स्थानों का नाम-परिवर्तन कितना सार्थक ?

Afeias
22 Jan 2019
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Date:22-01-19

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कुछ समय से नगरों के नाम परिवर्तन का दौर चला हुआ है। ऐसा करने के बाद भी पुराने नामों का प्रचलन चलता ही चला जा रहा है। उनके आधिकारिक प्रयोग को बंद करने के बाद भी लोग उन्हीं का प्रयोग करते हैं। उदाहरण के लिए इलाहाबाद के अमर शहीद चन्द्रशेखर आजाद पार्क चलने को कहें, तो रिक्शेवाला तुरन्त कहेगा, ‘‘कंपनी बाग?’’ इसी प्रकार दिल्ली में कनॉट सर्कस के बदले हुए नाम राजीव चैक का प्रयोग दिल्ली मेट्रो के अलावा कहीं और होता दिखाई नहीं देता।

इलाहाबाद और मुगलसराय के बदले नामों का भी यही भविष्य होने वाला है। हम सबके सामने नोएडा का उदाहरण पर्याप्त है कि कैसे लोगों की जुबान पर चढ़ने के बाद एक नाम की जगह दूसरे को स्थान मिलना कितना कठिन होता है।

जब पुरानी जगहों का नाम किसी व्यक्ति के नाम से बदला जाना होता है, तो सफलता की गुंजाइश और भी कम रह जाती है। जवाहरलाल नेहरू ने हरिसिंह गौर को सलाह दी थी कि वे विश्वविद्यालय के लिए शहर के नाम सागर का ही उपयोग करें अन्यथा जब वे अपने प्रिय नगर की रक्षा के लिए नहीं होंगे, तब यह जबलपुर को जा सकता है। काफी वर्षों बाद जब मध्यप्रदेश में व्यक्ति के नामों पर विश्वविद्यालयों के नाम रखे जाने लगे, तब इसका नाम बदलकर हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय रखा गया।

आखिर स्थानों के नए नाम रखे जाने के बाद भी पुराने नामों का अस्तित्व क्यों बना रहता है, और उनके आधिकारिक प्रयोग से हटने के बाद उनका क्या होता है? कई मामलों में, नाम बदलने के बाद भी पुराना नाम, साथ-साथ चलता रहता है। इलाहाबाद के संबंध में भी शायद यही होने वाला है। इसका नया नाम ‘प्रयाग’ कोई नया नहीं है। कई जगह इसका प्रयोग किया जाता रहा है। लेकिन ‘प्रयागराज’ जैसा नामकरण कुछ नया लग सकता था। भला हो भारतीय रेलवे का, जिसने इस नाम की ट्रेन चला रखी है। इसी बहाने यह लोगों की जुबान पर चढ़ा भले ही नही, परन्तु सुना-सुनाया अवश्य लगता है।

मुगलसराय के संदर्भ में स्थिति बिल्कुल भिन्न है। यह तो अति व्यस्त रेलवे जंक्शन है। यहाँ दिन-रात ट्रेनो की आवाजाही लगी रहती है। यहाँ से लोग ट्रेन बदलते हैं। इसका नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय रखे जाने का हश्र गुड़गांव और नोएडा जैसा ही होगा। परोक्ष रूप में तो यह नाम बदलने का व्यापार शक्ति का प्रदर्शन मात्र है। जब स्थानीय जनता पर शक्ति भारी पड़ती है, तो जनता मौन सामंजस्य और निष्क्रिय प्रतिरोध के साथ जीत दर्ज कर ही लेती है।

इलाहाबाद, फैजाबाद और मुगलसराय जैसे स्थानों के नाम बदलने के पीछे शक्ति प्रदर्शन की भावना ही काम कर रही है। यह विरासत के उस भाग को मिटाने का एक आवेग भी हो सकता है, जिसमें तिरस्कार और घृणा जैसी भावनाओं का संचय हुआ हो।

इस प्रकार की नाम बदलने की कोशिश, जिसमें भाषा और मूल्य निहित हैं, व्यर्थ ही लगती है। ‘‘भारत’’ का ही उदाहरण ले लीजिए। जब संविधान के हिन्दी संस्करण में इसे ‘‘हिन्दुस्तान’’ के स्थान पर लाया गया, तो यह चलने की उम्मीद नहीं थी। परन्तु यह चला। केवल समाचार-पत्रों के नाम में ही नहीं, बल्कि अन्य स्थानों पर भी चलता रहा। वार्षिक रूप से सम्पन्न होने वाली बीटींग रीट्रीट के बैंड में यह इक़बाल की रचना के माध्यम से हर वर्ष दोहराया जाता है।

इलाहाबाद के संबंध में भी ऐसा ही होने की उम्मीद है। भले ही आधिकारिक तौर पर इसे रेल्वे स्टेशन, पासपोर्ट व डिग्रियों से हटा दिया जाए, लेकिन यह जन-संवाद में चलता रहेगा। यह कवियों के कवित्व में भी जिंदा रहेगा। उसी प्रकार, जिस प्रकार निराला के एक काव्य में इलाहाबाद से संबंधित पंक्ति पढ़ने को मिलती है : देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित कृष्ण कुमार के लेख पर आधारित। 5 दिसम्बर, 2018

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