भारतीय उच्च शिक्षा में लंबी छलांग लगाने की आवश्यकता

Afeias
19 Feb 2018
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Date:19-02-18

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हमारे देश में शिक्षा का स्तर बहुत ही दयनीय है। हाल ही के अपने भारत दौरे के दौरान बिल गेट्स ने भी यह बात कही। एनुअल स्टेटस ऑफ  एजुकेशन रिपोर्ट से भी यह बात स्पष्ट होती है कि हमारी शिक्षा प्रणाली बच्चों में माध्यमिक स्तर तक की बुनियादी क्षमता विकसित नहीं कर पाती है। भारतीय गुरू वैश्विक हो गए हैं, परन्तु हमारे गुरुकुल समय की पर्तों में ओझल हो गए हैं। भारतीय चिकित्सकों को विश्व में सबसे अच्छा माना जाता है, परन्तु हमारी प्राचीन आयुर्वेदिक चिकित्सा को वैकल्पिक औषधियों में स्थान दिया गया है।

  • नालंदा और तक्षशिला जैसे ज्ञान-केन्द्रों के विश्व गुरू भारत में विदेशी छात्रों की संख्या लगातार गिरती जा रही है।
  • हमारे विश्वविद्यालय और स्कूल शिक्षा के परंपरागत तरीके में ही अटके हुए हैं। वे अभी भी कक्षाओं, कुर्सियों और पीरियड की घंटी के साथ बंधे हुए हैं। यह सब हमें औद्योगिक युग की शिक्षा की याद दिलाते हैं।
  • भारत के विश्वविद्यालय वैश्विक होने से ज्यादा क्षेत्रीय हैं। भारत के एक राज्य के विद्यार्थी को दूसरे राज्य के विश्वविद्यालय में प्रवेश पाना कठिन है। विश्वविद्यालयों की अपनी स्वायत्तता की कमी है। यूजीसी और ए आई सी टी ई जैसे संस्थान अभी भी भूमि की उपलब्धता, लैब, लाइब्रेरी और लेक्चर के घंटों के आधार पर किसी विश्वविद्यालय का नियमन करते हैं। इन सबके बीच शिक्षा की गुणवत्ता का कोई प्रश्न नहीं उठता।
  • अकादमिक संस्थान क्लासरूम से बाहर शिक्षा प्राप्त करने और अपने पाठ्यक्रम से इतर कुछ भी किए जाने को प्रोत्साहन नहीं देते।

                भारत की असाधारण शिक्षा व्यवस्था का इतिहास इसे एक बार फिर से वैश्विक ऊँचाइयों पर ले जा सकता है, अगर हम अपनी शिक्षा को हार्डवेयर से सॉफ्टवेयर तक ले जा सकें। हमारी शिक्षा को 4.0 के विश्व स्तर तक पहुँचाने की आवश्यकता है, जिसमें विद्यार्थियों को पठन-पाठन के विभिन्न तरीकों के द्वारा विशेषज्ञता प्राप्त करने की छूट दी जाए।

  • 0 के स्तर का ज्ञान प्राप्त करने के लिए किसी क्लास रूम का बंधन नहीं होना चाहिए। शिक्षा की ऐसी व्यवस्था हो, जिसमें विद्यार्थी जीवन की वास्तविक स्थितियों से जुड़ सके।
  • आधुनिक डिजीटल युग की शिक्षा प्रणाली में परंपरागत शिक्षा व्यवस्था के दो आयामों को चुनौती दी गई है। (1) शिक्षा में स्थान को नहीं दिमाग के खुलेपन को जगह दी जाने लगी है। (2) पहले ज्ञान प्राप्त करने को समय से जुड़ी प्रक्रिया माना जाता था। परन्तु 4.0 का युग, कहीं भी, और कभी भी वाली शिक्षा का दौर है। भारत को इन दोनों चुनौतियों का सामना करके आगे बढ़ना होगा।
  • भारतीय समाज में अनेक क्षेत्रों के विशेषज्ञों को नियुक्त करने की बजाय, उनकी विशेषज्ञता की गुणवत्ता को एकमात्र पैमाना बनाया जाए।
  • भारत के अधिकांश शिक्षक नए युग की शिक्षा प्रणाली से परिचित ही नहीं हैं। इसके लिए हमें अपने बी.एड. कॉलेजों को सुधारना होगा।
  • शिक्षकों को विद्यार्थियों के लिए रिंग मास्टर की तरह नहीं, बल्कि आध्यात्मिक गुरू की तरह बनना होगा। ऐसे शिक्षक विद्यार्थियों को रटंत विद्या से बाहर निकालकर ज्ञान प्राप्ति की राह पर आगे बढ़ा सकेंगे।
  • भारत के सत्यता, निरंतरता और पूर्णता के मूल्य ऐसे हैं, जो शिक्षा के क्षेत्र में विश्व में उसकी अलग पहचान बना सकते हैं। हम आज भी औपनिवेशिक काल की नंबरों तक सीमित संकीर्ण प्रतियोगिता के युग में जी रहे हैं। हमें इससे मुक्त होने की जरूरत है।
  • हमारी प्रयोगशालाओं को बने-बनाए उत्तरों के बजाए जीवित प्रश्नों का संसार बनना पड़ेगा।

हमारे शिक्षकों में इस प्रकार की चेतना का संचार हो कि वे विद्यार्थियों के माध्यम से विश्व में नए प्रतिमान स्थापित करने को प्रेरित हों। वर्तमान भारत के संदर्भ में भले ही ऐसे दृश्य स्वप्न की तरह लगें, परन्तु यह असंभव नहीं है। हमें ऐसा स्वप्न देखने वालों की ही आवश्यकता है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित देवाशीष चटर्जी के लेख पर आधारित।

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