महिलाओं के प्रति हिंसा में अंतरअनुभागीयता को पहचाना जाए

Afeias
02 Jul 2021
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Date:02-07-21

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हमारे समाज में महिलाओं को लिंग, जाति और विकलांगता के आधार पर बहुत भेदभाव और अत्याचार सहना पड़ता है। इस हेतु कानून के माध्यम से अनेक प्रयास किए गए हैं।  समय-समय पर इन कानूनों की मदद से पीड़िताओं को न्याय दिलाने का प्रयत्न भी किया जाता है। 2020 में हाथरस में एक दलित महिला के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बाद उच्चतम न्यायालय ने इससे मिलते-जुलते मामले में कड़ाई करते हुए अत्याचार निवारण या अनुसूचित जाति/जनजाति अधिनियम के साथ ही भारतीय दंड सहिता की धारा 376 के अंतर्गत मामला दर्ज करते हुए अपराध सिद्ध किया है।

यहाँ यह समझने की आवश्यकता है कि महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों में जाति, धर्म, वर्ग और विकलांगता के आधार पर ज्यादती की जाती है। दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ किए जाने वाली यौन हिंसा में भी न्यायालय सामान्यतः अत्याचार निवारण या प्रिवेन्शन ऑफ एट्रोसिटीस अधिनियम का इस्तेमाल नहीं करते हैं। जबकि यह कानून खासतौर पर उन्हीं के लिए बनाया गया है। बावजूद इसके 2006 के महाराष्ट्र के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अधिनियम को यह कहकर किनारे कर दिया कि इसका इस्तेमाल सिर्फ इस बुनियाद पर नहीं किया जा सकता कि यह एक दलित जाति की महिला से जुड़ा हुआ है।

ऐसे मामलों में अक्सर न्यायालय साक्ष्यों का पुलिंदा मांगती है। कोई महिला इस बात के साक्ष्य कैसे प्रस्तुत कर सकती है कि उसके दलित या विकलांग होने के कारण ही उसके साथ अत्याचार हुआ है। अनुसूचित जाति/जनजाति की महिलाओं को इस आधार पर न्याय मिलने की संभावना रहती है कि दोषी को महिला की जाति का ज्ञान था। परंतु कमजोर वर्ग की विकलांग महिलाओं के पास तो यह आधार भी नहीं होता।

1989 में प्रोफेसर किंबरले क्रेनशॉ ने ‘इंटरसैक्शनलिटी’ या “अंतर अनुभागीयता” जैसे पद को खोजा था। यह एक सामाजिक सिद्धांत है, जिसके अनुसार प्रत्येक मनुष्य की विलक्षण पहचान होती है। हर मनुष्य का चरित्र अनेक पहचानों का परिणाम होता है, जिससें जाति, लिंग, सामाजिक वर्ग, धर्म व वंश होते हैं। इन अनेक पहचानों से समाज में उत्पीड़न, भेदभाव और प्रभुत्व की प्रथा चली आ रही है। अमेरिका में अफ्रीकी मूल की महिलाओं के साथ होने वाले भेदभावजनित अपराधों की संख्या को देखते हुए इस नए सामाजिक सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया था, जो भारत के संदर्भ में भी सही ठहरता है।

पाटन जमाल वली बनाम आंध्र सरकार मामलें में अंतर अनुभागीय का हवाला देते हुए उच्चतम न्यायालय का निर्णय देना इस बात को सिद्ध करता है कि साक्ष्यों के जाल के पीछे न छिपकर महिलाओं के साथ होने वाली जाति आधारित हिंसा से कानून को सख्ती से निपटना होगा। अन्यथा जाति आधारित हिंसा के विरोध में बने कानून धरे के धरे रह जाएंगे, और दलित व कमजोर महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ते ही जाएंगे।

‘द हिंदू’ में प्रकाशित जयना कोठारी के लेख पर आधारित। 1 जून, 2021

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