मनरेगा का विस्तार किया जाना चाहिए

Afeias
25 Jun 2019
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Date:25-06-19

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हाल ही में सम्पन्न हुए चुनावों के दौर में ग्रामीण संकट का निदान करने के लिए किसानों का ऋण माफ करने, नकद हस्तांतरण, न्यूनतम आय गारंटी जैसे अनेक वायदे किए गए, जिसमें मनरेगा के संशोधित स्वरूप का भी उल्लेख किया गया था। इसके अंतर्गत रोजगार के 100 दिनों को बढ़ाकर 150 दिन करने का आश्वासन दिया गया। इस योजना की शुरूआत के 15 वर्षों बाद भी इसे ग्रामीण परिवेश में तारणहार के रूप में देखा-समझा जाता है। इस संदर्भ में कुछ प्रश्न खड़े होते हैं। क्या विश्व की सबसे बड़ी कल्याणकारी योजना के रूप में यह अपनी सार्थकता निभा पाया है ?

इस प्रश्न का उत्तर देने से पहले यह जानना जरूरी है कि मनरेगा का प्रयोजन आखिर क्या रहा है ?

इसकी शुरूआत समाज के सबसे कमजोर वर्ग को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से की गई थी। अधिकांश लोगों को यह अपेक्षा थी कि इस कार्यक्रम से देश की गरीब जनता में से बहुतों को गरीबी रेखा से ऊपर लाया जा सकेगा। परन्तु ऐसा न हो सका। अपेक्षा की सीमा तक न सही, परन्तु महाराष्ट्र रोजगार गारंटी योजना जैसी योजनाओं का अग्रगामी बनकर मनरेगा ने अपनी सफलता के कुछ दस्तावेज तैयार कर दिए हैं।

1. इस कार्यक्रम की सबसे बड़ी सफलता यह है कि इसमें नकद हस्तांतरण जैसी अन्य राहत योजनाओं की तरह वंचित और कमजोर वर्ग की पहचान करने की आवश्यकता नहीं है। सबसे जरूरतमंद लोग स्वयं ही रोजगार प्राप्त करने के लिए अपना पंजीकरण कराते हैं। भले ही सभी पंजीकृत लोगों को रोजगार न मिल पाता हो, लेकिन  योजना में इसके कारण कहीं ढील नहीं आती।

2. मांग की तुलना में रोजगार की आपूर्ति न कर पाने के बावजूद मनरेगा की सफलता इस तथ्य में है कि इसने प्रारंभिक वर्षों में प्रतिव्यक्ति आय और व्यय में मामूली बढ़ोत्तरी की है।

वहीं हाशिए पर जीवन बिता रहे लोगों के जीवन-स्तर में बहुत परिवर्तन आए हैं। 2014 के एक अध्ययन केअनुसार 2008 के दौरान योजना से लाभान्वित आदिवासी और जनजातियों की प्रति व्यक्ति व्यय में 37 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इसका अर्थ है कि उनकी गरीबी का औसत आधा हो गया।

3. 2015 के मनरेगा पर किए गए अध्ययन से पता चलता है कि आंध्रप्रदेश के सबसे वंचित तबके ने मनरेगा के दम पर प्रति व्यक्ति भोजन व्यय को 9-10 प्रतिशत बढ़ाने में सफलता प्राप्त की।

यहाँ के अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग में भी थोड़े ही समय में पोषण का स्तर अच्छा हो गया। और यदि अधिक अवधि में देखें, तो उनकी गैर-वित्तीय सम्पत्ति में बढ़ोत्तरी हुई।

4. बिहार के अध्ययन में पाया गया कि 2009 में मनरेगा के कारण वहाँ गरीबी में एक प्रतिशत की कमी आई। अगर वहाँ के जरूरतमंद सभी लोगों को रोजगार मिला होता तो शायद गरीबी 8 प्रतिशत तक कम हो जाती।

5. गरीबों के जीवन-स्तर को ऊपर उठाने के अलावा भी मनरेगा ने कमजोर वर्ग की मदद की है। खराब मानसून के बाद रोजगार प्रदान करके मनरेगा ने कृषि संकट से जूझ रहे मजदूरों और किसानों को राहत पहुँचाई है।

ग्रामीणों के लिए चलाई जा रही अन्य योजनाओं की तुलना में यह बेहतर योजना सिद्ध हुई है।

ग्रामीण बेरोजगारी की स्थिति और सरकार की नीतियों को देखते हुए, इस योजना को किसी तरह भी खत्म नहीं किया जाना चाहिए। उल्टे सरकार को चाहिए कि इसके माध्यम से मिलने वाले रोजगार में वृद्धि करे।

‘द इंडियन एक्सप्रेस’ में प्रकाशित सोनार लला के लेख पर आधारित। 4 जून, 2019

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