
रोजगार गारंटी योजना पर संकट
Date:05-06-18 To Download Click Here.
- कई वर्षों से इस योजना क लिए पर्याप्त बजट आवंटित ही नहीं किया जा रहा है। हालांकि पिछले दो वर्षों में न्यूनतम बजट में थोड़ी वृद्धि की गई है, परन्तु वास्तव में मनरेगा के बजट में कई वर्षों में कमी आई है। 2018-19 का वास्तविक बजट 2010-11 की तुलना में कम रहा है।
- प्रत्येक वर्ष दिसम्बर तक, हर राज्य निचले स्तर से ऊपर तक की सहभागिता नीति के अंतर्गत, केन्द्र एक श्रम बजट सौपता है। इसमें आगमी वित्तीय वर्ष के लिए श्रमिकों की अपेक्षित मांग बताई जाती है। इस मांग को केन्द्र मनमाने ढंग से पूरा करता है। नेशनल इलैक्ट्रानिक फंड मैनेजमेंट सिस्टम (एन ई एफ एम एस) के 2016-17 के दिशानिर्देश के अनुसार राज्यों को श्रम बजट की सीमा से अधिक रोजगार देने की अनुमति नहीं दी जा सकती। ये दिशानिर्देश प्रबंधन सूचना तंत्र (मैनेजमेंट इंफॉर्मेशन सिस्टम) के आधार पर दिए जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि राज्यों द्वारा दी गई अपेक्षित श्रमिकों की सूची इस तंत्र में पंजीकृत होती ही नहीं है, और प्रबंधन सूचना तंत्र का इस्तेमाल श्रम की मांग को नियंत्रण में रखने के लिए किया जा रहा है। अतः स्वीकृत श्रम बजट बहुत ही कम निधि वाला बनता रहा है।
अब उच्चतम न्यायालय में स्वराज अभियान बनाम भारत सरकार की एक जनहित याचिका पर सुनवाई के चलते प्रबंधन सूचना तंत्र द्वारा श्रम की मांग निर्धारित किए जाने को हटा दिया गया है। सरकार ने मनरेगा के कार्यान्वयन से जुड़ा वार्षिक मास्टर सरक्यूलर जारी करना शुरू कर दिया है।
सरकार ने मनरेगा में वेतन की पूर्ति करने के मुद्दे से अपने को एक प्रकार से दोषमुक्त कर लिया है। 2017 अगस्त में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने मनरेगा बजट के तौर पर 17,000 करोड़ रुपये की मांग की थी। परन्तु जनवरी 2018 तक केवल 7,000 करोड़ ही स्वीकृत किए गए हैं।
- वेतन अधिनियम, 1948 से मनरेगा वेतन निर्धारण को अलग कर दिया गया है। इस अधिनियम का सबसे ज्यादा लाभ महिलाओं, दलितों और आदिवासियों को मिलता था। परन्तु अब वे रोजगार के अन्य ऐसे अवसर लेने को बाध्य हो रहे हैं, जो असुरक्षित हैं। अतः अधिनियम का सरेआम उल्लंघन गैरकानूनी है।
मनरेगा तीन तरह की मार झेल रहा है, पर्याप्त निधि की कमी, वेतन में देरी एवं नाममात्र का वेतन। केन्द्र द्वारा उत्पन्न की गई इस विकट स्थिति से न केवल कानूनी संकट बल्कि नैतिक संकट भी उठ खड़ा हुआ है। इस संकट के कारण अब संघर्ष केवल वेतन का नहीं, बल्कि जीवन-निर्वाह का हो गया है।
‘द हिन्दू’ में प्रकाशित राजेन्द्र नारायण और मधुबाला पोथुला के लेख पर आधारित। 16 मई, 2018