पुलिस-सुधार मुमकिन करने की विफलता

Afeias
01 May 2019
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Date:01-05-19

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पिछले पाँच वर्षों में सरकार ने निःसंदेह रूप से विभिन्न क्षेत्रों में परिवर्तनकारी योजनाएं चलाई, और उनके सकारात्मक परिणाम भी प्राप्त किए हैं। लेकिन पुलिस विभाग एक ऐसा क्षेत्र रहा है, जिसमें परिवर्तन की गुंजाइश होते हुए भी कोई सुधार नहीं किए गए। कोई ऐसा प्रयत्न नहीं किया गया कि पुलिस को उसके वास्तविक उद्देश्य, ‘जन-सेवा’ के प्रति उद्यत किया जा सके।

2006 के अपने एक अभूतपूर्व निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने पुलिस की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि पुलिस को लोगों के पद या सामाजिक स्तर से प्रभावित हुए बिना कानून के शासन के प्रति कर्त्तव्यनिष्ठ रहना चाहिए। इसके साथ ही न्यायालय ने पुलिस को बाहरी दबावों से मुक्त रखने, विभागीय मामलों में स्वायत्तता देने और अधिक जवाबदेह बनाए जाने के लिए अनेक दिशानिर्देश दिये थे। दुर्भाग्यवश, इन 12 वर्षों में कुछ राज्यों ने दिशानिर्देशों का आंशिक रूप से पालन किया है, और वह भी नाममात्र को।

  • यद्यपि पुलिस व्यवस्था में सुधार न हो पाने की प्राथमिक जिम्मेदारी राज्यों पर डाली जानी चाहिए, लेकिन केन्द्र ने भी इसमें घोर लापरवाही बरती है। 2006 में सोली सोराबजी के अधीन बनी पुलिस अधिनियम मसौदा समिति ने एक मॉडल अधिनियम तैयार किया था। इस पर केन्द्र से अपेक्षा थी कि वह दिल्ली एवं अन्य केन्द्र शासित प्रदशों के लिए इसे पारित कर लेगी। बाद में अन्य राज्यों को भी मॉडल का अनुसरण करना था। संविधान के अनुच्छेद 252 में यह प्रावधान भी है कि दो या दो से अधिक राज्यों की सहमति से संसद किसी कानून को वहां लागू करवा सकती है। तत्कालीन केन्द्र सरकार ने ऐसा काई प्रयास नहीं किया।
  • केन्द्र के निष्क्रिय रवैये के चलते 17 राज्यों ने अपने-अपने पुलिस अधिनियम बना लिए हैं। यह विडंबना ही है कि ब्रिटिश भारत में तो पूरे देश की पुलिस के लिए एक ही अधिनियम था, वह आज अलग-अलग राज्यों में विभिन्न अंतर वाले कई पुलिस अधिनियम लागू हैं।

2008 में न्यायाधीश थॉमस ने पुलिस की कार्यप्रणाली की उपेक्षा पर असंतोष प्रकट किया था। 2012 में न्यायाधीश वर्मा ने अपराध कानून में सुधार पर एक समन्वित रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। उन्होंने 2006 में दिए गए उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों के पालन की वकालत की थी। 2014 में प्रधानमंत्री ने स्मार्ट पुलिस की उम्मीद जगाई थी। पुलिस व्यवस्था में सुधार से जुड़ी अनुशंसा पर कोई खास कार्यवाही नहीं की गई है।

देश में लगभग 25,000 पुलिस थाने हैं। इस विभाग में लगभग 2.46 करोड़ कर्मचारी हैं। लेकिन देश का नागरिक पुलिस थाने में कदम रखने से भी कतराता है। उसे यह भरोसा ही नहीं है कि उसकी रिपोर्ट दर्ज की जाएगी और उस पर कोई कार्यवाही भी होगी।

इन विसंगतियों के बीच यह सवाल उठ खड़ा होता है कि क्या हमारे नेता पुलिस तंत्र में कुछ परिवर्तन चाहते भी हैं ? क्या पुलिस के आला अधिकारी स्वयं भी अपने विभाग में कोई सुधार करना चाहते हैं ?

स्वस्थ प्रजातंत्र के लिए स्वस्थ पुलिस का होना आवश्यक है। कानून-व्यवस्था की अच्छी स्थिति में ही देश का आर्थिक विकास हो पाता है। हमारा दुर्भाग्य है कि हम अभी तक ब्रिटिश-कालीन पुलिस व्यवस्था में देश की मांग के अनुरूप सुधार करने में विफल रहे हैं।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित प्रकाश सिंह के लेख पर आधारित। 28 मार्च, 2019

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