सरकार की बुनियादी ढांचा निर्माण योजनाओं की सफलता

Afeias
04 Jan 2019
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Date:04-01-19

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वर्तमान सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों का निजीकरण नहीं किया है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के थोड़े बहुत अंश को बेचने की नीति, निजीकरण से नहीं, बल्कि विनिवेश से जुड़ी हुई है। असल बात यह है कि टोल-ऑपरेट-ट्रांसफर (टीओटी) के जरिए सड़कों के क्षेत्र में निजीकरण की नीति सामने आई है।

कुछ निजी संचालकों को नीलामी के जरिए टोल रोड की तीस साल की लीज दी जा रही है। इसके द्वारा ये संचालक टोल की वसूली कर सकेंगे और सड़कों का रखरखाव करेंगे। तीस वर्ष के बाद फिर से नीलामी की जाएगी। इस योजना को हवाई अड्डों पर लागू किया जा चुका है, और रेलवे, बंदरगाहों, बिजली संयंत्रों, बांधों, नहरों आदि के लिए भी इसका विस्तार किए जाने की उम्मीद है।

  • सरकार की इस योजना से अच्छी-खासी रकम सरकारी कोष में जमा हो सकेगी, जिसका उपयोग बुनियादी ढांचों के निर्माण में किया जाएगा। इस प्रकार बुनियादी ढांचा क्षेत्र में धन की कमी को पूरा किया जा सकेगा।

इससे अलग, यूपीए सरकार ने धन की कमी को पूरा करने के लिए पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप का तरीका अपनाया था। इसके अंतर्गत चलाई गई अनेक परियोजनाएं ठप पड़ गईं, और बैंक का ऋण भी चुकाया नहीं जा सका। इनमें से बहुत सी परियोजनाओं को भूमि अधिग्रहण, पर्यावरण एवं अन्य प्रकार की अनुमति लेने में देर होती गई। उन्हें कोयले की आपूर्ति व रेल संपर्क में भी काफी कठिनाई का सामना करना पड़ा था।

  • थोड़ा पीछे पलट कर देखें, तो पता चलता है कि बुनियादी ढांचों की सरकारी परियोजनाएं लेटलतीफी के कारण, लक्ष्य से बहुत अधिक समय और धन लेती रही हैं। इन परियोजनाओं की शुरुआत, भूमि अधिग्रहण एवं अन्य की अनुमतियों के बिना ही कर दी जाती थी। इनकी बढ़ी हुई लागत सरकारी कोष से जाती थी। पीपीपी में बढ़ी हुई लागत सरकारी कोष से नहीं दी जाती थी। इस प्रकार की योजनाएं 70-80 प्रतिशत ऋण पर ही निर्भर हुआ करती थीं। ऐसे में एक वर्ष का भी विलंब दिवालिएपन का कारण बन जाता था।
  • पीपीपी में नीलामी की ऊँची बोली लगाकर अनुबंध तो करा लिया जाता था, परन्तु बाद में योजना अलाभकारी सिद्ध होने लगती थी।
  • लाइसेंस राज में दलालों के माध्यम से योजनाओं के कांट्रेक्ट ले लिए जाते थे। इसके बाद उसे लाभदायक या कमाई का जरिया बनाने के लिए, नेताओं पर नीति परिवर्तन के लिए दबाव डाले जाते थे। इस प्रकार की प्रथा अब समाप्त हो गई है।
  • पीपीपी में बिल्ड-ऑपरेट-ट्रांसफर की प्रक्रिया थी, जिसमें निजी कंपनी निर्माण करके कुछ वर्षों तक उसका लाभ लेती थी। तत्पश्चात उसे सरकार को देती थी। अलग-अलग स्तरों पर अनुमति मिलने में विलंब आदि से योजना अलाभकारी होती जाती थी।
  • वर्तमान सरकार ने इसे उलट दिया है। अब निर्माण का काम सरकार करती है। अतः प्रत्येक विभाग से अनुमति लेना सहज हो जाता है। संचालन के लिए निजी क्षेत्र को दिया जाता है। वापस सरकार को हस्तांतरित कर दिया जाता है।

अन्य मॉडलों की अपेक्षा, सरकार का यह मॉडल अपेक्षाकृत लाभकारी सिद्ध हो रहा है। अतः बुनियादी ढांचा क्षेत्र में पूर्ववर्ती प्रक्रियाओं को बदलना ही श्रेयस्कर होगा।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रकाशित स्वामीनाथन एस.अंकलेसरिया अय्यर के लेख पर आधारित। 21 नवम्बर, 2018

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