28-11-2019 (Important News Clippings)

Afeias
28 Nov 2019
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Date:28-11-19

A step forward

Transgender Bill is welcome but activists don’t like all of it

TOI Editorials

With the Rajya Sabha passing the Transgender Persons (Protection of Rights) Bill 2019, India is set to get its first law protecting the rights of the transgender community. The bill was passed by the Lok Sabha earlier in August, and its passage into law is certainly a big step forward. The legislation is ambiguous in that it ostensibly gives every transgender person the right to self-perceived identity, yet it also stipulates that a transgender individual must apply to the district magistrate for a certificate of identity indicating transgender status. In case the person undergoes surgery to change gender to male or female, then a revised certificate will have to be obtained later.

There are things to be said for and against the latter. It could be argued that it opens up transgender persons to intrusive scrutiny and robs them of agency. On the other hand, allowing transgender people to simply self-identify, as many on the left argue, can open up a can of worms too. In that case if those who are biologically male were to enter women’s sport events – or even women’s loos – simply through a self-declaration, there would be nothing in law to prevent them.

There is a genuine problem, however, with the bill prescribing mild fines and punishment such as imprisonment ranging from six months to two years for offences such as physical and sexual abuse. This is out of sync with existing penal provisions for rape and sexual violence. That said, it’s also true that not all problems can just be legislated away. At the heart of the issue here is social prejudice and trans-phobia. Unless this is addressed at a basic societal level, no law will be able to empower the marginalised and persecuted transgender community.


Date:28-11-19

A Separate Law on State Surveillance

The State’s right to snoop must be tempered

ET Editorials

Justice B N Srikrishna, who headed the committee that drafted the data protection law that has been with the government for over a year, reiterated a point he had made in the committee’s report, that India needs a separate law to regulate how the State conducts surveillance of citizens.This is vital, to operationalise the fundamental right to privacy that the Supreme Court ruled as being immanent in the fundamental rights that are individually spelt out in the Constitution.

Just as the right to free speech is not an unconditional right but is qualified, to ban incitement to violence, for example, the right to privacy also cannot be an absolute right. Criminals and suspected terrorists would need to be snooped on. This is the case in any country anywhere in the world. The question is how precisely this breach of individual privacy is conducted, in order to avoid misuse. At present, the State has virtually untrammelled access to just about anyone: electronic bugs turned up, reportedly, in the office of former finance minister Pranab Mukherjee.

The Niira Radia tapes made sensational headlines and endless debates on its contents, with scant attention paid to how private conversations came to be recorded and leaked. A senior civil servant has to determine that someone has to be put under surveillance, that is all. That determination is not held to scrutiny or account later. This must change.

The law must demand that any demand for breaching any individual’s privacy must first be placed before a court and surveillance must be carried out only with judicial sanction. The judicial officer can hear the case in camera but must list the evidence presented and the reasons for granting or denying the executive’s demand.

Thereafter, the acts of surveillance and their findings must be placed before a committee of Parliament, which should have the right to hold the agencies that carry out snooping to account. The US follows such a system. Such involvement of the judiciary and the legislature is necessary to temper the executive’s power to breach citizens’ privacy.


