एक प्रयास : अन्न-शक्ति

Afeias
21 Jan 2019
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Date:21-01-19

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भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर प्रतिवर्ष 1.6 लाख करोड़ की सब्सिडी दी जाती है। इसके बावजूद विश्व भूख सूचकांक के 119 देशों में भारत का 103वां स्थान है। 0-5 वर्ष तक के 21 प्रतिशत भारतीय बच्चे कुपोषित हैं।

राशन कार्ड धारकों को प्रतिमाह 2 रुपये की दर से 5 किलोग्राम गेहूं दिया जाता है। इस गेहूं का खरीद और भंडारण मूल्य मिलाकर 22 रुपये किलोग्राम पड़ता है। इसके बाद इसकी रोटी बनाने के लिए एक निर्धन को ईंधन के लिए मशक्कत करनी पड़ती है। वह मिल भी जाए, तो उसे बनाने में समय और शक्ति दोनों की ही बर्बादी होती है। दूसरे, अधिकांश गरीब परिवार इसे नकद के बदले बेच देते हैं, और अपनी मनचाही चीज खरीद लेते हैं।

अभी 5 किलोग्राम गेहूं देने में भारतीय खाद्य निगम को 100 रुपये की सब्सिडी दी जाती है। इस रुपये का उपयोग अगर सरकार उपभोक्ता के लिए ही करे, और इससे उसे बेहतर पोषण प्रदान करे, तो क्या वह अपेक्षाकृत उपयुक्त नहीं होगा?

सरकार एक ऐसी योजना शुरू कर सकती है। चाहे तो इस योजना को “अन्न-शक्ति” का नाम दिया जा सकता है। यह योजना कुछ इस प्रकार काम करेगी।

  • अन्न शक्ति योजना में प्रत्येक निर्धन परिवार को 10 रुपये प्रतिमाह में पांच किलो गेहूं या 10 अन्न शक्ति रोटी के 15 पैकेट दिए जा सकेंगे।
  • पैकेट की रोटियों को कुछ सप्ताह सुरक्षित रखा जा सकेगा। कोशिश की जाएगी कि कार्डधारकों को रोटियां दो किश्त में ले जाने के लिए तैयार किया जा सके।
  • इन रोटियों में गेहूं के साथ-साथ खनिज, विटामिन और सोया प्रोटीन जोड़ा जाएगा। इससे ये कुपोषण की समस्या को कुछ कम कर सकेगी।
  • इसकी समस्त निर्माण प्रक्रिया को विशेषज्ञों की देखरेख में तैयार किया जाएगा। क्षेत्र के हिसाब से इसमें बदलाव की गुंजाइश होगी। इसकी ऑटोमेटेड प्रोसेसिंग इकाई को भारतीय खाद्य के गोदामों के आसपास ही लगाया जाए। शुरुआत में रोटी का आकार चैकोर या चतुर्भुजाकार रखने से अधिकतम उत्पादन किया जा सकेगा। पैकिंग और माल ढुलाई में भी इससे आसानी होगी।
  • इस प्रकार की योजना से ईंधन की बचत होगी। पर्यावरण की रक्षा होगी। महिलाओं का समय बचेगा।
  • आपदा एवं अकाल के दौरान इसका वितरण वरदान सिद्ध हो सकता है। माओवादी क्षेत्रों में इसका निःशुल्क वितरण करके कल्याणकारी योजना की तरह इसे जोड़ा जा सकता है।

अन्न शक्ति के माध्यम से 5 वर्षों में भूख और कुपोषण को 20 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। समय के साथ योजना में नए प्रयोग करके और सुधार किए जा सकते हैं। यद्यपि इसकी लागत तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली की वर्तमान लागत जितनी ही होगी, परन्तु दीर्घकालीन लाभों की कोई गिनती नहीं होगी।

‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकाशित संजीव आगा के लेख पर आधारित। 18 दिसम्बर, 2018

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