कमजोर कड़ी

Afeias
17 Jul 2019
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Date:17-07-19

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समाज के दलितों और पिछड़ी जाति के लोगों को मुख्य धारा में लाने के लिए संविधान में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। इस हेतु 19 अक्टूबर 1951 को बाबासाहेब अम्बेडकर ने ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन के घोषणा-पत्र में सभी उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण का प्रावधान रखा था। उन्होंने इसके पक्ष में तर्क देते हुए कहा था कि, ‘‘इस देश में और विदेश में उच्च स्तर की प्रगतिशील शिक्षा देकर ही इस वर्ग के लोगों को प्रशासन की बागडोर संभालने के लायक बनाया जा सकता है।’’ उन्होंने सरकारी नियुक्तियों में भी आरक्षण का वायदा किया था, क्योंकि ‘‘ये सेवाएं कुछ खास समुदायों का एकाधिकार बनती जा रही थीं।’’ आंबेडकर का कहना था कि इसी एकाधिकार ने उच्च वर्णों और निम्न वर्णों के बीच शत्रुता के बीज बो दिए हैं, जिनकी परिणति ‘‘1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद भारत के अनेक भागों में होने वाली हत्याओं, आगजनी और लूटपाट के रूप में देखी जा सकती है।’’

‘‘नीची जाति के लोगों को उच्च शिक्षा प्रदान कर उनके लिए विभिन्न नौकरियों के द्वार खोल देना ही इस समस्या का समाधान है।’’ ऐसा आंबेडकर कहते थे, और यही सोचकर उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में नीची जातियों को ऊँची जातियों के बराबर खड़ा करने का प्रयत्न किया।

इसके चलते संविधान में अनुच्छेद 340, 341 और 342 का समावेश किया गया। इनके माध्यम से सरकार भारत में ‘‘सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी जातियों की स्थितियों को सुधारने का प्रयत्न’’ कर रही है।

आज के संदर्भ में देखें, तो सामाजिक समानता, न्याय और अवसर की समानता देने की दृष्टि से आरक्षण की रणनीति निरर्थक सिद्ध हुई है। भारत में जाति के नाम पर घृणा का व्यापार हमेशा ही चलता रहा है। आरक्षण के माध्यम से सरकार ने पिछड़े तबकों को शिक्षा और रोजगार के सीमित स्रोतों तक पहुँचाने का प्रयत्न किया था। ये स्रोत आज भी सीमित हैं। यही कारण है कि आरक्षण के विधान ने जाति भेद को कम करने की बजाय अनजाने ही सबकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। जिसको लाभ मिला, वह भी छला हुआ अनुभव कर रहा है; और जिसको नहीं मिला, वह भी।

1.आरक्षण प्राप्त लोगों में बहुत से ऐसे हैं, जो इसके माध्यम से उच्च शिक्षा और रोजगार प्राप्त करने के बावजूद आत्म- सम्मान का अनुभव नहीं करते हैं। वे सार्वजनिक जीवन में अपना स्थान बना पाने में असमर्थ हैं।

2. लोगों को उसी असमानता, रोष और अन्याय का सामना करना पड़ रहा है, जो आरक्षण से करना पड़ता था।

3. विशेषाधिकार वर्ग अभी भी अपना प्रभुत्व जमाए हुए है। यह आरक्षण के लाभों को निष्क्रिय कर देता है।

4. महिलाओं की स्थिति अभी भी शक्तिहीनता की है।

भारत में जाति प्रथा के नाम पर चलने वाले घातक तंत्र में लोगों को अवसर की समानता मिलना दुष्कर है। ऐसा लगता है कि आरक्षण के माध्यम से समाज को समान बनाने के प्रयासों का कोई विशेष परिणाम देखने को नहीं मिला है।

आरक्षण की अवधारणा को संविधान में शामिल करने के बाद बाबा साहेब की पार्टी भी हार गई थी। फिर भी, भारत की सामाजिक व्यवस्था में जातिगत सत्ता को देखते हुए 1955 में अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ की कार्यसमिति ने एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें संसद, विधान सभाओं और नगरपालिकाओं में अनुसूचित जाति को आरक्षण देने का प्रावधान रखा गया था।

इसके बाद सत्ता में आने वाली काँग्रेस सरकार ने महासंघ के प्रस्ताव को अनदेखा कर दिया। सत्तर वर्षों बाद अब आंबेडकर द्वारा कही जाने वाली निचली जातियों के विरूद्ध हत्या, लूट और आगजनी के मामले सुनाई नहीं देते। कदाचित इसका उल्टा होने लगा है। निचली जातियों को काफी शक्ति मिल चुकी है। इतनी शक्ति मिल चुकी है कि उन्होंने दलित चेम्बर ऑफ कॉमर्स का गठन कर लिया है। इसके माध्यम से वे दलित व्यापारियों को भारतीय कानून और नियमन को समझने में मदद देते हैं। दलितों की यह शक्ति आरक्षण का प्रतिफल न होकर उनके व्यक्तिगत प्रयास और अवसरों का परिणाम है।

एक समान समाज बनने की यात्रा में सभी को समान अवसर प्रदान कर पाने की अक्षमता ही हमारे देश की कमजोर कड़ी है। इसको मजबूत करने के लिए देशवासियों को अपने जातिगत और सांप्रदायिक भेद भुलाकर खड़े होना होगा।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित एम. राजीवलोचन के लेख पर आधारित। 1 जुलाई, 2019

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