Date:28-11-19

कट्टरता मनुष्य की सोच में होती है किसी धर्म में नहीं

संपादकीय

राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद में जमीन के प्रमुख दावेदार सुन्नी वक्फ बोर्ड ने 6-1 के बहुमत से पुनर्विचार याचिका दायर न करने का फैसला किया है। मस्जिद बनाने लिए पांच एकड़ जमीन देने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर फिलहाल बोर्ड ने निर्णय नहीं लिया है। एक दिन पहले देश के सौ प्रतिष्ठित मुसलमानों ने एक खुली अपील जारी करते हुए कहा है कि सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर नहीं की जानी चाहिए।इस प्रयास के खिलाफ सार्वजानिक अपील करने वालों में नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी, जावेद अख्तर, पत्रकार जावेद आनंद और सामाजिक कार्यकर्ता मीठी बोरावाला आदि हैं। इनका कहना है कि हम भी आहत हैं कि फैसला देते हुए सबसे बड़ी अदालत ने धर्म को कानून से ऊपर रखा, लेकिन अगर फैसले के खिलाफ अपील नहीं की जाती है तो हम इससे हिंदुओं की सद्भावना हासिल कर सकेंगें जो देश में अमन-चैन का सबब बनेगा। लेखक जावेद आनंद का कहना था कि मुसलमान मंदिर-मस्जिद से दूर हटें, ताकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का इस्लाम के प्रति भय पैदा करने का षड्यंत्र सफल न हो सके।उधर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म संकाय के आधा दर्जन पूर्व प्रोफेसर्स ने राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से आग्रह किया है कि विवादास्पद फिरोज खान की नियुक्ति रद्द की जाए। विश्वविद्यालय के आंदोलनकारी छात्रों व पूर्व प्रोफेसरों का कहना है कि यह वैदिक धर्म पढ़ाने का संकाय है, लिहाज़ा कोई भी गैर-हिंदू इसमें नहीं पढ़ा सकता। जरा सोच पर गौर कीजिए। शिक्षा और ज्ञान के लिए राम ने लक्ष्मण को मरणासन्न असुर नरेश रावण के सिरहाने नहीं पैर की ओर खड़े रहने का आदेश दिया था।भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘हम भारत के लोग लिखा है न कि हम …अमुक धर्म के लोग’ और विश्वविद्यालय के किसी भी नियम में धर्म के आधार पर नियुक्ति की बात नहीं है। फिर यह कैसा दुराग्रह! अगर विरोध करना ही है तो संविधान में परिवर्तन के लिए करें, फिरोज खान का क्यों? भक्ति संप्रदाय और विशिष्ट-अद्वैत के प्रणेता रामानुजन नदी में नहाने के पहले अस्वस्थता के कारण एक ब्राह्मण शिष्य के कंधे पर हाथ रखते थे और नहाने के बाद एक शूद्र उरुन्विल्लिदास (धनुर्दास) के। नाराज भक्तों ने पूछा ‘प्रभु, आप ऐसा क्यों करते हैं’? जवाब मिला, ‘मैं घमंड का जो मैल पानी से भी नहीं धो सकता वह इसके बाद धुल जाता है’।


Date:28-11-19

चुनावी बॉण्ड : सत्ताधारी दल का ‘गुप्त’ धनबल

योगेंद्र यादव

अन्ना आंदोलन के दौरान एक मुहावरा बहुत प्रचलित हुआ था “पैसे से सत्ता, सत्ता से पैसा’। पिछले पखवाड़े पॉलिटिक्स और पैसे के इस पुराने संबंध को पुख्ता करने वाली एक नई स्कीम से पर्दा उठा है। इस अनोखी स्कीम का नाम है इलेक्टोरल यानी चुनावी बॉण्ड। इसकी योजना पहली बार 2016 में तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बनाई थी। अगले साल 2017 के बजट के साथ इसे कानूनी जामा पहना दिया गया और 2018 से यह योजना देश में लागू हो गई। अब तक लगभग 6,000 करोड़ रुपए चुनावी बॉण्ड के माध्यम से पार्टियों को मिल चुका है। खबर है कि इसमें से 95% पैसा सत्ताधारी दल बीजेपी को मिला है।इलेक्टोरल बॉण्ड की स्कीम यह है कि अगर आपको अपनी पसंदीदा पार्टी को चंदा देना है तो आप स्टेट बैंक जाइए, वहां बैंक खाते से भुगतान कर कितनी भी राशि का इलेक्टोरल बॉण्ड खरीद लीजिए। अब आपके हाथ में एक कूपन आ गया। जिस पर न कोई नंबर है, न तो आपका नाम लिखा है और न ही जिस पार्टी को दिया जाएगा उसका नाम लिखा है। अब आप जिस भी पार्टी को चाहें, वह कूपन थमा दीजिए। पार्टी अपने अकाउंट में कूपन को जमा करा देगी। आपको इनकम टैक्स से पूरी छूट मिलेगी, लेकिन यह नहीं बताना पड़ेगा कि पैसा किसे दिया।इसी तरह पार्टी अपने हिसाब में इस चंदे को दिखाएगी, लेकिन यह नहीं बताएगी कि चंदा किसने दिया। एक तरह से देखें तो यह व्यवस्था पूरी तरह से पारदर्शी है, पैसा बैंक अकाउंट से निकला और बैंक अकाउंट में ही गया, लेकिन इन दो छोर के बीच में यह व्यवस्था पूरी तरह गुप्त है। अगर आप चाहें तो यह कूपन खुद पार्टी को देने की बजाय किसी दोस्त, जानकार या दलाल को दे सकते हैं, चाहे तो सफेद धन से खरीदे बॉण्ड को प्रीमियम लेकर काले धन में बेच सकते हैं। बैंक से खरीदने के बाद और पार्टी में जमा करने तक यह बॉण्ड गिफ्ट वाउचर या हुंडी की तरह है, जिसका सही-गलत कुछ भी प्रयोग किया सकता है।

