रोजगार के संकट का हल आरक्षण में नहीं ढूंढा जा सकता

Afeias
25 Aug 2021
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Date:25-08-21

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10 अगस्त, 2021 को असाधारण सर्वसम्मति से संविधान का 127वां संशोधन विधेयक पारित किया गया। सभी दल इसके पक्ष में थे। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि अगर कोई एक विषय है, जो सभी राजनीतिक दलों को सहमति के लिए राजी कर सकता है, तो वह है – आरक्षण। मुख्य बातें –

  • इस विधेयक का उद्देश्य मई में दिए गए उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के परिणाम को नकारना था, जिसमें कहा गया था कि केवल भारत सरकार ही आरक्षण का लाभ देने के लिए ओबीसी समूहों की पहचान कर सकती है।
  • सभी राजनीतिक दल राज्यों को भी लाभार्थियों की पहचान या चुनाव का अधिकार देना चाहते हैं।
  • भारत में बढ़ती बेरोजगारी के संकट की समस्या को हल करने के नाम पर राजनीतिक दलों की तथाकथित यह सकारात्मक कार्रवाई गुमराह करने वाली है।
  • आंकड़ों पर विचार करें, तो पता चलता है कि नौकरियों के जाति, धर्म या आर्थिक आधार पर आरक्षण के विस्तार का अभियान बढ़ता जा रहा है, और नौकरियों की संख्या घटती जा रही है।

2012 में 79 मंत्रालयों ने सामूहिक रूप से 30 लाख लोगों को रोजगार दिया था। 2020 तक यह संख्या घटकर 18 लाख रह गई है। परिणामस्वरूप, प्रत्येक श्रेणी में आयोजित नौकरियों की कुल संख्या में गिरावट आई है। निजी क्षेत्र में भी कहानी अलग नहीं है।

  • 2004-2005 और 2018-19 के बीच भारत की युवा जनसंख्या में लगभग 7.2 करोड़ की वृद्धि हुई है। इस अवधि के दौरान सक्रिय काम में लगे युवाओं की संख्या 2.5 करोड़ घटकर कुल 3.8 करोड़ मात्र रह गई है।
  • कृषि छोड़ने वाले युवाओं के लिए, अन्य क्षेत्रों में रोजगार के पर्याप्त अवसर उत्पन्न नहीं किए गए। इस समस्या का समाधान आरक्षण में खोजे जाने की नीति को लोक-लुभावनवाद के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता है।

प्रत्येक राष्ट्र में हमेशा एक ऐसा समूह होगा, जो मानता रहेगा कि उसके साथ गलत व्यवहार किया गया है। इस प्रकार, ओबीसी और एससी के उप-वर्गीकरण के लिए इस राजनीतिक समर्थन के गंभीर परिणामों को राजनीतिक वर्ग भूल रहा है।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 12 अगस्त, 2021

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