भारतीय पुलिस व्यवस्था की अव्यवस्थित मानसिकता

Afeias
10 Aug 2018
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Date:10-08-18

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देश की पुलिस व्यवस्था की खामियों की बात अक्सर की जाती रही है। हाल ही में देश की सर्वोच्च पुलिस सेवा के लिए चयनित 122 प्रशिक्षु आईपीएस अधिकारियों में से 119, भारतीय पुलिस अकादमी की परीक्षा में असफल हो गए। भारतीय प्रशासनिक सेवा परीक्षा में बैठने वाले 10 लाख लोगों में से 30-150 ही पुलिस सेवा के लिए चयनित हो पाते हैं। इतनी कठिन परीक्षा पास करने वाले अभ्यार्थी पुलिस अकादमी की परीक्षा में कैसे असफल हो गए? दरअसल, पुलिस सेवाओं को दुरुस्त रखने के विचार से उनके प्रशिक्षण को बहुत अधिक व्यापक बना दिया गया है। उन्हें अलग-अलग तरह की शारीरिक गतिविधियों के अलावा लगभग सभी प्रकार के आधुनिक शस्त्रों का परिचालन भी सिखाया जाता है, और इन सबसे जुड़ी परीक्षा उन्हें पास करनी पड़ती है।

हैरानी इस बात की है कि इतने कठोर प्रशिक्षण के बाद भी आई पी एस अधिकारी अपने कार्यक्षेत्र में कैसे मात खा जाते हैं? कैसे वे अपने राजनैतिक आकाओं के गैरकानूनी आदेशों का पालन करने के लिए देश के हितों से समझौता कर बैठते हैं?

  • इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि हमारी पुलिस व्यवस्था, व्यवस्था-केन्द्रित न होकर अधिकारी केन्द्रित है। किसी जिले में तैनात अधिकारी की प्राथमिकताओं के अनुसार पुलिसिंग की प्राथमिकताएं भी बदल जाती हैं।

एक नगर का पुलिस अधिकारी अपने मातहतों को मोटरसाइकिल पर गश्त लगाने का निर्देश देता है, वही उसका उत्तराधिकारी उन्हें पैदल गश्त लगाने को कहता है।

  • पुलिस वालों को लगता है कि वे कभी गलत नहीं हो सकते। उनकी सोच व्यापक न होकर एक ही दिशा में चलने लगती है कि वे जो भी कर रहे हैं, वह सही है। उनके विचारों में व्यावहारिक पक्ष की कमी रहती है। इसके कारण ये विचार न तो जवाबदेही तय कर पाते हैं, और न ही अपनी छाप छोड़ पाते हैं।

अकादमी में पढ़ाए जा रहे विभिन्न विषयों का प्रभाव मूल्यांकन, शिक्षण की कार्यप्रणाली, एक विषय को दिए जाने वाले समय और कार्यक्षेत्र में उसके महत्व आदि के बारे में, बिना किसी देरी के सोचे जाने और बदले जाने की जरूरत है।

  • पुलिस वाले इस बात को जानते हैं कि ब्रिटेन, अमेरिका आदि की पुलिस कार्यप्रणाली में कितना अंतर आ चुका है। परन्तु हमारी पुलिस मानसिकता अभी भी ब्रिटिश राज के समय में अटकी हुई है। सामंती मानसिकता वाले कुछ लोग तो पुलिस में इसी उद्देश्य से आते हैं कि वे अपने क्षेत्र में राज और मनमानी करने के अधिकारी हो जाएंगे।
  • पुलिस व्यवस्था में मातहतों की बात सुनने जैसा कोई तंत्र नहीं है। किसी सम्मेलन में 90 प्रतिशत समय वरिष्ठ बोलता है, और कनिष्ठ अधिकारी 10 प्रतिशत। किसी नए विचार का कतई स्वागत नहीं किया जाता, और उसे अनुशासनहीनता की तरह लिया जाता है।

आई पी एस अधिकारियों के मिलन-समारोहों का मुख्य मुद्दा, आई ए एस अधिकारियों से तुलना या मीडिया, मानवाधिकार आयोग, न्यायपालिका, सामाजिक कार्यकत्र्ताओं के हाथों पुलिस को शिकार बनाया जाना होता है। उनके अनुसार जब तक समाज नहीं बदलेगा, पुलिस नहीं बदल सकती।

इन सब मुद्दों की आड़ में पुलिस-सुधारों से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता। समय आ गया है, जब पुलिस को दोहरे मानकों को त्यागकर अपने अंदर झांककर देखना चाहिए। पुलिसिंग को बेहतर बनाने के लिए हमें इसे साक्ष्य एवं अनुसंधान आधारित बनाना होगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित डी रूपा मुद्गिल के लेख पर आधारित। लेखिका, बेंगलुरु की पुलिस महानिदेशक हैं। 13 जुलाई, 2018

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