नए वनाधिकार कानून का मसौदा

Afeias
18 Jul 2019
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Date:18-07-19

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भारतीय वनाधिकार कानून का संशोधित मसौदा आ चुका है। इस नए मसौदे को लेकर अनेक वाद-विवाद हो रहे हैं। इसका कारण है कि इसमें उत्पादक-वन जैसी एक नई अवधारणा जोड़ी गई है।

क्या है उत्पादक वन की अवधारणा

यह बंजर भूमि और विरल वन क्षेत्र को निगमों को लीज़ पर दिए जाने का प्रावधान है। इसका उपयोग व्यावसायिक निगम उपयोग की इमारती लकड़ी, लुगदी, औषधीय वनस्पति तथा अन्य वनोत्पाद के लिए कर सकते हैं। ऐसा अनुमान है कि कुल वन क्षेत्र में ऐसी भूमि लगभग एक-चैथाई है।

वर्तमान में भारत, लकड़ी और इमारती लकड़ी से जुड़े उत्पादों का आयात करने में 46 हजार करोड़ रुपये व्यय करता है। प्रस्तावित नीति से इस आयात में कमी आएगी, उत्पादन के अवसर बढ़ेंगे और रोजगार उपलब्ध होंगे।

मसौदे का विरोध क्यों?

  • नए मसौदे के अनुसार अगर वनों के संरक्षण को लेकर वनाधिकार कानून और वनवासियों में कोई विवाद की स्थिति बनती है, तो सरकार को अधिकार है कि वह क्षतिपूर्ति देकर वनवासियों के वनाधिकार अनिवार्य रूप से वापस ले सकती है। आलोचकों का मानना है कि यह मसौदा पुलिस, वनाधिकारियों और निगमों के हस्तक्षेप के द्वारा आदिवासियों को उनके वनाधिकारों से वंचित करने का षड्यंत्र है।
  • कुछ पर्यावरणविदों का मानना है कि वनाधिकार कानून की आड़ में अनेक वनवासी गैर कानूनी अतिक्रमण करते जा रहे हैं। इनके पशुओं के चरने से वनीकरण के प्रयास निष्फल होते जा रहे हैं। अतः ये नए वनाधिकार कानून को आवश्यक मानते हैं।

आदिवासी सशक्तिकरण से जुड़े कार्यकर्ताओं का मानना है कि जो अधिकार इतने प्रयासों के बाद प्राप्त किए गए हैं, उन्हें संशोधित मसौदे को स्वीकार करके छोड़ा नहीं जा सकता।

क्या किया जाना चाहिए

पुराने वनाधिकार कानून में निःसंदेह बदलाव की आवश्यकता है। अगर इसे विवेकपूर्ण तरीके से बनाया जाए, तो सभी हितधारकों को इससे लाभ मिल सकता है।

  • वनाधिकार कानून में बांस को पेड़ की जगह घास की श्रेणी में रखा गया है। वनवासियों का ही इस पर अधिकार है, सरकार का नहीं। अन्य कानूनों के अनुसार वनों में लगा बांस सरकारी संपत्ति है, और वनवासियों का इस पर अधिकार नहीं माना गया है। वनों से बाहर उगाए गए बांस पर उनका अधिकार माना जा सकता है। इस कानून से वनवासियों के अधिकारों का हृास होता है।

इसका उदाहरण गुजरात के देदियापाड़ा तालुका के वनों में देखा जा सकता है। वहाँ के वनवासियों को सूखे हुए गिर बाँस को मजबूरी में बेचने की छूट दी गई क्योंकि हमसे जंगलों में आग लग रही थी। वनवासियों ने इसे एकत्रित करके पास की पेपरमिल में बेचकर 6.5 करोड़ का लाभ कमाया। इसे पंचायत के खाते में जमा करके बांस के और अधिक पौधे रोपे गए। पेपर मिल ने भी इसमें तकनीकी सलाह देकर मदद की। इसके चलते यहाँ के वनवासी बहुत सम्पन्न हो गए हैं।

  • मसौदे में प्रस्तुत उत्पादक वनों की अवधारणा सराहनीय है, परन्तु इसे निगमों को लीज़ पर देने के बजाय वनवासियों द्वारा बनाई गई निर्माता कंपनियों और सहकारी समितियों को दिया जाना चाहिए।

देदीपाड़ा का उदाहरण बताता है कि कुछ गैर सरकारी संगठन और उद्योगों की तकनीकी सहायता से आदिवासी वनोपज का प्रबंधन आसानी से कर सकते हैं। ऐसा करने पर स्थिति सभी के लिए सुविधाजनक और लाभप्रद हो सकती है। न तो कार्बन उत्सर्जन का खतरा होगा, और न ही आयात पर निर्भरता रहेगी।

सैद्धांतिक रूप से तो बंजर मानी जाने वाली वन-भूमि को वनीकरण के लिए निगमों को सौंपा जा सकता है। परन्तु पूर्व में किए गए ऐसे प्रयास विफल रहे हैं। इसके लिए स्थानीय जनता का विरोध रहता है। दूसरे, इस भूमि का उपयोग भी वनवासी अपने पशु चराने और जड़ी-बूटी इकट्ठा करने के लिए करते हैं। सर्वोत्तम उपाय यही है कि उद्योगों की तकनीकी सहायता और कुछ समूहों के थोड़े से सहयोग से, बंजर भूमि को पौधारोपण के लिए वनवासियों को ही सौंप दिया जाए।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित स्वामीनाथ्न एस.अंकलेश्वरिया अय्यर के लेख पर आधारित। 30 जून, 2019