यौन हिंसा से सुरक्षा के लिए प्रयास

Afeias
24 Jan 2020
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Date:24-01-20

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हाल के कुछ महीनों में भारत के कई नगरों ने महिलाओं के प्रति भयावह हिंसा, सामूहिक बलात्कार और हत्या के मामले देखे हैं। यौन हिंसा के इन जघन्य मामलों को देखते हुए देश में इस प्रकार के अपराधों के विरूद्ध राष्ट्रीय आपातकाल घोषित किया जाना चाहिए। लेकिन हमारी सरकार खंडन की स्थिति में है।

2016 से लेकर अब तक राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो की वार्षिक रिपोर्ट को दबाया जाता रहा है। 2017 की रिपोर्ट को 2019 में जारी किया गया था। इस रिपोर्ट में महिलाओं के प्रति अपराध के बढ़ते मामलों की स्थिति भयावह है। औसत 1000 मामले प्रतिदिन दर्ज किए जा रहे हैं। लगभग 28 महिलाएं प्रतिदिन जलाई जा रही हैं। इन्हें ‘दहेज-हत्याओं‘ के अंतर्गत दर्ज किया जा रहा है।

पंजीकृत हुए ये मामले बहुत मामूली हैं, क्योंकि अधिकांश मामलों की तो रिपोर्ट ही नहीं लिखवाई जाती। राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार सर्वेक्षण-4 के अनुसार हर तीसरी विवाहित महिला शारीरिक या यौन हिंसा से पीड़ित रह चुकी है। इनमें से केवल 1.5% ने ही पुलिस की सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया। मोदी सरकार ऐसे आंकड़ों को दबाना चाहती है या उन्हें बेकार घोषित करके अपनी विफलता पर पर्दा डालना चाहती है।

हैदराबाद जैसे मामलों में तो जन-प्रतिनिधियों के रूखेपन की भी झलक मिलती है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री ने पीडित परिवार से मिलकर उसे सांत्वना देने का प्रयत्न नहीं किया। संसद में इस मामले को उठाए जाने के दौरान गृहमंत्री नदारद रहे। देश की राजधानी दिल्ली को महिलाओं के दृष्टिकोण से कभी सुरक्षित नहीं समझा गया। परंतु क्या गृहमंत्री ने इस पर पुलिस अधिकारियों के साथ कोई बैठक कर कभी चिंता जताई है ?

ऐसे मामलों से सुरक्षा के उपायों पर विचार करने की बजाय सरकार दण्ड के कठोरतम विकल्पों को रेखांकित करके जनता का ध्यान भटकाने का प्रयत्न करती है। सरकार का यही मानना है कि इस प्रकार के अपराधों के लिए कठोर-से-कठोर दंड दिया जाना चाहिए, और हमारे न्यायिक तंत्र में इसका अभाव है। इसी संदर्भ में सांसद जया बच्चन की अपराधियों की सार्वजनिक हत्या की अपील निरापद और चिंताजनक लगती है। बलात्कार और हत्या के मामलों में पहले ही हमारे यहाँ मृत्युदण्ड का प्रावधान है। वैश्विक अनुभव भी यह बताते हैं कि ऐसे दण्ड-प्रावधानों से अपराध में कोई कमी नहीं आती है। अतः इस क्षेत्र से जुड़े कार्यकर्ता लगातार ऐसी प्रक्रियाओं पर जोर देते आए हैं, जो अपराध को हतोत्साहित करें। इस मापदंड पर कोई प्रगति नहीं हुई है।

मामलों का अंबार

नेशनल क्राइम रिसर्च ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि यौन हिंसा से जुड़े तमाम मामले लंबित पड़े हुए हैं। महिलाओं के प्रति हिंसा के लंबित मामलों का प्रतिशत 89.6 रहा है। न्याय तंत्र की इस विफलता के ही कारण महिलाओं के प्रति यौन अपराध में कमी नहीं आ रही है।

निर्भया मामले के पश्चात न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई थी, जिसने अपराध को रोकने के कई सुरक्षात्मक उपाय सुझाए थे। केंद्र व राज्य सरकारों पर यह जिम्मेदारी है कि वे इस प्रकार के अपराधों पर नियंत्रण के लिए सामाजिक और भौतिक ढांचे का विकास करें।

वर्मा समिति के सुझाव

  • स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम में समानता और महिलाओं की स्वायत्तता के प्रति सम्मान दिखाने के सामाजिक मूल्यों से संबंधित अध्याय जोड़े जाएं।
  • सार्वजनिक परिवहन सुरक्षित हों।
  • नगरों में पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था हो।
  • सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं।
  • असुरक्षित क्षेत्रों में पुलिस पेट्रोलिंग बढ़ाई जाए।

इनके अलावा भी क्षेत्रगत जरूरतों को देखते हुए कुछ अन्य उपाय किए जाएं, तो अपराध पर नियंत्रण पाया जा सकता है।

यौन हिंसा से जुड़ा संघर्ष वैसा ही है, जैसा महिलाओं को अशक्त करने वाली नीतियों के विरूद्ध किया जाता है। इसके लिए जन-आंदोलन द्वारा सामाजिक परिवर्तन और केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा किसी उत्तरदायी कोड का प्रवर्तन अनिवार्य सा लगता है। तभी हम भारत को बच्चों और महिलाओं के लिए सुरक्षित रख सकेंगे।

‘द हिंदू‘ में प्रकाशित वृंदा करात के लेख पर आधारित। 5 दिसंबर, 2019

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