इसे लागू करते समय सरकार ने चुपचाप, राजनीतिक फंड के कानून से यह नियम हटा लिया कि कोई भी कंपनी अपने मुनाफे का 7.5% से अधिक राजनीतिक चंदा नहीं दे सकती। विदेशी कंपनियों की भारतीय सहयोगी पर राजनीतिक दलों को चंदा देने पर लगी पाबंदी को भी हटा दिया गया। यानी कि अब देसी या विदेशी, नामी या बेनामी कोई भी कंपनी किसी भी पार्टी को कितना भी चंदा दे सकती है।जब यह स्कीम प्रस्तावित की गई तो इसका खूब विरोध हुआ था। चुनाव सुधार के लिए निष्पक्ष रूप से काम करने वाली संस्था एडीआर यानी एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म ने आशंका व्यक्त की थी की इससे राजनीति में चंदे की बची-खुची पारदर्शिता भी खत्म हो जाएगी। लेकिन, वित्तमंत्री ने संसद में कहा कि नागरिक और कंपनियां राजनीति में पैसा देना चाहती हैं, लेकिन नाम सार्वजनिक होने से प्रताड़ना के डर से पैसा नहीं दे पातीं। उनके अनुरोध पर यह योजना लाई जा रही है।आरटीआई कार्यकर्ता कमाेडोर लोकेश बत्रा और अंजलि भारद्वाज ने दस्तावेजों से साबित किया है कि इलेक्टोरल बॉण्ड के बारे में व्यक्त की गई सभी आशंकाएं सच थीं। हफिंगटन पोस्ट पर किए खुलासे से पता लगा यह स्कीम जैसा सोचा था, उससे ज्यादा खतरनाक है। आरटीआई के जरिये प्राप्त दस्तावेजों से पता लगा है कि इस कानून को संसद में पेश करने के चार दिन पहले सरकार ने रिजर्व बैंक की सहमति मांगी।रिजर्व बैंक ने तुरंत योजना को खारिज कर दिया और कहा कि इस योजना से देश की बैंकिंग व्यवस्था की साख गिरेगी, हवाला और तमाम तरह की हेराफेरी की गुंजाइश बढ़ेगी। सरकार ने इस सलाह को इस आधार पर खारिज कर दिया कि अब तो बहुत देर हो चुकी है! चुनाव आयोग ने एक बार नहीं कई बार सरकार को इस स्कीम के विरुद्ध चेतावनी दी। लेकिन, जब सरकार से इस बाबत संसद में सवाल पूछा गया तो सरकार ने झूठ बोला कि आयोग से कोई आपत्ति नहीं मिली है। सरकार को यह भी मानना पड़ा कि उसे किसी व्यक्ति या संस्था की तरफ से इस तरह की स्कीम का अनुरोध नहीं मिला था।सरकार ने खुद चुनावी बॉण्ड का दुरुपयोग रोकने के लिए जो नियम बनाए थे, उनका खुला उल्लंघन किया है। नियम यह था कि चुनावी बॉण्ड साल में सिर्फ चार बार 10 दिन के लिए बिकेंगे। पहले ही साल में प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर इस नियम को तोड़ा गया। कर्नाटक चुनाव से पहले और फिर मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ चुनाव से पहले बॉण्ड की विशेष खरीद हुई। चुनावी बॉण्ड खरीदने के 15 दिन के अंदर किसी पार्टी के खाते में जमा करना अनिवार्य होगा। लेकिन, पहले ही साल में सरकार ने स्टेट बैंक को निर्देश दिया कि वह 15 दिन की अवधि बीतने के बाद भी बॉण्ड को पार्टी खाते में जमा करें।सबसे खतरनाक खुलासा हुआ है कि यह बॉण्ड गुप्त था ही नहीं। सरकार ने माना कि इलेक्टोरल बॉण्ड के हर कूपन पर गुप्त नंबर छपा हुआ रहता है, जिसे मशीन से ही पढ़ा जा सकता है। सरकार ने यह भी माना कि सीबीआई, सीवीसी और ईडी जैसी एजेंसियों को यह जानने का पूरा अधिकार है कि इलेक्टोरल बॉण्ड के माध्यम से किसने, किसे, कितना धन दिया। यानी कि यह सूचना आपसे-मुझसे गुप्त है, मीडिया से छिपी है, विपक्षी दलों को भी पता नहीं लगेगा, लेकिन सरकार और सत्ताधारी पार्टी की निगाह में सब कुछ होगा।

