भारतीय राजनीति में समानता के अधिकार को सक्रिय बनाने की आवश्यकता
Date:05-10-17
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सन् 1820 में जर्मन दार्शनिक हेगेल ने अपनी ‘फिलॉसॉफी ऑफ राइट’ में गरीबी से उत्पन्न नैतिक पतन एवं उसके विध्वंसक प्रभावों के बारे में लिखा था। उन्होंने लिखा था कि गरीबी किसी औद्योगिक व्यवस्था में अति उत्पादन एवं अल्पोभोग का परिणाम होती है। इसके शिकार लोगों को सामूहिक जीवन की चकाचैंध में प्रवेश करने से रोकने वाला हमारा समाज है। गरीबी से पीड़ित लोगों को मात्र भीड़ के रूप में छोड़ दिया जाता है। नतीजतन उनमें सही और गलत, ईमानदारी और आत्म सम्मान की भावना बाकी नहीं रह जाती । हेगेल का यह भी कहना है कि प्रकृति के विरूद्ध हम अपने अधिकारों का दावा नहीं कर सकते। परंतु समाज के निर्माण के बाद किसी एक वर्ग के प्रति अनुचित व्यवहार अपनी जड़ जमाने लगता है।
हेगेल मानते हैं कि गरीबी एक सामाजिक घटना है। (1) समाज के अनुचित कार्यों और उनके दोहराव का नतीजा गरीबी के रूप में सामने आता है। (2) गरीबी से अनेक दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम उपजते हैं, जैसे कि कष्ट पाना। इन कष्टों के कारण व्यक्ति का चरित्र भ्रष्ट होने लगता है। (3) बड़ी संख्या में गरीबों की उत्पत्ति से समाज के लिए खतरा पैदा हो जाता है क्योंकि ये लोग समाज को मिलने वाले लाभों से वंचित रहने के कारण क्रोधी हो जाते हैं।ऐसा लगता है कि वर्तमान में हम हेगेल द्वारा निंदित ऐसे ही समाज की प्रति छवि बन चुके हैं।
‘इंडियन इन इक्वालिटी, 1922 – 2014 : फ्रॉम ब्रिटिश राज टू बिलियनियर राज ?’ नामक शीर्षक से लिखे गए एक शोध में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि 1922 से लेकर अब तक भारत में असमानता अपने चरम पर है। यह शोध-पत्र उन सभी हस्तियों और नेताओं के लिए एक चेतावनी है, जो गोमांस की राजनीति, मतभेदों का गला घोंटने और व्यक्ति की मूलभूत स्वतंत्रता के पीछे हाथ धोकर पड़े हुए हैं।
हमारे देश के कुछ लोग बहुत अधिक गरीब हैं, तो कुछ लोग बहुत अमीर। कुछ लोग ऐसे हैं, जो सभी सुविधाओं, जैसे – अच्छी शिक्षा एवं स्वास्थ्य, आवास, पोषक भोजन, घूमना-फिरना या मनोरंजन आदि का उपभोग कर सकते हैं। और कुछ ऐसे हैं, जो इन सुविधाओं से वंचित हैं। इसका अर्थ यह है कि ये वंचित लोग केवल गरीब ही नहीं हैं, बल्कि असमानता के शिकार हैं। असमानता का परिणाम गरीबी है और इसे असमानता का पर्याय भी कहा जा सकता है।असामनता केवल आंकड़ों का खेल नहीं है, बल्कि यह उस समाज का खंडित प्रतिबिम्ब भी है, जिसमें हम रहते हैं। ऐसे में जिस वर्ग के साथ गलत हुआ है, उसे न्याय मांगने का पूरा अधिकार है। अगर न्याय नहीं दिया जाता है, तो यही असमानता समय के साथ चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती चली जाती है। परिणामतः दुर्भाग्यपूर्ण जीवन जीने वाले ये लोग मूलभूत आवश्यकताओं को भी प्राप्त नहीं कर पाते एवं सामाजिक रूप से उपेक्षित रहते हैं। राजनीतिज्ञों की नजर में भी ये तभी आते हैं, जब उन्हें सत्ता में आने के लिए वोट की जरूरत पड़ती है। असमान होने का मतलब सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक समानता के मंच पर सम्मिलित न किए जाने से है।
असमानता को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए, क्योंकि यह हमारे प्रजातांत्रिक सिद्धांतों की विरोधी है। मनुष्य होने के नाते हम सबमें ऐसी कुछ क्षमताएं हैं, जो बराबर होती हैं।
समानता के भाव में प्रजातांत्रिक नैतिकता के सिद्धांत को दो तरह से दृढ़ता मिलती है। (1) समानता दो व्यक्तियों के बीच का ऐसा संबंध है, जिसे व्यक्ति अपनी मूल प्रकृति की समानता के चलते साझा करते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो समानता एक स्वाभाविक तत्व है। (2) अतः किसी व्यक्ति से जाति, धर्म, लिंग, नस्ल, अक्षमता या वर्ग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता। यह नैतिक रूप से गलत है।
इन दो सिद्धांतों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रत्येक मानव मात्र को आदर दिया जाना चाहिए। यह सामान्य सी बात है, जिसे व्यवहार में लाया जाना चाहिए। अगर हमसे कोई प्रश्न करता है कि किस बात की समानता घ् तो हम कह सकते हैं कि समानता यानी समान समझे जाने और आदर पाने का अधिकार। अगर सरकार ऐसा संभव नहीं कर पाती है, तो इसका अर्थ है कि वह अपने नागरिकों के कल्याण को गंभीरता से नहीं ले रही है।वर्तमान में सरकार को इस दिशा में अविलंब कदम उठाने की आवश्यकता है। ऐसा किया जाना चाहिए, जिससे सामाजिक संबंधों में असमानता के लिए लोगों की अंतश्चेतना सामूहिक रूप से जागृत हो जाए। इस यज्ञ के लिए एक तरफ तो सृजनात्मक सोच एवं साहस की जरूरत है, तो दूसरी ओर तार्किकता, समझाने-बुझाने एवं वार्ता की। इसमें पर्याप्त ऊर्जा और समय भी लग सकता है। फिर भी ऐसा करना जरूरी है, क्योंकि हमारे सामूहिक जीवन के लिए हमारे समाज के निर्माण पर आम सहमति बनाये जाने की बहुत जरूरत है।
‘द हिंदू’ में प्रकाशित नीरा चंडोक के लेख पर आधारित।