शिक्षा में विषमता

Afeias
13 Aug 2018
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Date:13-08-18

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2009 के 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा अधिनियम के द्वारा बच्चों को शिक्षा का अधिकार तो दे दिया गया है, परन्तु इससे समान शिक्षा की गारंटी नहीं दी गई है। आखिर निजी स्कूलों को अच्छे स्तर की शिक्षा का मूल्य निर्धारित करने का अधिकार क्यों दिया गया है? आखिर अच्छे स्तर की शिक्षा देने वाले केन्द्रीय विद्यालयों में भर्ती इतनी सीमित क्यों रखी गई है ?

  • भारत में औसत रूप से अच्छे स्तर की स्कूली शिक्षा का खर्च महाविद्यालयीन शिक्षा से पाँच गुणा अधिक है। अधिकांश देशों में ठीक इसका उल्टा है। अधिकतर देशों जैसे स्वीडन, नीदरलैण्ड, स्वीटज़रलैण्ड, नॉर्वे और कनाडा आदि के सरकार द्वारा चलाए जाने वाले स्कूलों में 80 से 95 प्रतिशत बच्चे पढ़ते हैं।
  • भारत के स्कूलों का स्तर सुधारने के लिए वाउचर सिस्टम की वकालत की जा रही है। अगर इसे लागू किया भी जाता है, तो निजी स्कूल इसके दावेदार होंगे। इससे तो अच्छा है कि उस राशि को सरकारी स्कूलों का स्तर बढ़ाने में लगाया जाए। सरकारी स्कूलों को ‘करो या मरो’ का विकल्प नहीं दिया जा सकता। उनको बेहतर प्रदर्शन के लिए हर हाल में प्रोत्साहित करना होगा।
  • आई आई टी जैसे उच्च शिक्षा संस्थाओं में आरक्षण के कारण एक निर्धन सवर्ण परिवार का बच्चा प्रवेश नहीं पा सकता, क्योंकि सरकारी स्कूलों की शिक्षा स्तरीय नहीं है, और महंगे कोचिंग संस्थानों के लिए उसके पास धन नहीं है। वह दो तरफा मार झेलता है।

अगर सरकारी स्कूलों का यही हाल रहा, तो इसका खामियाजा आर्थिक रूप से विपन्न बच्चों को उठाना होगा। उच्च शिक्षा के अच्छे संस्थान हमेशा उनकी पहुँच से बाहर ही रहेंगे।

निजी स्कूलों और विश्वविद्यालयों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। परन्तु ये संस्थान उनके लिए हैं, जो फीस दे सकते हैं। उम्मीद की जा सकती है कि शिक्षण संस्थानों को सामाजिक और आर्थिक रूप से न्यायसंगत और बराबरी पर रखा जाए।

‘इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित शिवानी नाग के लेख पर आधारित। 28 जून, 2018

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