कानून का मानवीय पक्ष

Afeias
14 Feb 2020
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Date:14-02-20

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समाज में अपराधों और अपराधियों को लेकर जैसी प्रवृत्ति बढ़ रही है, वह चिंतनीय है। हैदराबाद के बलात्कारियों को मुठभेड़ के नाम पर मारे जाने के जश्न के बाद अब निर्भया कांड के चार दोषियों की बारी है। बलात्कार के लिए मृत्युदंड है या नहीं, दिया जाना चाहिए या नहीं, इस पर बहस खत्म हो चुकी है। सजा को परिणाम तक पहुंचाने के लिए तकनीक के जरिए आकर्षक खोजबीन की जा रही है। चार मानवों की फांसी की सजा की प्रत्याशा में, मीडिया ने जल्लादों की कमी को खारिज कर दिया है, और इस तथ्य को भी नजरअंदाज कर दिया है कि तिहाड़ जेल को एक जल्लाद उधार लेना पड़ रहा है। फांसी के तख्ते की वास्तुकला को फोरेंसिक विस्तार से वर्णित किया जा रहा है। एक तख्ते पर एक ही समय में चार पुरूषों को एक साथ फांसी दिए जाने का विचार जैसे उनके लिए उत्तेजना पैदा करने वाला बन गया है। फांसी देने में हो रही देरी को चिड़चिड़ाहट के रूप में व्यक्त किया जा रहा है, जैसे कि यह कर्म जनता की प्रतिशोध की प्यास को शांत करेगा।

न्यायपालिका ने फांसी में देर होने का आरोप, तिहाड़ की नौकरशाही के सिर मढ़ दिया है। मृत्यु दंड मिले दोषियों के अधिकारों से संबंधित कानूनी प्रक्रियाओं को लंबा करने की रणनीति के रूप में देखा जाता है। मीडिया के कॉलम इस सवाल से चिंतित नहीं हैं कि राज्य अधिकृत हिंसा को कैसे कानून और जीवन से जुड़े कठिन प्रश्नों के ऊपर सजाया जा रहा है। सरकार द्वारा दिए जा रहे इस मृत्युदंड को सिनेमाई बना दिया गया है।

प्रत्याशित फांसी ने कई एन जी ओ और सुधारकों का भी ध्यान अपनी ओर खींचा है। कुछ सुधारकों की उस याचिका को खारिज कर दिया गया है, जिसमें वे दोषियों के मन में पश्चाताप उत्त्पन्न करना चाहते थे। जेल का ही एक कर्मी उन्हें गरूड़ पुराण सुनाना चाहता है, जिससे उन्हें मृत्यु से भय न हो। सब इस प्रकार की क्रियाओं में लगे हैं, मानों उन्हें मालूम है कि ‘दया याचिका‘ तो मात्र एक औपचारिकता है, जिसे अस्वीकृत किया जाना और फांसी का दिया जाना निश्चित है।

राष्ट्रपति ने ‘दया याचिका‘ को यह कहकर अस्वीकृत कर दिया कि ‘पीओसीएसओ कानून के अंतर्गत दोषी ठहराये गए बलात्कारियां को दया-याचिका फाइल करने का अधिकार ही नहीं दिया जाना चाहिए।‘ यह सोचनीय है। ‘दया-याचिका‘ का अधिकार तो संविधान प्रदत्त है, जबकि बच्चों के प्रति की गई यौन हिंसा निंदनीय है, और इसके लिए कठोरतम कानून लागू किए जाने चाहिए। इस प्रकार के मामलों में दया के प्रावधान को यह कहकर नहीं हटाया जा सकता है कि अपराध की प्रकृति अपवाद थी।

दया का प्रावधान तो न्याय के दुरूपयोग या संदेहास्पद दोषारोपण या न्याय तंत्र के दोषों को सुधारने का एक रास्ता है, जिसके बगैर कानून एक मृत्यु यंत्र बन जाएगा। यह वकीलों के बहिष्कार और बेकार कानूनी प्रतिनिधित्व के समक्ष त्रुटियों को सुधारने की वजह देता है। यह पश्चाताप और सुधार की अनुमति देता है, जीवन की पवित्रता को स्वीकार करता है, और मानता है कि जब कानून मृत्युदंड देता है, तो यह अपनी मानवता का त्याग करता है।

कानूनन हत्या करने का एकाधिकार कानून के पास है। इसलिए कानून को मानवता की याद दिलाना महत्वपूर्ण है। कानून द्वारा की जाने वाली हिंसा के अधिकार को पुलिस और जेल जैसी आधिकारिक संस्थाओं को वितरीत कर दिया जाता है। इस प्रकार की हिंसा, हत्या जैसे हिंसा के अन्य रूपों को वैधता प्रदान करती है। जबकि मृत्युदंड नारीवादी मांग नहीं है। उन्होंने तो तर्क दिया है कि अगर बलात्कार की सजा मृत्यु दंड हो गई, तो अधिकांश पीड़ितों की हत्या की जाएगी। 2013 में वर्मा कमेटी का भी यही विचार था। फिर हैदराबाद के तथाकथित दोषियों की मृत्यु पर इतना उत्साह क्यों दिखाया गया ?

मृत्यु-दंड बलात्कार को नहीं रोक सकता। ऐसे मामलों में मृत्यु-दंड देने से उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में बलात्कार-पीड़ितों की हत्या के मामले बढ़ गए हैं। यह मात्र एक संयोग नहीं है कि बलात्कार के दोषियों को दिए जाने वाले मृत्यु दंड की संख्या बढ़ने के साथ ही, न्याय परिधि से परे उनकी हत्या की घटनाओं में भी बढ़ोत्तरी हो गई है। इस संदर्भ में उन्मूलनवादी तर्क और भी महत्वपूर्ण हो जाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सरकार अधिशासित हिंसा; चाहे वह न्यायिक हो या गैर न्यायिक, हमें यह बताती है कि कैसे न्याय अपनी मानवतावादी खोज को भूलता जा रहा है।

जब हमारा समाज किसी संदेहास्पद अपराधी की मुठभेड़ में की गई हत्या का जश्न मनाता है, तो न्यायपालिका को चिंता होनी चाहिए। यह स्मरण रखना आवश्यक है कि याचिकाकर्ताओं के बगैर न्यायालय की प्रक्रिया का क्या औचित्य है। संवैधानिकता का उदय तभी होता है, जब याचिकाकर्ता न्यायालय के द्वार खटखटाता है। कोर्ट में अपील किए बिना मृत्यु दंड पाने वाले दोषियों के अधिकारों के लिए विधिशास्त्र क्या कर सकेगा। उसे न्यायपालिका से अपेक्षा रहती है कि वह उसके जीवन और गरिमा के संबंध में न्याय करेगा।

जब रेबेका जॉन और वृंदा ग्रोवर जैसी नारीवादी वकील मृत्यु दंड पाने वाले अपराधियों का प्रतिनिधित्व करने न्यायालय जाती हैं, तो वे इसे नैतिक उत्तरदायित्व के साथ पूरा करती हैं। वे हमें मानवता के लिए न्याय की खोज के बारे में बताती हैं। क्या उन्मूलनवादी किसी मृत पीड़ित के अभिभावकों से दोषियों के प्रति दया करने की अपील कर पाएंगे। मृत्यु-दंड को न्याय की मानवीयता की हत्या के रूप में देखा जाना अनैतिक नहीं कहा जा सकता।

‘द इंडियन एक्सप्रेस‘ में प्रकाशित प्रतीक्षा बक्षी के लेख पर आधारित। 24 जनवरी, 2020

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