हिन्द-प्रशांत की कूटनीति को सक्रिय करने की आवश्यकता

Afeias
24 Sep 2019
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Date:24-09-19

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रूस के साथ भारत का पुराना रिश्ता रहा है। 1904 में अमेरिकी कूटनीतिज्ञ ने अमेरिका और सोवियत संघ के बीच भारत को एक पुल बनने की अनुशंसा की थी, जिस पर तत्कालीन भारतीय राजदूत ने सकारात्मक टिप्पणी की थी। इस प्रकार के प्रयास का उद्देश्य दक्षिण-पूर्वी एशिया में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना था। 1960 में चीन और सोवियत संघ के बीच वैचारिक मतभेद प्रारंभ हुआ। इस मतभेद को भारत और अमेरिका ने अलग-अलग नजरिए से लेते हुए अपनी आगामी नीतियों को वैसे ही निर्धारित किया।

अंग्रेजों और अमेरिकियों ने रशिया को अलग-थलग छोड़कर चीन को घेरे में शामिल रखा। भारत के प्रति चीन का दोस्ताना रवैया नहीं रहा था। अतः उसके लिए अपनी सुरक्षा और हितों के लिए मास्को के साथ संबंध स्थापित करना ही श्रेयस्कर था। 1969 तक, द्विध्रुवीय चलन का परिवर्तन बहुधु्रवीय हो चुका था। अमेरिका और चीन मैत्रीपूर्ण समझौते कर रहे थे। उधर भारत और मॉस्को भी एक दूसरे की सुरक्षा हेतु तत्पर थे। पिछले दिनों हमारे विदेश मंत्री जयशंकर ने मॉस्को में रुस-भारत मैत्री के चार दशकों का हवाला देते हुए अपना भाषण पूरा किया था।

ऐतिहासिक घटनाएं अपनी छाप छोड़ जाती हैं। आज भी रूस-अमेरिका-चीन का त्रिकोण ऊलझा हुआ है, और भारत के लिए यह अभी भी अस्पष्ट या विकृत है।

जटिल संबंध

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के चीन के प्रति कड़े रवैये के बावजूद चीन के प्रति उसकी रणनीतिक नीति स्पष्ट नहीं हो सकी है। चीन-रुस की बढ़ती निकटता पर भी अमेरिका ने अभी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है।

रशिया के यूरेशियन इकॉनॉमिक यूनियन और चीन की बेल्ट रोड़ योजना का भी एक-दूसरे को समर्थन मिल रहा है। दोनों के संबंध इस तरह के हैं कि दोनों कभी एक-दूसरे के विरोधी नहीं रहे। लेकिन जरुरी नहीं कि एक-दूसरे का साथ देते रहे हों। यद्यपि दोनों के हित मिलते हैं, परन्तु वे एक दूसरे का विरोध भी करते हैं। और जहाँ हितों में थोड़ा-बहुत टकराव होता है, वहाँ एक-दूसरे के प्रति नरम भी रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में भारत के कश्मीर रवैये पर दोनों एक-दूसरे के विरोधी थे।

एशियाई गतिविधियां

अमेरिका-चीन-रशिया के त्रिकोण के संदर्भ में अमेरिका की नीति यही होगी कि वह मौका मिलते ही चीन को रशिया से दूर करके अपनी गिरती हुई साख को बचा ले। भारत की नीति इसके विपरीत होगी। वह रशिया को चीन के प्रभाव से दूर करके एशिया क्षेत्र में उसे अन्य विकल्प देना चाहेगा।

विदेश मंत्री जयशंकर की मॉस्को की यात्रा से कुछ पहलू स्पष्ट होते हैं।

1. एशिया का बहुध्रुवीय काल आ पहुँचा है।

2. भारत-प्रशांत विचार किसी एक धारणा तक सीमित नहीं है।

3. चीन के साथ भारत अपने स्वतंत्र संबंध रखना चाहता है।

4. प्रशांत क्षेत्र में रशिया को एक महाशक्ति मानते हुए हिन्द महासागर में उसके हितों पर भारत रशिया की गतिविधि चाहता है।

चीन को छेड़े बिना ही रशिया, भारत-प्रशांत की भूराजनीति को आकार देने का प्रयत्न कर रहा है। वियतनाम से उसके बढ़ते संबंध इसी का प्रमाण हैं। रशिया की सैनिक और नौसैनिक गतिविधि भारत, वियतनाम और इंडोनेशिया तक विस्तृत हो सकती है। इसका प्रसार खाड़ी देशों में भी हो चुका है।

रशिया को जैसे ही इस बात का आश्वासन मिल जाएगा कि भारत अमेरिका का अंधानुकरण नहीं कर रहा है, और समावेशी सुरक्षा की उन्मुक्त नीति पर चल रहा है, रशिया के लिए भारत-प्रशांत में अपना प्रसार करना निश्चित हो जाएगा।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित जोरावर दौलत सिंह के लेख पर आधारित। 5 सितम्बर, 2019

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