न्याय-व्यवस्था में सुधार

Afeias
03 Oct 2016
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legal-hammer-symbol_318-64606Date: 03-10-16

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सितम्बर 2016 को भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति टी.एस.ठाकुर के इस कथन पर ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है कि भारत में जैसे-जैसे प्रतिव्यक्ति आय एवं समृद्धि बढ़ेगी, वैसे-वैसे न्यायालयों के ऊपर भी कार्य का दबाव बढ़ेगा। इस स्थिति से निपटने के लिए न्यायालयों एवं न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाये जाने की बात की जाती है। लेकिन फिलहाल न्यायाधीशों की नियुक्तियों में जो देरी की जा रही है, उससे लगता है कि इसमें काफी सुधार की आवश्यकता है।

अक्टूबर 2015 में संसद ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना की थी, जिसे न्यायालय ने निरस्त करके पुरानी कॉलेजियम प्रणाली को ही जारी रखा। उसी समय उच्चतम न्यायालय के सभी पाँच न्यायाधीशों को इस कॉलेजियम प्रणाली में भी खामी नजर आई थी। उनका मानना था कि इस प्रणाली में भी सुधार होना चाहिए, और इसे अधिक पारदर्शी तथा दायित्वपूर्ण बनाया जाना चाहिए। न्यायाधीश जे.चेलामेस्वर ने ‘एकाउन्टेबिलिटी’ को न्यायिक स्वतंत्रता का सर्वोत्तम गारंटी कहा।

फिलहाल देश की न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए निम्न तीन उपाय तत्काल किये जाने चाहिए।

  • ब्रिटेन और सिंगापुर में दायर मामलों के निपटारे के लिए एक समय सीमा निश्चित की गई है। भारत में ‘तारीख-पर-तारीख’ की पद्धति के कारण मामले लम्बे खिंचते चले जाते हैं। इस आदत को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
  • उच्च न्यायालयों को चाहिए कि वे छोटे-छोटे मामलों को याचिका के रूप में स्वीकार न करें। अमेरिका में अपील वाले केवल एक प्रतिशत मामले ही स्वीकार किये जाते हैं, जबकि भारत में यह प्रतिशत 41 है। क्या सर्वोच्च न्यायालय को जल-सेना के एक अधिकारी की पत्नी के गलत संबंध तथा केरल में कुत्तों से सबंधित जैसे मामलों को लेना चाहिए?
  • उच्च न्यायालय के लगभग 40 प्रतिशत पद (सितम्बर 2016) खाली हैं। न्यायालय को चाहिए कि वह कॉलेजियम प्रणाली के दोषों को तत्काल दूर करके इन पदों को भरे।

टाइम्स आफ इंडिया के सम्पादकीय पर आधारित

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