वनाधिकार अधिनियम का मानवीय पहलू

Afeias
22 Mar 2019
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Date:22-03-19

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पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक आदेश में ‘स्वयं को जंगल का निवासी सिद्ध करने में विफल रहे अवैध कब्जेदारों को’ जंगलों से बेदखल करने का निर्देश दिया था। यह जानना जरूरी है कि अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी अधिनियम, 2006 को 2007 में अधिनियमित किया गया था। इस कानून के अंतर्गत दिसंबर 2005 के वनाधिकार कानून में मान्यता प्राप्त वनों के वाशिंदों को वहां रहने का अधिकार दिया गया था।

मामला क्या है ?

  • देश का संविधान अनुसूचित जनजातियों को परिभाषित नहीं करता है। इसलिए अनुच्छेद 366(25) अनुसूचित जनजातियों का संदर्भ उन समुदायों के रूप में करता है, जिन्हें संविधान के अनुच्छेद 342 के अनुसार अनुसूचित किया गया है।
  • जंगल पर निर्भर कुछ समुदायों की विशिष्ट संस्कृति तथा आर्थिक पिछड़ेपन को आधार मानकर सरकार और संसद ने माना कि जंगलों पर पहला अधिकार आदिवासियों का है, और इस कारण से वनाधिकार कानून 2006 लाया गया। यह कानून 31 दिसंबर, 2005 से पहले कम-से-कम तीन पीढ़ियों तक वन भूमि पर रहने वालों को भूमि अधिकार देने का प्रावधान करता है।
  • प्रावधान के अनुसार दावों की जांच जिला अधीक्षक की अध्यक्षता वाली समिति और वन विभाग के अधिकारियों के सदस्यों द्वारा की जाती है।
  • वनाधिकार अधिनियम लागू होने के बाद लघु वनोपजों पर पहला और आखिरी अधिकार वहां के आदिवासियों या वनों पर आश्रित वनवासियों का हो गया, जिससे वन विभागों को ऐतराज था। इसलिए इस कानून के लागू होने के बारह साल बाद भी भूमि के अधिकार को लेकर भ्रम और दुविधा की स्थिति बनी हुई है।
  • पिछले दिनों सर्वोच्च अदालत ने एक ऐसी याचिका पर सुनवाई की, जिसमें वनाधिकार कानून की वैधता पर सवाल उठाया गया है। इस अपील में पारंपरिक वनभूमि पर मालिकाना हक के दावे खारिज करने की मांग की गई थी। आश्चर्य की बात है कि सरकार ने बचाव के लिए अपने वकील ही नहीं भेजे और सुनवाई कर रही पीठ ने 17 जुलाई, 2019 तक उन आदिवासियों की बेदखली का आदेश दे दिया, जिनके दावे खारिज हो गए हैं।

इस आदेश में राज्यों द्वारा दायर हलफनामों के अनुसार अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वनवासियों द्वारा किए गए लगभग 11,72,921 भूमि स्वामित्व के दावों को विभिन्न आधारों पर खारिज किया गया है।

  • देश भर के वन समुदायों से शिकायत आई है कि सबूतों के अभाव, प्रक्रियाओं की जानकारी के अभाव तथा वन विभाग द्वारा प्रमाण नहीं दिए जाने के कारण आदिवासी अपनी पैरवी ठीक ढंग से नहीं कर पाए, इसलिए उनके दावे निरस्त हो गए।
  • दुखद पहलू यह है कि प्रकरण की सुनवाई के दौरान केन्द्र सरकार ने आदिवासियों और वनवासियों के बचाव का कोई प्रयत्न नहीं किया।
  • ज्ञातव्य हो कि अभी तक देश भर में इकतालीस लाख दावे दर्ज हुए, जिनमें मात्र 18 लाख दावों को स्वीकृत किया गया है। मध्यप्रदेश और ओड़िशा में सबसे ज्यादा दावे निरस्त हुए हैं। इसका कारण यही है कि कई राज्यों में ग्राम सभा कारगर नहीं है। अतः दावे की वास्तविकता का आकलन ही नहीं हो पाया।

आदिवासियों की समस्या को देखते हुए शीर्ष न्यायालय ने इसे मानवीय समस्या बताते हुए आदिवासियों को राहत दी है। फिलहाल उन्हें बेदखल न करने का आदेश दिया गया है। न्यायालय ने राज्य सरकारों को चार महीने की छूट दी है, ताकि सरकारें यह बता सकें कि इतनी बड़ी संख्या में दावों के खारिज किए जाने का क्या कारण था। इस बीच उच्चतम न्यायालय को इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि वनों पर आश्रित ऐसे बहुत से लोग हैं, जो भूमिहीन हैं। वे वनोपज, ईंधन आदि पर अपना जीवनयापन करते हैं। भू-अधिकार दिए जाने के बाद इनकी आजीविका का क्या होगा। दूसरे, 2006 के अधिनियम के बाद बहुत सी वनभूमि पर कृषि की छूट दे दी गई है। इस पर भी उचित कार्यवाही की जानी चाहिए।

उम्मीद की जा सकती है कि राज्य सरकारें मामले की गंभीरता को समझते हुए इस पर कार्यवाही तेज करेंगी, और सदियों से जंगलों, पहाड़ों, तराई और मैदानी इलाकों में रहते चले आ रहे लोगों को भूमि अधिकार दिलवा सकेंगी।

समाचार पत्रों पर आधारित।

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