यानी कि इस सारी स्कीम के पीछे एक ही इरादा था- बीजेपी के लिए असीमित और गुप्त चुनावी फंड का इंतजाम करना। इसे लोकसभा चुनाव से पहले ही सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा चुकी थी। लेकिन, तब इस पर त्वरित सुनवाई की जरूरत महसूस नहीं की गई। अब यह मामला सुप्रीम कोर्ट के सामने आ रहा है। अगर अब भी सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज नहीं किया तो हमारे लोकतंत्र को गुप्त धनबल के हाथों बिकने से कोई रोक नहीं सकेगा।


Date:28-11-19

श्रम आय बढऩे पर ही तेज आर्थिक वृद्धि

वर्तमान समय में लोगों के लिए नहीं, पूंजी के मालिकों के लिए कल्याणकारी राज्य चल रहा है। सरकार श्रम आय बढ़ाने के बजाय कंपनियों को सौगात दे रही है।

नितिन देसाई

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत जुलाई में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार पांच लाख डॉलर करने के लक्ष्य पर सवाल उठाने वालों को पेशेवर निराशावादी बताते हुए खारिज कर दिया था। बजट से भी आर्थिक सुस्ती के बारे में बहुत अंदाजा नहीं मिला। लेकिन जब यह सुस्ती साफ नजर आने लगी तो नीति-निर्माताओं में घबराहट देखी जाने लगी और वे कॉर्पोरेट कर में कटौती जैसे प्रस्ताव लेकर सामने आ गए। उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि क्या इस कदम से फौरी नतीजे आ पाएंगे? वृद्धि बहाली के लिए सरकार की नीतियां विश्लेषण के बजाय झुकाव पर आधारित लगती हैं। घरेलू उपभोग में गिरावट जैसे असुविधाजनक आंकड़ों को दबाने और रोजगार रिपोर्ट की सटीकता स्वीकार करने से इनकार की भी कोशिश हुई हैं।

