शहरों के लिए रोजगार गारंटी योजना की जरूरत
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प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद् की एक रिपोर्ट ने शहरी रोजगार गारंटी कार्यक्रम शुरू करने की सिफारिश की है। यह कार्यक्रम कोई नया नहीं है। केरल ने एक दशक पहले ही इसे शुरू कर दिया था। महामारी के कारण इसके लिए क्रॉस-पार्टी समर्थन बना और राजस्थान जैसे कुछ राज्यों ने इसे तुरंत शुरू भी कर दिया। गत वर्ष, श्रम संबंधी संसदीय स्थायी समिति ने भी इसकी सिफारिश की थी।
भारत सरकार को दो कारणों से इसे लागू करना चाहिए –
- भारत में रोजगार के आंकड़ों से पता चलता है कि एक वर्ष में मासिक बेरोजगारी में 6.56% और 11.84% के बीच उतार-चढ़ाव हुआ है। यह शहरी क्षेत्रों के रोजगार में अधिक देखा गया है।
- राज्य स्तरीय पहल भौगोलिक रूप से सीमित है, और प्रारंभिक अवस्था में है। यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि यूपी, बिहार, राजस्थान और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों के प्रवासी मजदूरों के लिए यह उनके अपने राज्य में कितनी उपयोगी है।
दो चुनौतियां – लागत और डिजाइन
- अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं के एक अनुमान से पता चलता है कि दो करोड़ कामगारों के लिए 100 दिनों के गारंटीकृत काम की मजदूरी अगर 300 रु. प्रतिदिन तय की जाए, और कुल परिव्यय के 50% पर कुल वेतन बिल को रखा जाए, तो सरकार के एक लाख करोड़ खर्च होंगे। सरकार का नवीनतम वार्षिक बजट 39.4 लाख करोड़ रुपये आंका गया है।
- लागत को नियंत्रित करने के लिए भारत सरकार की मौजूदा शहरी रोजगार योजनाओं को इस कार्यक्रम में शामिल किया जा सकता है।
- जहां तक डिजाइन का सवाल है, अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के प्रस्तावित ‘डुएट’ (विकेंद्रीकृत शहरी रोजगार और प्रशिक्षण) जैसे मध्यवर्ती मार्ग को लिया जा सकता है। इस प्रस्ताव में योजना की शुरूआत में सार्वजनिक संस्थानों का उपयोग करने की परिकल्पना है। यह भारत को छोटी सेंटिग्स में अपने काम का निरीक्षण करने का मौका देगा, क्योंकि पूरे भारत में शहरी प्रशासन क्षमता असमान है।
शहरी रोजगार गारंटी योजना से उन लोगों की मदद की उम्मीद की जा सकती है, जो हाल के आर्थिक झटकों से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं।
‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संपादकीय पर आधारित। 30 मई, 2022