नौकरशाही की वकालत में
Date:18-05-21 To Download Click Here.
सरकार सार्वजनिक इकाइयों के निजीकरण की ओर तेजी से बढ़ रही है। इसमें प्रशासनिक अधिकारियों या नौकरशाहों की भूमिका एक बार फिर से महत्वपूर्ण हो उठी है। 1950 और 60 के दशक में निजी क्षेत्र में इतनी क्षमता नहीं थी कि वह उद्योगों का व्यापक संचालन कर सके। इस कारण सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का निर्माण किया गया था। उस दौर के अनुसार अर्थव्यवस्था की बागडोर को सार्वजनिक क्षेत्र के हाथों में रखना उचित था। इन इकाइयों के निर्माण और संचालन के लिए प्रशासनिक अधिकारियों को चुना गया था। अब सार्वजनिक इकाइयों के निजीकरण के इस दौर में इकाइयों के हस्तांतरण और योजना की सफलता के लिए नौकरशाहों की अहम् भूमिका होगी।
भारत को पाँच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था तक ले जाने के लक्ष्य के लिए संरचनात्मक रूपांतरण और सशक्त कार्यान्वयन का होना बहुत आवश्यक है। स्वतंत्रता के बाद से ही भारतीय शासन व्यवस्था के राजनीतिक अस्तित्व के लिए एक सशक्त भू-स्वामी वर्ग और एक संक्रेंद्रित पूंजीपतियों के वर्ग का बोलबाला रहा है। ये दोनों ही वर्ग ‘सबका विकास’ में विश्वास नहीं करते थे। केवल अपने पक्ष में नीतियों को मोड़ना चाहते थे। इस कारण संरचनात्मक एजेंडा समावेशी नहीं बन पाया।
दूसरे, एजेंडे के कार्यान्वयन का प्रश्न रहा। एजेंडे का निर्माण राजनीतिक इच्छा का परिणाम होता है। परंतु आर्थिक पक्ष को ध्यान में रखते हुए बाजार तकनीक का अधिकतम इस्तेमाल किया जाना चाहिए। सरकारी सम्पत्तियाँ के निजीकरण के केंद्र में यही भावना काम कर रही है। हालाँकि, बाजार तो तभी ठीक काम करता है, जब अनुबंध के न होने पर भी विश्वास बना रहे। इस पूरे तंत्र में सांस्कृतिक समझ और सरकारी नीतियों का ताना-बाना होता है। विशेष रूप से, औद्योगिक हस्तांतरण में सरकारी ढांचे और आर्थिक लेन देन की परिपूरकता का होना आवश्यक है। इसको संपन्न करने के लिए सक्षम और सशक्त नौकरशाही का होना जरूरी है। यद्यपि नौकरशाही का सीधा संबंध अपारदर्शी और विलंबित सरकारी प्रक्रिया से जोड़ा जाता है, तथापि यह सम्य है कि नौकरशाही के बिना सरकार नहीं चल सकती। सरदार पटेल ने संविधान सभा में नौकरशाही को सरकार के उपकरण की तरह बताया था। उन्होंने साफ कहा था कि राजनीतिक अमले और स्थायी अफसरों को एक-दूसरे के प्रति सम्मान रखते हुए मिलजुलकर काम करना होगा। संविधान की यही मांग है।
सरकार ने जहाँ इस पथ को छोड़ा, वहीं लड़खडा गई है। यह चुनावी राजनीति का परिणाम है कि जहाँ सरकारी कदमों का हिसाब उनके समर्थकों के द्वारा दिया जाता है। इसके लिए सरकार सब्सिडी, रोजगार और लोन वगैरह के माध्यम से काम करती है। सरकार की इन समस्त नीतियों और योजनाओं का कार्यान्वयन नौकरशाही के माध्यम से ही किया जाता है।
यह सत्य है कि निजीकरण की सफलता के लिए हमें नौकरशाही से भ्रष्टाचार को खत्म करना होगा। नौकरशाही के भीतर कार्पोरेट सम्बद्धता लानी होगी। यह नौकरशाही ही शक्ति बनेगी। इसके माध्यम से वह औपचारिक संगठनात्मक संरचना और निजी हस्तक्षेप को कम करके काम कर सकेगी।
अंत में एक प्रश्न फिर भी उठता है कि क्या हम एक समाज के रूप में सार्वजनिक संसाधनों को हड़पने की बढ़ती प्रवृत्ति से लड़ने की क्षमता रखते हैं, और क्या इन संसाधन की बंदर बांट को रोकने के लिए संविधान द्वारा नौकरशाही को दी गई स्वायत्तता को बहाल करने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले उनके स्थानांतरण को रोकने की कोशिश कर सकते हैं ?
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित सरबजीत अर्जन सिंह के लेख पर आधारित। 26 अप्रैल, 2021