ऐसे परिवेश में एक वैकल्पिक योजना के लिए काट-छांटकर पेश किए गए सरकारी आंकड़ों पर यकीन करना मुश्किल है। लिहाजा इस लेख में काफी हद तक विश्वसनीय गैर-सरकारी आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है। इनमें बेहद समृद्ध एवं भरोसेमंद स्रोत कैपिटल, लेबर, एनर्जी, मैटेरियल्स ऐंड सर्विसेज (क्लेम्स) के आंकड़े भी शामिल हैं। क्लेम्स डेटाबेस भारतीय रिजर्व बैंक से प्रायोजित है और उन आंकड़ों को दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के शोधकर्ताओं की टीम तैयार करती है। पेशेवर स्वतंत्रता होने से क्लेम्स के आंकड़ों को भरोसेमंद माना जा सकता है। यह डेटाबेस सकल आउटपुट समेत कुल कारक उत्पादकता गणना, सकल मूल्य वद्र्धन (जीवीए), ऊर्जा, सामग्री एवं सेवाओं में मध्यवर्ती आगत, रोजगार, श्रम गुणवत्ता सूचकांक, श्रम आय और पूंजी आय के लिए तैयार किया गया है। अर्थव्यवस्था और उसके 27 अहम क्षेत्रों के आंकड़ों के आधार पर तैयार यह डेटाबेस क्षेत्र-आधारित आंकड़ों से पूरी तरह मेल खाते हैं। आर्थिक वृद्धि संबंधी गणनाओं के लिए मैं इसे अधिक विश्वसनीय स्रोत मानूंगा।

अब मैं केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (सीएसओ) की बैककास्टिंग (मनचाहा परिणाम हासिल करने के लिए अपनाई गई नीति एवं पद्धति) कवायद से निकले जीवीए वृद्धि दर अनुमान और क्लेम्स डेटाबेस के आंकड़े के बीच तुलनात्मक अध्ययन करूंगा। क्लेम्स के आंकड़े अधिक विश्वसनीय एवं सुसंगत हैं। इस तुलना से यह पता चलता है कि सीएसओ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) शासन के दौरान वृद्धि दर को कमतर आंकता रहा जबकि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार के दौरान उसके अनुमान अधिक ही रहे।

कंपनियों के पास अधिक पैसे होने से निवेश बढऩे एवं वृद्धि तेज होने को लेकर सरकार का विश्वास गलत है। कंपनियां उसी स्थिति में निवेश करती हैं जब उन्हें मांग बढऩे की संभावना दिखती है। लेकिन अब यह पूरी तरह साफ हो चुका है कि मांग वृद्धि सुस्त पड़ चुकी है। रथिन रॉय ने प्रभावी ढंग से दलील दी है कि इस सुस्ती की कुछ वजह संरचनात्मक है क्योंकि वाहनों एवं टिकाऊ उपभोक्ता उत्पादों के मामले में ‘एस’ आकार वाला वृद्धि वक्र अपने उच्च पथ से आगे निकलते हुए संतृप्त स्थिति में जा रहा है। दरअसल मध्यम-आय समूह में प्रवेश करने वाले उपभोक्ताओं की संख्या उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही है।

