न्यूनता में विस्तार है

Afeias
18 Jan 2019
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Date:18-01-19

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शिक्षक शब्द की व्युत्पत्ति शिक्षा से हुई है, यानी ऐसा व्यक्ति जो शिक्षा देता है। दूसरे शब्दों में कहें, तो कोई ऐसा, जो मार्गदर्शन करता हो, शिक्षक कहलाता है। इसमें शिक्षक और विद्यार्थी या गुरू और शिष्य के बीच परस्पर संवाद होना चाहिए। सफल शिक्षण वही है, जिसमें व्यक्तिगत स्तर पर शिक्षा प्रदान की जाए। सफल शिक्षक वह है, जो शिष्य की क्षमता व ग्राह्यता के अनुकूल शिक्षा प्रदान करे। यही कारण है कि एक कक्षा की बात करते हुए हम शिष्य / गुरू अनुपात को कम रखने पर जोर देते हैं। यह अनुपात जितना कम होगा, विद्यार्थियों को व्यक्तिगत स्तर पर उतना ही लाभ मिल सकेगा। आदर्श रूप में तो, 1:10 का अनुपात होना चाहिए। परन्तु विद्यार्थियों की अधिकता और शिक्षकों की कमी के कारण ऐसा संभव नहीं हो पाता।

सामान्य रूप से अमीर देशों में शिष्य / शिक्षक अनुपात कम होता है। गरीब देशों में यह बहुत अधिक होता है। नियामकों की बारीकी में घुसे बिना ही हम यह मान बैठे हैं कि जैसे-जैसे कक्षा का स्तर बढ़ता जाएगा, यह अनुपात अपने आप ही कम होता जाएगा। इसलिए 30:1 या 35:1 के अनुपात से हमें कोई फर्क ही नहीं पड़ता। पी एच डी के स्तर पर आकर यह 1:1 बन पाता है। हम इस अनुपात के महत्व को तो समझते हैं, परन्तु अल्प संसाधनों के स्तर पर आकर हार मान जाते हैं। शुरुआती या निचली कक्षाओं की शिक्षा प्रार्थना की पंक्ति की तरह है। व्यक्तित्व संपर्क वाली शिक्षा को उच्च कक्षाओं के लिए छोड़ दिया गया है।

विद्यार्थियों के व्यक्तित्व को हम पाठ्यक्रम, शिक्षण एवं परीक्षा प्रणाली, सभी स्तर पर कुंठित करते हैं। शिक्षा की प्रारंभिक सीढ़ी पर तो यह चलन और भी बलवान है। यही कारण है कि वे दिन बीते हुए लगते हैं, जब विद्यार्थी ऐसे व्यक्तिपरक निबंध लिखते थे, जिनमें उत्तर और मूल्यांकन निहित होते थे। आज हमने ऐसे बहुविकल्पी वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछने शुरु कर दिए हैं, जिनका मूल्यांकन कम्प्यूटर भी कर सकते हैं। लेकिन विरोधाभास तब लगता है, जब शिक्षा के स्तर को घटाकर उपभोग की एक वस्तु तक सीमित कर दिया गया है। पहले स्नातक की डिग्री ही व्यक्तित्व के लिए गरिमामयी मानी जाती थी। धीरे-धीरे यह स्नातकोत्तर और पीएच डी पर पहुंचा, और अब विभिन्न प्रकाशनों की मांग से भी आगे बढ़कर यह प्रशंसा-पत्रों तक पहुँच गया है।

शिक्षकों को भी वस्तु माना जाने लगा है। सेवा और वस्तु के बीच में बहुत अंतर होता है। आज, जबकि तकनीक ने इस अंतर को धुंधला कर दिया है, फिर भी सेवा ऐसी होती है, जो उत्पादक और उपभोक्ता के बीच सीधे संबंध की मांग करती है। अतः तकनीक के माध्यम से दी गई शिक्षा को सेवा नहीं, वरन् वस्तु में गिना जा सकता है। तकनीक के प्रति बढ़ती ललक के बावजूद अच्छा शिक्षण या किसी भी प्रकार की सेवा, वास्तव में तो परस्पर संवादात्मक ही होनी चाहिए। 1:1 के अनुपात में कोई संदेह नहीं है। एक न्यूनतम सामान्य विभाजक को कई अंकों से गुण किया जा सकता है। लेकिन इससे अधिक के स्तर के गुणा-भाग को एक मानक पर निर्धारित नहीं किया जा सकता। शिक्षकों के संदर्भ में भी पॉवर प्वाइंट प्रेजेन्टेशन को सामान्य रूप से प्रयोग में लाया जाने लगा है। लेकिन यह आदान-प्रदान और एक शिक्षक की विशेषता की भरपाई नहीं कर सकता। दरअसल, पीपीटी के लिए शिक्षक की जरूरत ही नहीं होती। उसका होना, न होना बराबर है।

यह केवल शिक्षण की बात नहीं है। यह तो सेवा का बस एक उदाहरण ही है। अगर भारत की शक्ति सेवाओं में छिपी है, तो हमें अपनी इस विशेषता को बचाना और बढ़ना चाहिए। दुनिया की होड़ में फंसकर चालू मॉडल बनाने में इसे नष्ट नहीं करना चाहिए। ऐसा लगता है कि ‘मेक इन इंडिया’ या इंडिया ब्रैंड की वस्तुओं की सोच में हम न्यूनतम लागत वाले विनिर्माण की ओर झुक गए हैं। इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि कुछ उत्कृष्ट प्रस्तुत करके ही एक ब्रांड बनता है। तभी यह वस्तु से अपना अंतर बना पाता है। यह गुणवत्ता और दुर्लभ होने के गुण के कारण ही प्रीमियम बनता है। परंपरागत रूप से भी हमने सामान्य का उत्पादन नहीं किया है। संसार में ऐसी मलमल और कहीं नहीं है, जो अंगूठी से निकल जाए। गुणवत्ता का ध्यान रखते हुए हमें हमेशा पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं की चिंता नहीं करनी चाहिए। इसकी न्यूनता में भी विस्तार है।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित विवेक ओबेरॉय के लेख पर आधारित। 13 दिसम्बर, 2018

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