किसान, वन और उनका भविष्य

Afeias
14 May 2018
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Date:14-05-18

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वन नीति 2018 का मसौदा तैयार होने के साथ ही वन संरक्षण और जनजाति अधिकार के समर्थकों का विरोध प्रारंभ हो गया है इस विरोध का कारण वनभूमि के व्यावसायिक इस्तेमाल का अधिकार देना है। जाहिर है कि इससे स्थानीय समुदायों और पारिस्थितिकी पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रस्तावित वन नीति, हमारे वनों की जैव विविधता को महत्व न देकर उसके व्यावसायिक महत्व पर ध्यान देने वाली है।

इसके साथ वनवासियों को वन-भूमि का मालिकाना अधिकार देने का मुद्दा भी विवाद में है। यही कारण है कि नासिक से मुंबई की ऐतिहासिक किसान रैली में वनवासियों ने भी भाग लिया था।

  • वन उपजाऊ होते हैं, सतही मृदा को पोषण देते हैं और जल-संरक्षण करते हैं। इसके बावजूद कोई भी किसान वन-भूमि में खेती नहीं कर सकता, क्योंकि वन्य-पशु इसके लिए बड़ा खतरा हैं। वनवासियों को अपने जीवन निर्वाह हेतु प्रति व्यक्ति 4 हेक्टेयर भूमि देने का प्रावधान 2006 की वन नीति में रखा गया था। इससे वनोन्मूलन का कोई भय नहीं था। बहुत सी वन भूमि ऐसी है, जिस पर वन नहीं हैं। वनवासियों ने उस पर खेती की है, और वे उस पर अधिकार मांग रहे हैं। यह उचित तभी हो सकता है, जब ये वनवासी केवल अपने जीवन-निर्वाह के लिए उस पर खेती कर रहे हों।

अधिकांश संरक्षणवादी यह मानते हैं कि वन भूमि पर ऐसा अधिकार मांगने वाले वनवासी कब्जा करने वाले लोग हैं। इनका अनुमान सत्य भी हो सकता है, क्योंकि भूमि के स्वामी कुछ वनवासियों ने वन भूमि को नष्ट करके उसे बेच भी दिया है।

  • वर्तमान स्थिति बहुत पेचीदा हो गई है। अगर वनवासियों को उनका अधिकार नहीं दिया जाता, तो गलत होगा। सरकार को चाहिए कि वे इनके अधिकारों की रक्षा करे। साथ ही वनाधिकार अधिनियम का दुरूपयोग होने से रोके।
  • वनवासियों के सामुदायिक अधिकार सशक्त हैं। ओड़ीशा के नियामगिरी में वनवासी समुदाय ने जिस प्रकार वेदांता का विरोध किया है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि वन अभेद्य हैं। सरकार अगर वनवासियों को दूसरी जगह बसाना भी चाहे, तो यह उन्हें स्वीकार्य नहीं है।
  • जिस प्रकार से केवल ऋण माफी के द्वारा किसानों के जीवन को सुधारा नहीं जा सकता, उसी प्रकार वनवासियों को वनभूमि के टुकड़े देकर समृद्ध नहीं किया जा सकता। मुसीबत के समय किसान के लिए ऋण माफी डूबते को तिनके का सहारा वाला काम कर देती है। परन्तु वनवासियों के लिए तो वनभूमि ही एकमात्र सहारा है।

यह सत्य है कि वनभूमि, कृषि के लिए नहीं है। परन्तु इसके संरक्षण और सशक्तीकरण का राज वन के सामुदायिक प्रबंध में छिपा हुआ है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित जय मजूमदार के लेख पर आधारित। 24 अप्रैल, 2018

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