

कला, थियेटर, साहित्य और फिल्मों में भी हिंसा के विभिन्न रूपों को परोसा गया और इन विधाओं में इसकी प्रस्तुति की सुंदरता पर चर्चाएं भी सदियों से होती आ रही है। अगर हिंसा का प्रदर्शन तमाशे के रूप में किया जा रहा हो, तो वह कहीं हमारे मन में एक तरह के कैथॉर्सिस का काम करता है। फिर भी कहीं-न-कहीं वह हमारे मन-मस्तिष्क पर अपनी छाप छोड़ जाता है। शुक्र है कि ईश्वर ने हमें दिमाग ऐसा दिया है, जो हर घटना पर प्रश्न करता है, वाद-विवाद और उसकी समीक्षा करता है और इसलिए हम हिंसा के प्रदर्शन को अपने मन-मस्तिष्क पर हुबहु उतरने नहीं देते।

हमारा अंतर्मन जितने पाश्विक वृत्ति से पीड़ित है, उतना ही इसमें दया, प्रेम और संवेदना का मिश्रण है। वास्तविक जीवन में हिंसा कम चाहना या उसे कम करने की कोशिश करते हुए काल्पनिक आॅनलाईन दुनिया में उससे मनोरंजन प्राप्त करना एक जटिल गुत्थी बनती जा रही है। इस संकट से उबरना आवश्यक है।

किसी समाज की प्रगति केवल आर्थिक न होकर सामाजिक संवेदना और सिद्धांतों पर भी बहुत हद तक निर्भर करती है। इस संवेदनात्मक पक्ष को अधिक धार देने की आवश्यकता है।

इकॉनॉमिक टाइम्समें प्रसून जोशी के लेख पर आधारित।

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