शिखर सम्मेलनों के जरिए एक सकारात्मक पहल

Afeias
14 Aug 2018
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Date:14-08-18

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बदलते दौर में, विश्व के प्रजातांत्रिक और सत्तावादी शासन के नेता अपने देश की विदेश नीति में प्रत्यक्ष तौर पर भागीदारी करते नजर आ रहे हैं। सम्मेलनों की कूटनीति में तीन देशों के नेता ही अधिक व्यस्त हैं, जिनमें चीन के राष्ट्रपति झी जिंनपिंग, रशिया के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रमुख हैं।

शिखर सम्मेलनों के जरिए की जानी वाली कूटनीति, आज के दौर का चलन बन गई है। पुराने समय में, विश्व नेता यदाकदा ही एक दूसरे से मिलते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान विश्व नेताओं के मिलने का चलन प्रारंभ हुआ। 1938 में जब ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ने हिटलर से मिलने का निर्णय लिया था, तब पूरा देश स्तब्ध रह गया था। इसके बाद देशों के सर्वोच्च नेताओं के सम्मेलनों का दौर जैसे चलता ही चला गया। उस समय की एक खास तस्वीर में अमेरिकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट, ब्रिटिश प्रधानमंत्री चर्चिल और सोवियत राष्ट्रपति स्टालिन को देखा जा सकता है। युद्ध की समाप्ति के बाद फिर से विश्व नेताओं की आपसी मुलाकातों का दौर थम सा गया था, परन्तु वर्तमान युग की दुःसाध्य कठिनाइयों ने नेताओं की आपसी मुलाकातों को अनिवार्य सा बना दिया है।

प्रत्येक नेता के मुलाकात का अपना अलग तरीका है। इन सबमें एक आम बात यह है कि विदेश मंत्रालयों और विदेशी मंत्रियों को पृष्ठभूमि में डाल दिया जाता है। इन मुलाकातों की खास बात यह है कि ये काफी प्रासंगिक होती हैं। अगर भारत के संदर्भ में देखें, तो हमारे प्रधानमंत्रियों ने भी शिखर सम्मेलनों का रास्ता चुना था। पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के पास विदेश मंत्रालय का भी प्रभार था। उन्होंने अनेक नीतियों पर विश्व के अनेक नेताओं से बातचीत की। उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन की सफलतापूर्वक शुरुआत की, लेकिन चीन के मामले में असफल रहे। प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने चीने से 25 वर्षों से चले आ रहे गतिरोध को दूर करने में सफलता प्राप्त की थी।

प्रधानमंत्री वाजपेयी ने पाकिस्तान के तत्कालीन जनरल परवेज मुशर्रफ के साथ बातचीत करके सीमा पार से होने वाले हमलों को कुछ समय के लिए ही सही, लेकिन रोक दिया था। इसी प्रकार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पाकिस्तान के साथ एक बैक-चेनल स्थापित करने में सफलता प्राप्त की थी। भारतीय प्रधानमंत्रियों के साथ विशेष बात यह रही कि उन्होंने बहाव के साथ जाकर अपनी विश्वसनीयता के दम पर परिणाम प्राप्त किए। वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी शिखर सम्मेलनों के प्रबल समर्थक हैं। पिछले चार वर्षों में उन्होंने अनेक अवसरों और सम्मेलनों में अलग-अलग देशों के राष्ट्राध्यक्षों से विदेश नीति संबंधित मसलों पर चर्चा की है।

ट्रंप, पुतिन और चीनी राष्ट्रपति से भिन्न उन्होंने न तो विदेश नीति में कोई व्यवस्थात्मक परिवर्तन को प्रभावित करने की कोशिश की है, और न ही भारतीय विदेश नीति को विशेष बनाने के इरादे से इसमें गुणात्मक आदेशों की बात की है। पूर्व प्रधानमंत्री बाजपेयी की तरह उन्होंने न तो सुरक्षा परिषद् बनाया है, और न ही राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पद पर नियुक्ति की है। इसके बावजूद उन्होंने हाल ही में चीनी राष्ट्रपति से बुहान और रशिया के राष्ट्रपति से अनौपचारिक बैठकें करके, इन देशों से बिगड़ते संबंधों को संभाल लिया है। इस प्रकार की बैठकों में मिलने वाली सफलता का प्रश्न अलग है। महत्वपूर्ण यह है कि जिन संबंधों में गर्माहट लाने के लिए पहले के विश्व नेता सालों साल संघर्ष करते रहते थे, वही संघर्ष अब जल्द खत्म हो जाता है। अगर कूटनीति को पारंपरिक तौर पर ‘अन्य प्रकार के युद्ध’ की संज्ञा दी गई थी, तो शिखर सम्मेलनों में आज वे सारी सफलताएं प्राप्त की जा रही हैं, जो अन्य माध्यमों से नहीं की जा सकी थीं।

21वीं शताब्दी से पहले ऐसा सोचना संभव नहीं था। 21वीं शताब्दी को अपने आप में व्यवधान का युग कहा जा सकता है। और ऐसा कोई कारण नहीं है कि विदेशी मामलों के क्षेत्र में 18वीं, 19वीं और 20वीं शताब्दी के लिए प्रासंगिक राजनयिक प्रथाओं को न बदला जाए।

‘द हिन्दू’ में प्रकाशित एम.के.नारायणन् के लेख पर आधारित। 24 जुलाई, 2018

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