शिक्षा के अधिकार को दुरूस्त करने की आवश्यकता

Afeias
28 Mar 2018
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Date:28-03-18

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छः से चौदह वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा अधिनियम 2009 को अनुच्छेद 21-क के तहत मौलिक अधिकार बना दिया गया था। यह 1 अप्रैल 2010 को लागू हुआ। देश में साक्षरता की स्थिति में सुधार एवं बच्चों को बाल-श्रम से बचाने के लिए यह प्रयास किया गया था। लेकिन हाल के कुछ वर्षों में इसके नकारात्मक परिणाम देखने में आ रहे हैं।

राज्य सरकारों, जैसे दिल्ली सरकार ने इस अधिनियम के भाग 18 और 19 की आड़ में गैर-सहायता प्राप्त अनेक निजी स्कूलों को बंद कर दिया है। ये विद्यालय गरीब और निम्न मध्यम वर्गीय जनता को सरकारी स्कूलों की तुलना में बेहतर शिक्षा प्रदान कर रहे थे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किए गए अनेक अध्ययन यह बताते हैं कि इन छोटे निजी स्कूलों में, सरकारी स्कूलों की तुलना में बच्चे दोगुना या तिगुना सीख पाते हैं।

राज्य सरकारों की निजी स्कूलों को बंद करने की नीति के पीछे की सच्चाई कुछ और ही है।

  • आर टी ई अधिनियम के भाग 12 के अंतर्गत सभी निजी स्कूलों को आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के बच्चों के लिए 25% स्थान सुरक्षित रखने होते हैं। इसके कारण पिछडे इलाकों के कई सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या बहुत ही कम हो गई है। 2015-16 में महाराष्ट्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ ने लगभग 24,000 सरकारी स्कूलों को इसी कारण बंद किया था।

वास्तव में, कम फीस वाले निजी स्कूलों को बंद करके सरकार अपनी नाकामी को छिपाना चाहती है। विद्यार्थियों को उन सरकारी स्कूलों का आश्रय लेने के लिए बाध्य करना चाहती है, जहाँ शिक्षक प्रायः अनुपस्थित रहते हैं। इन सबके बीच सरकार को बच्चों में पढ़ाई के स्तर और देश की उत्पादकता में वृद्धि से कोइ्र्र लेना-देना नहीं है।

  • सरकारों को निजीस्कूल बंद करने से दोहरे खर्च से बचने में सुविधा होती है। निजी स्कूलों में 25% सीट की प्रतिपूर्ति करना तथा दूसरी ओर खाली सरकारी स्कूलों की ईमारतों और शिक्षकों का वेतन, राज्य सरकारों पर बोझ बन जाता है।

अधिकार के गठन में कमियाँ –

  • शिक्षा के अधिकार अधिनियम के निर्माताओं ने सरकारी स्कूलों की खस्ता हालत और शिक्षा के निम्न स्तर के लिए कोई प्रावधान नहीं रखा था। उल्टे, भाग 12 के तहत सरकारी स्कूलों के बुनियादी ढांचे के मानक पूरा न होने की स्थिति में दंड से बचाव का प्रावधान है। यही कारण है कि 2016 तक केवल 6.4% सरकारी स्कूल इन मानकों पर खरे उतर पाए थे।
  • अधिकार के अनुभाग 6 में राज्य सरकारों को बस्तियों के आसपास प्राथमिक विद्यालय खोलने को एक तरह से बाध्य किया गया है। 2010-2016 के सरकारी आंकडे बताते हैं कि इन प्राथमिक विद्यालयों में जहाँ पंजीकरण 1.8 करोड़ कम हो गया, वहीं निजी स्कूलों में यह 1.7 करोड़ बढ़ा है। सरकारी स्कूलों में औसत रूप से भी पंजीकरण कम हो गया। लेकिन छोटे यानी 50 या कम विद्यार्थियों की संख्या वाले स्कूलों की संख्या लगातार बढ़ी है। स्कूल अनावश्यक बोझ बन गए हैं।
  • आर टी ई के अनुभाग 12 के अंतर्गत राज्य सरकारों ने गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में प्रवेश दिलाने का कोई प्रयत्न नहीं किया है। अनेक राज्य सरकारों ने स्पष्ट कर दिया है कि वे इस प्रकार की प्रतिपूर्ति करने में अक्षम हैं।
  • अनुभाग 12 केवल गैर-अल्पसंख्यक स्कूलों पर ही लागू होता है। अतः इसे हिन्दू विरोधी भी कहा जा रहा है। निजी स्कूल भी इस अनुभाग से खुश नहीं हैं, क्योंकि उन्हें पर्याप्त प्रतिपूर्ति नही मिल पाती। भ्रष्टाचार भी बहुत है। निजी स्कूलों को इसके चलते राजनीतिक हस्तक्षेप सहना पड़ता है।

वर्तमान समय में, जब शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए सरकारी स्कूलों को जवाबदेह होने की आवश्यकता है, राष्ट्रीय शिक्षा नीति को चाहिए कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 को निरस्त करके ऐसी नीतियां लागू करे, जो राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के स्तर में सुधार की परिचायक बनी हैं। सैद्धांतिक या प्रयोग आधारित नीतियां लाकर हम करोड़ो बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ नहीं कर सकते।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया‘ में प्रकाशित गीता गांधी किंडन के लेख पर आधारित।

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