लेकिन इस लेख में प्रस्तुत तर्क संबद्ध होते हुए भी अलग हैं। मुझे लगता है कि वृद्धि के लिए प्रमुख मांग आय वितरण के निचले आधे हिस्से से ही आती है। रोजमर्रा के उत्पाद (एफएमसीजी) की वृद्धि पर नजर डालें तो वर्ष 2004 से लेकर 2010 तक के उत्कर्ष काल में इस क्षेत्र की वृद्धि दर उच्च रही, 2012 में उसमें तीव्र गिरावट आई, 2017 में हल्का सुधार देखा गया और उसके बाद से लगातार गिरावट का दौर चल रहा है। एफएमसीजी मांग मुख्य रूप से ग्रामीण उपभोक्ताओं और शहरी क्षेत्र के मजदूरी-आश्रित एवं वेतनभोगियों से आती है। ऐसे में सुस्ती का यही मतलब है कि उनकी आय के जरूरी दर से नहीं बढ़ी है। पहले ग्रामीण उपभोक्ताओं पर विचार करते हैं। कृषि क्षेत्र में कार्यरत पुरुष श्रमिकों की औसत वृद्धि दर 2007-08 और 2014-15 के दौरान 16 फीसदी थी। लेकिन 2015-16 और 2017-18 में यह गिरकर पांच फीसदी पर आ गई। किसानों के लिए कारोबार की स्थितियां 2004-2010 के दौरान 85 से बढ़कर 100 से ऊपर जा पहुंची थी। उसके बाद से वे गिरती चली गई हैं। पिछले साल ग्रामीण क्षेत्रों में देखी गई अत्यधिक अशांति शायद मौसम से संबंधित थी और इस साल हालात पलट सकते हैं। लेकिन मार्केटिंग सुधारों से जुड़ी गहरी समस्याएं, मसलन न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) एवं सार्वजनिक खाद्यान्न खरीद के ठीक होने में लंबा वक्त लगेगा।

शहरी क्षेत्रों में ज्यादा अहमियत रोजगार एवं मेहनताने में वृद्धि की है। वर्ष 2004-10 की अवधि के क्लेम्स आंकड़ों के मुताबिक, विनिर्माण क्षेत्र में रोजगार की वृद्धि दर 2.46 फीसदी थी और सेवा क्षेत्र में यह 2.8 फीसदी थी। वर्ष 2011 से 2017 के दौरान विनिर्माण में वृद्धि दर गिरकर 1.40 फीसदी और सेवा क्षेत्र में 2 फीसदी रह गई। जहां तक श्रम आय का सवाल है तो वहां पर समान पैटर्न नजर आता है। पहले दौर में उच्च वृद्धि थी लेकिन दूसरे दौर में यह नीचे आ गई। विनिर्माण रोजगार आय में भी वृद्धि दर 8.13 फीसदी से गिरकर 5.38 फीसदी पर आ गई। वहीं सेवा रोजगार आय में वृद्धि दर 7.18 फीसदी से घटकर 6.09 फीसदी रही।

नियतकालिक श्रम-शक्ति सर्वेक्षण (पीएलएफएस) 2017-18 पर सवाल उठाने की कोशिशों के बावजूद रोजगार वृद्धि की सुस्ती को ठीक से समझा गया है। औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में वृद्धि की दर 2010-11 के बाद धीमी हो गई। श्रम-बहुल उद्योगों में औद्योगिक उत्पादन 2004-10 के छह वर्षों में 5.7 फीसदी से बड़ी गिरावट के साथ 2011 के बाद के छह वर्षों में महज 0.1 फीसदी पर आ गया। पूंजी की अधिकता वाले क्षेत्रों में भी औद्योगिक उत्पादन 10.6 फीसदी से गिरकर 4.60 फीसदी पर आ गया।

पाठकों के समक्ष ये सारे आंकड़े पेश करने का मकसद यह बताना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रमुख समस्या श्रम आय की अपर्याप्तता है। विनिर्माण मूल्य-वद्र्धित में श्रम आय की हिस्सेदारी 1060 के दशक के मध्य से ही नीचे जा रही है और 1990-91 के बाद से तो इसमें काफी तेजी आई है। अब यह 30 फीसदी पर है। सेवा क्षेत्र में यह हिस्सेदारी 52 फीसदी है। श्रम नीति के केंद्र में सिर्फ यही रह गया है कि कामगारों को मिली सुरक्षा में कटौती हो और ऐसे कदम उठाए जाएं जिनसे पूंजी के मालिकों को काम पर रखने एवं हटाने में आसानी हो। इसके साक्ष्य बहुत कम हैं कि कंपनियों को कागजी प्रावधानों के चलते अपने श्रमशक्ति में कटौती के लिए मजबूर होना पड़ा हो। हम भूल जाते हैं कि नियमित मजदूरी-आश्रित एवं वेतनभोगियों में से 71 फीसदी के पास कोई लिखित अनुबंध नहीं है और नियमित रोजगार की जगह अस्थायी एवं अनुबंधित श्रम ले रहा है।

