न्यायपालिका का अपारदर्शी कोलेजियम

Afeias
05 Feb 2018
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Date:05-02-18

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भारतीय न्याय व्यवस्था के इतिहास में पिछले दिनों जिस प्रकार से चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अपना असंतोष प्रकट किया, वह होना वांछनीय था। इसके लिए हमें भारतीय न्याय-व्यवस्था में लगभग 25-30 वर्षों से चली आ रही नियुक्ति-व्यवस्था पर एक नजर डालने की आवश्यकता है।

  • सन् 1992 में उच्चतम न्यायालय ने ऐसा महसूस किया कि न्यायाधीशों का चुनाव न्यायपालिका को ही स्वतंत्र रूप से करना चाहिए। इसकी जड़ कहीं न कहीं आपातकाल से जुड़ी हुई थी। उस दौरान मुख्य न्यायाधीश के चुनाव को लेकर सरकार ने घातक प्रयास किए थे, और तब कोलेजियम ने ही भारतीय न्याय व्यवस्था की रक्षा की थी। इस इतिहास को देखते हुए 1993 में मुख्य न्यायाधीश के साथ दो वरिष्ठ न्यायाधीशों को मिलाकर एक नए कोलेजियम की व्यवस्था की गई।
  • कोलेजियम की व्यवस्था से पूर्व भारतीय न्यायपालिका की नियुक्तियों में ब्रिटिश तंत्र के अनुसार ही सरकारी हस्तक्षेप बना रहता था।
  • कोलेजियम की व्यवस्था भी पारदर्शिता की कमी से जूझती चली आ रही है। इस पर लगातार भाई-भतीजावाद, पक्षपात एवं अहम् के टकराव के आक्षेप लगाए जाते रहे हैं। इस कारण कई मौकों पर प्रतिभाशाली उम्मीदवारों को उच्च और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति नहीं की जा सकी। लंबे समय से चले आ रहे इस संकट को एक दिन तो ऊजागर होना ही था।
  • हमारे देश जैसे ही कई प्रजातंत्रों ने इस प्रकार के संकट से बचने के लिए न्यायिक नियुक्तियों के तरीकों में बदलाव किए हैं। यहाँ तक कि जिस ब्रिटिश न्यायिक व्यवस्था का अनुकरण हम करते हैं, उसने भी 2005 में ज्यूडिशियल अपॉइन्टमेन्ट्स कमीशन (JAC) स्थापना करके इसे पारदर्शी बनाने का प्रयत्न किया है। इसमें न्यायाधीशों की संख्या बहुत कम है।
  • भारतीय संसद ने भी ब्रिटेन के पैटर्न पर राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को अधिनियमित किया था। फर्क यह है कि इस आयोग में न्यायाधीशों की संख्या 50 प्रतिशत रखी गई है। इसकी अध्यक्षता उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को सौंपी गई थी। अन्य सदस्यों के चुनाव में भी मुख्य न्यायाधीश की भूमिका के साथ, पूरे ताने-बाने में न्यायपालिका की प्रधानता को यथावत रखा गया था। इसके बावजूद 2015 में उच्चतम न्यायालय ने इस पूरी संरचना को सिरे से खारिज कर दिया। उच्च स्तरीय न्यायिक नियुक्तियों की प्रक्रिया में उच्चतम न्यायालय ने पारदर्शिता की कमी को कहीं स्वीकार नहीं किया।
  • उच्चतम न्यायालय ने एन जे ए सी को अस्वीकार करने के बाद मेमोरेन्डम ऑफ प्रोसीजर का समर्थन किया, जिससे कोलेजियम और सरकार दोनों ही संबंद्ध थे। परन्तु ऐसा कुछ भी संभव नहीं हुआ।

वर्तमान संकट न्यायपालिका के लिए एक ऐसा सबक है, जिसके चलते अधिकांश प्रजातंत्र नियुक्तियों के लिए सार्वजनिक प्रक्रिया रखते हैं। इस संकट को जड़ से समाप्त करने के लिए ऐसा करने पर विचार किया जाना चाहिए। उच्चतम न्यायालय को एन जे ए सी पर एक बार फिर से विचार करना चाहिए। अगर वह ऐसा नहीं करती है, तो संसद को कोई और रास्ता ढूंढ़ना होगा।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित वैजयंत जे पंडा के लेख पर आधारित।

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