हिमालय के पिघलते ग्लेशियरों की वास्तविकता

Afeias
28 Apr 2021
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Date:28-04-21

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हाल ही में उत्तराखंड में आई तबाही को ग्लेशियर के विस्फोट की प्रक्रिया से जोड़ा जा रहा है। हालांकि यह सही नहीं है, परंतु इस घटना ने नए सिरे से ग्लोबल वार्मिंग से हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने के खतरे की चेतावनी दी है।

हिमालय के ग्लेशियरों से संबंधित कुछ मिथ्या, कुछ सत्य –

2007 में इंटरनेशलन पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने भविष्यवाणी की थी कि 2035 तक हिमालय के सभी ग्लेशियर पिघल जाएंगे। परंतु यह सही नहीं थी। तत्पश्चात् ग्लेशियर विज्ञानी वी. के. रैना. ने बताया कि ग्लेशियर तो आइस एज के बाद से ही लगातार पिघल रहे हैं, और पिघलते रहेंगे। परंतु पिछले कुछ दशकों में तापमान के बढ़ने के बावजूद इनके पिघलने की गति नहीं बढ़ी है।

दूसरी सच्चाई यह है कि ग्लेशियर के पिघलने से इलाहबाद में गंगा के बहाव में 2% की वृद्धि का अनुमान भी बहुत अधिक कहा जा सकता है।

2019 का अमेरिकी वैज्ञानिक रिचर्ड आर्मस्ट्रांग का अध्ययन कहता है कि हिमालयी नदी घाटियों में नदी के प्रवाह को चार कारकों में बांटा जा सकता है। (1) जमीन पर पड़ने वाली बर्फ का पिघलना (2) ग्लेशियर की बर्फ का पिघलना (3) हिमनदों का पिघलना तथा (4)वर्षा। इस अध्ययन में 2000 मीटर से अधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों का अध्ययन किया गया है। इसके अतिरिक्त हिमनदों और बर्फ के पिघलने से प्रवाह में आए अंतर को समझने के लिए अभी पर्याप्त तकनीक और डेटा उपलब्ध नहीं हैं। हिमालय में बने मौसम केंद्र भी डेटा एकत्र करने में तत्परता नहीं दिखाते हैं।

इसरो ने उपग्रह के माध्यम से डेटा एकत्र करके 2014 में रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए कहा था कि उन्होंने 2001 और 2011 के बीच ग्लेशियरों की संख्या 2,018 नोट की है। इनमें से केवल 248 ग्लेशियर ही पिघल रहे हैं। बाकी के स्थिर बने हुए हैं। अतः संकट की स्थिति नहीं है।

शीत ऋतु में होने वाली बर्फबारी के बाद गर्मियों में भूमि और ग्लेशियर की बर्फ पिघलने लगती है। ऊँचे पर्वतों पर जमी बर्फ जब तेजी से पिघलती है, तो उसे हिमनद का पिघलना मान लिया जाता है। इस बर्फ के पिघलने के बाद जून से सितम्बर के बीच हिमनद भी एक सीमा तक पिघलते हैं।

पिघली बर्फ का बहाव मानसून के साथ मिल जाता है। नदी के बहाव को बनाए रखने के लिए मानसून पूर्व काल में हिमनद के पिघलने की अनिवार्यता मिथ्या है। आर्मस्ट्रांग ने अपने अध्ययन में बर्फ के पिघलने को प्रमुख कारक बताया है, और यह अनवरत चलता रहेगा। भूविज्ञान बताता है कि आइस एज में ग्लेशियरों के बनने से पहले भी हिमालय से नदियां बहा करती थीं।

ग्लोबल वार्मिंग से हिमालय की बर्फबारी पर पड़ने वाले प्रभाव मात्र अटकलें हैं। ग्लोबल वार्मिंग से महासागरों का वाष्पीकरण होगा, बादल बनेंगे तथा वर्षा और बर्फबारी ज्यादा होगी। इसका वितरण असामान्य हो सकता है।

ग्लेशियर के मुहाने से नदियों के उद्गम में भी हिमनद की भूमिका नगण्य होती है। नदियों के प्रवाह में आगे वर्षा जल की ही भागीदारी होती है। अतः नदियों के उदगम में ग्लेशियर मात्र एक उद्गम बिंदु की तरह होते हैं। गंगा का स्रोत गंगोत्री ग्लेशियर नहीं है, बल्कि नदी की लंबी यात्रा में पड़ने वाली वर्षा की बूंदें हैं।

कुल मिलाकर ग्लेशियरों के पिघलने और सूखे की भयावहता की भविष्यवाणी करने का दृष्टिाकोण मिथ्या कहा जा सकता है। ग्लेशियरों के पीछे हटने के कुछ दुष्प्रभाव जरूर हो सकते हैं, जैसे कि उत्तराखंड की हाल की घटना में देखने को मिला।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित स्वामीनाथन एस अंकलेश्वर अय्यर के लेख पर आधारित।

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