जल्लीकट्टु का मानवीय पक्ष

Afeias
07 Feb 2017
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Date:07-02-17

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हाल ही में तमिलनाडु में जल्लीकट्टु को लेकर बहुत विवाद हुआ है। इस विवाद के दो पक्ष रहे हैं। कुछ लोग इसके पक्ष में रहे तो कुछ विपक्ष में। यदि हम मानव एवं पशुओं के प्रति असंवेदनशीलता की बात करें, तो जल्लीकुट्टु कोई नई परंपरा नहीं है। 19वीं शताब्दी से भारत ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक स्थानों पर यह अमानवीय असंवेदनशीलता देखने को मिलती रही है।

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक भी सार्वजनिक रूप से फांसी देना, चीन का ली चिंग, ब्रिटेन में कुत्तों  की लड़ाई करवाना, सूली पर चढ़ाना आदि जनता के लिए ऐसे अमानवीय मनोरंजक कृत्य थे, जिन्हें देखने की उत्सुकता से एलिजाबेथ प्रथम भी अपने आपको रोक नहीं पाई थीं।यह मात्र एक संयोग ही कहा जा सकता है कि ब्रिटेन ने गुलाम-प्रथा पर रोक लगाने के लिए 1832 में संशोधन विधेयक पारित किया। इसके बाद क्रमशः मानव की मानवीयता जागती गई और धीरे-धीरे सार्वजनिक फांसी आदि पर प्रतिबंध लगता गया। लोगों में इन वाहियात मनोरंजक तमाशों के प्रति जब चेतना जागी, तो राजनीतिज्ञों को भी अपने वोट बैंक की चिंता हुई और उन्होंने तब इस पर प्रतिबंध लगाने शुरू किए।

आज हमें इस प्रकार के मनोरंजन या तमाशे पागलपन लगते हैं। लेकिन कुछ समय पहले तक इन्हें बहुत सामान्य समझा जाता था। हांलाकि आज भी हम फांसी की सजा सुनाते है, परंतु उसका तमाशा नहीं बनाते। उसे सार्वजनिक नही करते। इसके पीछे मनुष्य की बदलती मानसिकता रही है। हम धीरे-धीरे इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि अगर मनुष्य या पशु में से किसी के भी जीवन को खत्म किया जाना ही है, तो उसे कम-से-कम कष्ट देकर किया जाए। फांसी की सजा की जगह जहरीले इंजेक्शन के प्रावधान पर भी विचार किया जा रहा है। पशुओं के संदर्भ में भी यही नीति अपनाई जा रही है।

ऐसे समय में मनुष्य का किसी विशालकाय पशु से संघर्ष कराना कितना सही है ? ऐसा संघर्ष; जिसमें दर्द है, विनाश है। विश्व में प्रचलित जल्लीकट्टु, (बुल फाइट), सांड़ों की लड़ाई और फॉक्स हंटिग इन तीनों के संदर्भ में अनेक प्रश्न उठाए जा रहे हैं। किसी न किसी अवसर पर इन तीनों पर रोक लगा दी गई थी। लेकिन कुछ समय बाद इसे हटा दिया गया।स्पेन के कैटालोनिया क्षेत्र में सांड़ों की लड़ाई को वर्जित किया गया था। किन्तु लेकिन स्पेनिश उच्चतम न्यायालय ने इस प्रतिबंध को खत्म कर दिया। इसी प्रकार इंग्लैण्ड में फॅाक्स हंट को न्यायिक सहमति मिल गई थी और अब जल्लीकट्टु को भी मिल गई है।

इन सभी के पीछे एक खास तरह की सामाजिक और सांस्कृतिक मानसिकता काम करती हुई दिखाई देती है। हम देखते हैं कि जो मनोरंजक लेकिन अमानवीय खेल केवल धनाढ्य वर्ग तक सीमित रहते हैं, उन्हें सार्वजनिक सहमति नहीं मिलती और न ही वे संस्कृति का हिस्सा बन पाते हैं। शेर का शिकार कभी भी हमारा सांस्कृतिक हिस्सा नहीं बन पाया। इसी प्रकार इंग्लैण्ड में फॉक्स हंट की तब तक वकालत नहीं की गई, जब तक वह एक खास संभ्रांत वर्ग तक सीमित था। 1950 से अनेक मध्यवर्गीय लोगों के बनाए जाने वाले फॉक्स हंटिंग क्लब की वजह से यह उनकी संस्कृति का हिस्सा बन गया। स्पेन में सांड़ों की लड़ाई हमेशा से ही लोकप्रिय खेल रहा है। इसके पीछे कारण यह था कि सांडों से लड़ने वाले लोग सामान्य वर्ग से आते थे। उनके कौशल ने कुछ को स्पेन का सुपरस्टार भी बना दिया।

जल्लीकट्टु भी भारत का बहुत लोकप्रिय खेल बना हुआ है। दूसरी तरह से कहें तो यह संस्कृति का हिस्सा बना हुआ है जिसमें मनुष्य की लड़ाई पशु से होती है। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि एक सामान्य मनुष्य की लड़ाई सामान्य पशु से होती है। इस खेल का सीधा सा अर्थ यह लगता है, मानो कि जैसे इसके माध्यम से हम प्रकृति पर अपने प्रभुत्व का दिखावा कर रहे हैं। इसे ईश्वर की कृपा ही कहा जा सकता है कि पशु से अलग उसने हमें चालाकी का भी वरदान दे दिया है। इसलिए हम ऐसे मनोरंजन और तथाकथित सांस्कृतिक परंपरा को बनाए रखने के लिए उन चैपायों को इस्तेमाल करते हैं, जो हिंसक नहीं हैं। हम उन लोमड़ियों का शिकार करते हैं, जो हमारी मुर्गियों पर ही हमला करने की कूबत रखती है या फिर हम उन सांड़ों से लड़ते है, जिनसे मनुष्य की कोई दुश्मनी नहीं है। कोई भी शेर या विशालकाय भालुओं से लड़कर उसे सांस्कृतिक परंपरा का नाम नहीं देना चाहता।

मनुष्य होने के नाते हमें इस दिखावे की परम आवश्यकता है कि हमारी संस्कृति केवल कमजोर को दबाने या उससे लड़ने की है। यहाँ तक कि बराबरी की शक्ति वालों को भी हम संघर्ष-योग्य नहीं मानते। यहाँ पीटर क्रोपोटकिन की प्रकृति के लिए ‘रेड इन टूथ एंड क्लॉ‘ वाली उक्ति की याद आती है, जो इंसानों के लिए ही लिखी गई लगती है।

टाइम्स ऑफ  इंडिया में प्रकाशित दीपांकर गुप्ता के लेख पर आधारित।

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