वास्तविकता यह है कि अपने लोगों के लिए एक कल्याणकारी राज्य चलाने के बजाय हम पूंजी के मालिकों के लिए कल्याणकारी राज्य चला रहे हैं और उन्हें गलत फैसलों से बचा रहे हैं। मसलन, कॉर्पोरेट कर कटौती से सरकार को राजस्व में एक लाख करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान होगा लेकिन इस उम्मीद में यह कदम उठाया गया है कि इससे निवेश एवं वृद्धि को मजबूती मिलेगी। उस राजस्व क्षति की भरपाई के लिए सरकार अपने सबसे लाभपरक उपक्रमों को बेचने की योजना बना रही है। अगर कंपनी जगत और शेयर बाजार के अटकलबाजों को दी गई बड़ी सौगात का इस्तेमाल देश में न्यूनतम आय का कानून लागू करने और मनरेगा के तहत अधिक रोजगार देने में किया गया रहता तो हमें अब तक उसका नतीजा देखने को मिल जाता। निवेश बुनियादी रूप से मांग वृद्धि की अपेक्षाओं से प्रेरित होता है। मौजूदा संदर्भ में ऐसा करने का सबसे भरोसेमंद तरीका श्रम आय को बढ़ाना है।


Date:27-11-19

Constitution day

India’s rulers must not be allowed to circumvent its constitutional order

Editorial

After slinking in by the dead of night as Chief Minister of Maharashtra, Devendra Fadnavis quit three days later on Tuesday, unable to withstand the test by the light of day. He claimed the moral high ground as he resigned ahead of imminent ouster in a floor test in the State Assembly. The BJP’s brazen usurpation of power left a trail of vandalised norms and precedents, and will continue to rankle, but the fact that it was not allowed to stand is a tribute to India’s constitutional order, despite its inadequacies. The Supreme Court acted with the deserving urgency, to “protect democratic values” as it said. It laid down the rules and timelines; ring-fenced the floor test and pre-empted manipulation. It observed that when “there is a possibility of horse trading, it becomes incumbent upon the Court to act”. There is no grace in Mr. Fadnavis’s exit; only relief that the nation has been spared more ugly spectacles. The Shiv Sena-Nationalist Congress Party-Congress alliance will now test its majority after forming the government. NCP leader Ajit Pawar’s dramatic return to the fold after a scandalous short-lived dalliance with the BJP probably will never be satisfactorily explained.

The top court’s order is interim and substantive questions thrown up by the series of events leading up to the swearing-in of Mr. Fadnavis will be adjudicated later. The tactics the BJP employed to seize power in the State were breathtaking in their insolence, though not entirely unprecedented. The Governor used his discretion in a blatantly partisan manner to foist a government based on dubious claims of numbers, while denying the opportunity to the coalition. The Centre, scripting and acting out the drama, rushed through the procedure to withdraw President’s rule — all done in a cloak-and-dagger manner. The Governor is constitutionally authorised to appoint a Chief Minister. The assumed limits of this authority are being breached with alarming frequency and extent by partisan Governors, acting merely as tools in political schemes. Given this context, there is a need to define in clearer terms the boundaries of the Governor’s use of discretion in inviting a party to form a government. President Ram Nath Kovind’s call for constitutional morality among all organs of the state and persons holding constitutional posts, during Constitution Day celebrations in Parliament on Tuesday, was appropriate. It was also ironic, as it followed the court’s order which called into question the propriety and intention of the Centre and the Governor. Constitutional morality was violated by those entrusted to guard it. The BJP’s nocturnal capture of power in Maharashtra was a dispiriting episode in Indian democracy. The court order and the subsequent resignation of Mr. Fadnavis offer hope that India’s constitutional order will force its caretakers to behave.


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