पुलिस पर राजनीतिक दबाव

Afeias
11 Oct 2019
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Date:11-10-19

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देश में पुलिस की भूमिका को लेकर अक्सर सवाल उठाए जाते हैं कि आखिर पुलिस का कर्त्तव्य अपने आकाओं की रक्षा करना है या जनता की? इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने के लिए केन्द्र और राज्य स्तर पर अनेक आयोग गठित किये गये, जिन्होंने पुलिस के दैनिक कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप से आने वाली अव्यवस्था को पहचाना। 1979 में राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने तो यहाँ तक कहा था कि स्वतंत्रता के पूर्व की विदेशी शक्ति ने अब देशी राजनीतिक शक्ति के रूप में पुलिस पर प्रभाव डालना प्रारंभ कर दिया है।

हाल ही में एक प्रतिष्ठित एनजीओ के सौजन्य से भारतीय पुलिस पर प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘‘अपराधों की जाँच में पुलिस पर आज भी, राजनीतिक दबाव एक बड़े अवरोध के रूप में खड़ा हुआ है।’’ 2006 में उच्चतम न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक निर्णय में राज्य सरकारों को पुलिस सुधार के लिए तीन प्रकार के संस्थान स्थापित करने हेतु दिशा-निर्देश दिये थे –

  • पुलिस को बाहरी दबावों से मुक्त करने के लिए राज्य सुरक्षा आयोग का गठन।
  • पुलिस के व्यक्तिगत मामलों में स्वायत्तता देने के लिए एक पुलिस एस्टेबलिशमेंट बोर्ड का गठन।
  • पुलिस की जवाबदेही को तय करने के लिए शिकायत प्राधिकरण का गठन करना।

पुलिस महानिदेशक के चयन में पारदर्शिता लाना, और महानगरों में जाँच एवं कानून-व्यवस्था को अलग-अलग रखने संबंधी दिशानिर्दश भी दिए गए थे। 13 वर्षों के बाद आज भी इन निर्देशों पर अमल नहीं किया जा सका है।

विडंबना

          वास्तव में, उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए दिशा-निर्देशों के अलावा भी पुलिस वर्ग के लिए बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है।

  • बुनियादी ढांचे की कमी है।
  • परिवहन व्यवस्था अपर्याप्त है।
  • आवासीय व्यवस्था बेकार है।
  • फोरेंसिक सपोर्ट न्यूनतम है।
  • दूरसंचार तंत्र अपर्याप्त है। आई टी के क्षेत्र में भारत ने चाहे जितनी प्रगति कर ली हो, लेकिन देश में आज भी ऐसे थाने हैं, जहाँ न तो फोन की सुविधा है, और न वायरलैस सैट की।

पुलिस सुधारों की आवश्यकता उनकी गरिमा बढ़ाने के लिए नहीं है, वरन् उनकी जवाबदेही बढ़ाने के लिए है। एक ऐसा वातावरण निर्मित करने की आवश्यकता है, जिसमें कानून के शासन को बनाए रखना वह अपना प्रथम कत्र्तव्य समझे।

पुलिस अव्यवस्था के चलते हम क्या खो रहे हैं?

कुछ राजनीतिक ताकतों की शरण में रहने वाले अपराधियों के विरूद्ध सही कदम न उठा पाने के कारण प्रजातंत्रिक ढांचा ही एक दिन धराशायी हो सकता है। दुर्भाग्यवश, ऐसी ताकतें दिनोंदिन बढ़ती जा रही हैं।

देश को 5 खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने के लिए कानून व्यवस्था का दुरुस्त होना आवश्यक है। एक अनुमान के अनुसार, आंतरिक हिंसा और बाहरी आतंक से देश को सकल घरेलू उत्पाद पर 9 प्रतिशत का खामियाजा भुगतना पड़ता है।

भारत के अनेक हिस्सों में आंतरिक सुरक्षा की गंभीर चुनौतियां हैं। जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों की अस्थिरता को देखते हुए भारी पुलिस बल तैनात भी किया गया है। परन्तु हमारी सामरिक नीति में बुनियादी दोष होने के कारण हम सफल नहीं हो पा रहे हैं।

आमतौर पर जवाबी कार्यवाई में स्थानीय पुलिस की अहम् भूमिका होती है। अन्य फोर्स उसे सहयोग भर देती है। राज्य सरकारें इसके उलट इन्हें केन्द्र सरकार की समस्या मानते हुए पल्ला झाड़ लेती हैं। यही वह समय है, जब राज्य सरकारों को अपनी पुलिस को चनौतियों के लिए सक्षम बनाना चाहिए।

अतः अपराध पर नियंत्रण, सामान्य कानून-व्यवस्था, प्रजातंत्र की सुरक्षा, धारणीय आर्थिक विकास तथा आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों से निपटने के लिए पुलिस फोर्स को सुधार, पुनर्गठन और पुनव्र्यवस्था की दिशा में अतिशीघ्र आगे बढ़ाना होगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित प्रकाश सिंह के लेख पर आधारित। 19 सितम्बर, 2019

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