न्यायपालिका की अस्थिरता

Afeias
15 May 2018
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Date:15-05-18

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यह देश के लिए दुर्भाग्य की बात है कि हमारी उच्चतम न्यायिक संस्था ही आज राजनीतिक अखाड़ा बनी हुई है। उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश समेत अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश भी इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं ढूंढ पा रहे हैं। यही कारण है कि अनेक पार्टियों को इन्हें मोहरा बनाने का मौका मिल गया है।

2014 में भाजपा के सत्ता में आने के समय न्यायिक सुधार ही एक ऐसा मुद्दा था, जिस पर कांग्रेस और भाजपा एकमत थे। परन्तु आज दोनों दल इस मामले पर भी आमने-सामने खड़े हैं। इस युद्ध में कोई संस्थागत वाद-विवाद नहीं हो रहे हैं। इस परोक्ष युद्ध में सृजनात्मकता का कोई नामोनिशान नहीं है। स्थिति इतनी खराब है कि कांग्रेस ने मुख्य न्यायाधीश के विरूद्ध महाभियोग प्रस्ताव पेश कर दिया। यह अलग बात है कि राज्यसभा के उप सभापति ने इसे अस्वीकृत कर दिया।

कांग्रेस ने महाभियोग प्रस्ताव लगाते हुए सरकार पर आरोप लगाया था कि सरकार उच्चतम न्यायालय जैसी संस्थाओं के कामकाज को प्रभावित कर रही है। भाजपा के बढ़ते चुनावी ग्राफ का प्रभाव देश की महत्वपूर्ण संस्थाओं पर पड़ना सामान्य-सी बात है। संविधान के अनुसार निष्पक्षता पर चलने वाली संस्थाओं के द्वारा भी राजनीतिक शक्ति का परिलक्षित होना स्वाभाविक है। अतः यह प्रभाव और नियंत्रण के बीच संतुलन बनाकर चलने का तंत्र है।

सन् 1990 से 2000 तक बनी साझा सरकारों का प्रभाव न्यायिक संस्थाओं पर उतना नहीं पड़ पाया था। एक तरह से कोलजियन की शक्ति सर्वोच्च थी।

इसके साथ ही न्यायपालिका पर अतिसंधान करने का भी तर्क दिया जा सकता है। यही कारण है कि कुछ समय के लिए न्यायपालिका पर एक विधायी प्रतिक्रिया चलती रही थी। मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान ऐसा नहीं था। संस्थागत संतुलन को बनाए रखने का तर्क अब संस्था पर अपने प्रभाव का आधिपत्य बनाए रखने के संघर्ष में बदल गया है।

राजनीतिक सत्ता का न्यायपालिका में हस्तक्षेप क्यों बढ़ा?

आज न्यायपालिका अपने ही बनाए संकटों में ऊलझ गई है। प्रश्न यह है कि जब न्यायाधीश ही आपस में लड़ रहे हैं, तो न्याय के मंदिर कहे जाने वाले न्यायालयों में व्यवस्था कौन बनाए रखेगा?

कांग्रेस को यह लगने लगा है कि भाजपा से चुनावी जंग जीतने के लिए उसे संस्थाओं में ढील नहीं आने देनी होगी। अतः उसने भाजपा से चुनावी जंग जीतने के लिए उसे भाजपा विरोधी आवाजों के समर्थन की ठान ली है। यह आवाज भले ही काँग्रेस की समर्थक न हो, लेकिन उसके लिए इतना ही काफी होगा कि वह भाजपा की विरोधी हो। अपने इस खेल में कांग्रेस यह नहीं समझ पा रही है कि वह उन शक्तियों को मजबूती दे रही है, जो भाजपा और कांग्रेस जैसे राजनीतिक वटवृक्ष की छाया से बाहर आना चाह रहे हैं। जस्टिस लोया के मामले में ऐसा ही देखने में आया है।

रही बात चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों के मुख्य न्यायाधीश से विरोध की, तो ये चारों न्यायाधीश अक्टूबर के अंत तक सेवानिवृत्त हो जाएंगे। इस समय का फायदा उठाने में भी कांग्रेस नहीं चूकेगी।

भाजपा की दृष्टि से वह महाभियोग प्रस्ताव लाने को लेकर कांग्रेस पर न्यायपालिका की रीढ़ तोड़ने का आरोप लगा सकती है। या वह न्यायपालिका के चुनिंदा लोगों से इस संबंध में वार्ता कर सकती है।

2019 के आगामी चुनावों के मद्देनजर राजनीतिक दल और न्यायपालिका, दोनों ही बंटी हुई नजर आ रही हैं। ऐसा करके वे तबाही और अराजकता के निशान  ही पीछे छोड़ रहे हैं। इस प्रकार वे अपनी पुरानी सर्वसम्मति के टूटने की घोषणा कर रहे हैं।

‘द इकॉनॉमिक टाइम्स’ में प्रणव ढल सामंत के लेख पर आधारित। 23 अप्रैल, 2018

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