न्याय व्यवस्था की सुस्त चाल से रोती अर्थव्यवस्था

Afeias
03 Jan 2020
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Date:03-01-20

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भारतीय न्याय व्यवस्था में मामलों को शीघ्रता से निपटाने का समय है। यह अर्थव्यवस्था में सुस्ती का एक बहुत बड़ा कारण है। जिन देशों में न्याय व्यवस्था सुदृढ़ है, उनकी आय भी सामान्यतः अधिक है। 2019 की एक रिपोर्ट के अनुसार कानून व्यवस्था में इंग्लैण्ड, सिंगापुर तथा अमेरिका की उच्च स्थिति की तुलना में भारत का रैंक 68वां है।

न्यायपालिका और अर्थव्यवस्था के आपसी संबंध को नकारा नहीं जा सकता। अगर सरकार न्यायपालिका पर खर्च करती है, तो न्याय शीघ्र मिलता है, और अर्थव्यवस्था को गति मिलती है। अतः इस खर्च का सकारात्मक प्रभाव ही अधिक है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार कानूनी विलंब के कारण भारत की विकास दर में 0.5 प्रतिशत की कमी आई है। आपराधिक मामलों के निपटारे में देरी के कारण आपराधिक गतिविधियां बढ़ने से जीडीपी में गिरावट आई है।

न्यायपालिका में सुधार करना असंभव नहीं है। अन्य देशों की स्थिति देखें, तो सिंगापुर में एक विवाद को निपटाने में औसत छह वर्ष का समय लगता है। 1990 में किए गए कुछ सुधारों के बाद, 1999 में यह अवधि घटकर एक वर्ष तीन माह रह गई। भारत की न्याय-व्यवस्था में भी कुछ सुधार करके इसे दुरुस्त किया जा सकता है।

  • 2019 की स्थिति देखें, तो न्यायपालिका में 37 प्रतिशत पद खाली थे। इसके अलावा इसका बजट भी घटा दिया गया है। सरकार को चाहिए कि रिक्त पदों को भरने के लिए न्यायपालिका पर खर्च बढ़ाए।
  • न्याय-व्यवस्था में कार्य-दिवसों की कमी है। एक अध्ययन के अनुसार सुप्रीम कोर्ट में वर्ष भर में मात्र 190 दिन काम होता है। गर्मी के दो महिने उच्चतम एवं उच्च न्यायालय बंद रहते हैं। न्यायपालिका के सभी स्तरों पर कार्य के दिवस बढ़ाए जाने चाहिए।
  • वकीलों और न्यायाधीशों में तालमेल की कमी है। वकीलों को प्रति सुनवाई फीस मिलती है। किसी मामले के लंबा खिंचने में कुछ लोगों के निहित स्वार्थ होते हैं। इस पद्धति को बदलने की जरूरत है।
  • न्यायालयों में तकनीक के प्रयोग को बढ़ाने की जरूरत है। दायर किए गए वाद की प्रतिलिपि ऑनलाइन उपलब्ध नहीं होती। इसके लिए सभी पेश कागजों को ऑन-लाइन उपलब्ध कराकर काम को आसान बनाया जा सकता है।
  • न्यायाधीशों की जवाबदेही के लिए व्यवस्था की जानी चाहिए। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के कानून में छह माह में निर्णय दिए जाने की व्यवस्था है, परन्तु इसमें चार साल तक लग जाते हैं। इस प्रकार के मामलों में जजों का मूल्यांकन कराया जाए, और जो समयबद्ध तरीके से कार्यवाही न कर रहे हों, उनकी पदोन्नति रोकी जाए अथवा उन्हें सेवा मुक्त किया जाए।

दैनिक जागरण में प्रकाशित डॉ० भरत झुनझुनवाला के लेख पर आधारित