नक्सली हिंसा का एक और दौर

Afeias
29 Apr 2021
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Date:29-04-21

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हाल ही की नक्सली हिंसा में एक बार फिर देश के 22 जवानों की हत्या की गई है। इस घटना ने वामपंथी विद्रोह को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए फिर से कड़ी चुनौती के रूप में सामने खड़ा कर दिया है। पिछले कुछ वर्षों में माओवादी हिंसा का रूख अधोगामी रहा है। हिंसा के इस हमले ने कुछ तथ्य सिद्ध कर दिए हैं कि माओवादियों के पास एक ताकतवर और सक्षम खुफिया तंत्र है। उनके स्थानीय कमांडरों को पर्याप्त अधिकार हस्तांतरित किए जाते हैं। वे सब समयानुसार रणनीति बदलने में सिद्धहस्त हैं। उनको स्थानीय आदिवासियों का पर्याप्त सहयोग प्राप्त है, और वे समय पड़ने पर अपने विद्रोहात्मक युद्ध में उनको शामिल करना जानते हैं। साथ ही स्थानीय भूभाग पर वे अपना प्रभुत्व रखते हैं।

नक्सलियों की ऐसी विशेषताएं, केंद्र व राज्यों की जवाबी कार्यवाही के लिए प्रश्न खड़ा करती हैं कि ये नक्सलियों की रणनीति की तुलना में सक्षम हैं या नहीं ?

1950 के दशक में नगालैण्ड में इस प्रकार की विरोधी कार्यवाही की शुरूआत हुई थी। एक विचार धारा के लोग ऐसा मानते हैं कि चूंकि नक्सली विद्रोह जनता से जुड़ा हुआ है, इसलिए इसकी जवाबी कार्यवाही को जन-आधारित बनाया जाना चाहिए। इसके लिए सरकार को नक्सली प्रभावित क्षेत्रों का आर्थिक और प्रशासनिक विकास करके स्थानीय जनता के दिल में जगह बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।

दूसरे पक्ष के अनुसार सरकार को आक्रामक दृष्टिकोण अपनाते हुए माओवादियों के पूरे सफाए के लिए अपनी पूरी शक्ति का इस्तेमाल करना चाहिए। आंध्रप्रदेश के कुछ सशस्त्र हमले की सफलता ने इस दृष्टिकोण को बल भी दिया है। वास्तविकता में तो आंध्र सरकार सशस्त्र हमले और जनआधारित पहल का एक मिश्रित रूप लेकर आगे बढ़ी है। माओवादियों के बड़ी संख्या में आत्मसमर्पण और पुनर्वास की दृष्टि से आंध्रप्रदेश अग्रणी राज्य रहा है। उड़ीसा ने भी ऐसी सफलताएं प्राप्त की हैं। सामान्यतः माओवादियों के आत्मसमर्पण और पुनर्वास का काम भी तभी हो सका है, जब उन पर सेना की कार्यवाही का दबाव बढ़ा।

दूसरा प्रश्न आता है कि क्या सरकार को नक्सलियों से वार्ता का रास्ता अपनाना चाहिए ?

इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, जब सरकारों ने दुर्दांत विद्रोहियों से वार्ता करके हिंसा को खत्म करने में सफलता पाई है। माओवादियों को तो वैसे भी पथभ्रष्ट युवा की श्रेणी में रखा जाता है, जिन्हें मुख्यधारा में वापस लाने की जरूरत है।

पिछले एक दशक में, नक्सल प्रभावित राज्य सरकारों ने अपनी सेना को नक्सली गोरिल्ला युद्ध तकनीक के आधार पर कठोर प्रशिक्षण देना शुरू किया है। माओवादी नक्सलियों का क्षेत्र फैला हुआ है। एक वारदात करने के बाद अक्सर वे अन्य राज्यों के वन-क्षेत्रों में शरण ले लेते हैं। इसलिए राज्य सरकारों को एक समन्वयात्मक नीति अपनाते हुए काम करना चाहिए।

साथ ही इन क्षेत्रों में विकास के कार्यों को जारी रखा जाना चाहिए। संस्थागत सुधार करते हुए संसाधनों का आवंटन इस प्रकार से किया जाए कि आदिवासी जनता सरकार को अपना शोषक समझने की बजाय मित्र समझे। अंततः सत्ता की शक्ति का वितरण भी इस प्रकार हो कि वह परंपरागत रूप से संभ्रांत वर्ग को ही मिलने के स्थान पर हर वर्ग के हिस्से में आ सके। सबसे बड़ी बात आदिवासी और नक्सलियों के मर्म को समझने की है। फिल्म ‘न्यूटन’ में इसी मर्म को समझने और समझाने का प्रयत्न करते हुए उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने का उपाय बताया गया है, जो सरल और सराहनीय है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित साजिद फरीद शापू के लेख पर आधारित। 9 अप्रैल, 2021

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