09-07-2019 (Important News Clippings)

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09 Jul 2019
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Date:09-07-19

Welcome Initiative on Rental Housing

Urbanising India needs it over ownership

ET Editorials

The Budget announcement to unveil reforms to promote rental housing is welcome. Rental housing is of paramount importance in rapidly urbanising India. Millions of migrants will keep moving to towns from the hinterland to seek better opportunities. So, India needs to build new towns to house these migrant hordes — else, our cities will be swamped into slums — and the new towns stocked with rental housing. Buying and owning a home in the town is not a viable option for poor migrants, especially if they already own a home back in the village. The need is to boost housing stock to a level where people do not have to spend a large slice of their income on rent. And to have sensible rent laws that foster a market for rented accommodation, rather than hoarding of empty houses by owners fearful of losing possession of their investment to permanent tenants.

One way is public housing. As the construction sector is hugely employment intensive, it should have multiplier effects economy-wide, and boost cement, steel, construction and construction equipment manufacture. Public housing shelters 80% of Singapore’s population. Singapore has also been able to keep a tight lid on prices. But that is not the case in Hong Kong where public housing accounts for about 21% of the total home ownership. Building vertically will bring down the costs in India and accommodate more people. Also, governments in cities such as Delhi that are capable of housing denser populations must lift restrictive floor area ratios and encourage vertical urbanisation. The rules to alter land-use norms should be eased to make it simpler to convert rural land into urban land and do away with the artificial rationing of land.

Modernising the rental market is a must. Rightly, the government has acknowledged that the current rental laws are archaic as they do not address the relationship between the lessor and the lessee realistically and fairly. Irrational provisions in the rental laws that have led to a wide gap between urban housing demand and supply must be scrapped.


Date:09-07-19

आर्थिक वृद्धि में तेजी के लिए रणनीतिक कदम

नितिन देसाई

आर्थिक समीक्षा और बजट भाषण दोनों में आर्थिक वृद्धि दर को मौजूदा 6-7 फीसदी दायरे से आगे ले जाने की जरूरत पर बल दिया गया है। अगले पांच वर्षों में अर्थव्यवस्था का आकार 5 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य अब साफ तौर पर आर्थिक नीति के केंद्र में है। लेकिन इस लक्ष्य के लिए जरूरी 10-11 फीसदी वृद्धि दर विनिर्मित उत्पादों के उत्पादन एवं विनिमेय सेवाओं में खास तेजी लाए बगैर संभव नहीं है। इसके साथ ही ढांचागत क्षेत्र, पूंजी बाजार और श्रम गतिशीलता में भी जबरदस्त सुधार लाने की जरूरत होगी।

वृहद स्तर पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में विनिर्माण की हिस्सेदारी करीब चार दशकों से 17 फीसदी के आसपास टिकी हुई है। सूचना प्रौद्योगिकी और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में विनिमेय सेवाओं की हिस्सेदारी बढ़ी है। कुल मिलाकर तैयार उत्पाद बनाने वाले उद्योगों का हिस्सा बुनियादी सामग्री के बरक्स बढ़ा है। विनिर्माण उद्योगों में वृद्धि तेज हो सकती है अगर मांग में वृद्धि होती है। घरेलू उपभोग की मांग आर्थिक वृद्धि का वाहक नहीं हो सकता है क्योंकि इसके त्वरित वृद्धि का कारण होने के बजाय उसका नतीजा होने की अधिक संभावना है। इस साल के बजट में नए सिरे से समर्थित आयात प्रतिस्थापन की पुरानी नीति की सीमित संभावना है और वैश्विक प्रतिस्पद्र्धात्मकता की मंशा पर चोट करता है। हालांकि हमारी बड़ी जरूरतों को देखते हुए रक्षा या मेट्रो रेल जैसी ढांचागत परियोजनाओं या सार्वजनिक सेवा के डिजिटल नेटवर्क के लिए उन्नत उपकरणों की सार्वजनिक खरीद कुछ परिष्कृत इंजीनियरिंग उद्योगों में वृद्धि को रफ्तार दे सकती है, अगर खरीद का फैसला करने वालों का लंबी अवधि का नजरिया हो। हालांकि अर्थव्यवस्था पर इसका व्यापक प्रभाव कम होगा और बाहरी मांग में व्यापक तेजी विनिर्माण निर्यात एवं विनिमेय सेवाओं की वृद्धि का नतीजा होनी चाहिए।

आर्थिक समीक्षा तीव्र वृद्धि को लेकर चीन के रिकॉर्ड का जिक्र करती है जिसमें विनिर्माण क्षेत्र की निर्यात-केंद्रित वृद्धि ने अहम योगदान दिया था। वृद्धि रणनीति को लेकर चीन और कुछ पूर्व-एशियाई देशों के दृष्टिकोण को निर्यात-केंद्रित बैकवर्ड इंटिग्रेशन के रूप में परिभाषित किया जाता है। मूल कंपनी के सक्रिय प्रवर्तन में संचालित हो रही घरेलू कंपनियों ने आयातित तकनीक, उपकरणों एवं माल के सहारे उच्च वृद्धि वाले निर्यात-योग्य उत्पाद बनाने से लेकर उत्पादन में इस्तेमाल होने वाले इनपुट उत्पादों के विनिर्माण की भी क्षमता हासिल कर ली। तकनीकी विकास का स्वदेशीकरण मुख्य रूप से मूल कंपनियों के रास्ता दिखाने से ही संभव हो पाया।

भारत में ऐसा नहीं हुआ है। मसलन, हमारे दवा उद्योग का निर्यात काफी तेजी से बढ़ा है। लेकिन यह अब भी काफी हद तक चीन से आयात किए जाने वाले रसायनों पर ही आश्रित है। हालिया उदाहरण स्मार्टफोन उद्योग का है जो भारत में असेंबलिंग गतिविधि भर ही है। निर्यात के मोर्चे पर सफल एक और क्षेत्र सॉफ्टवेयर सेवा है। लेकिन इसमें आंशिक बैकवर्ड इंटिग्रेशन ही हुआ है और कृत्रिम मेधा एवं मशीन लर्निंग जैसे अग्रिम क्षेत्रों में तो बहुत कम हुआ है।

भारत पूर्व एशियाई देशों का उदाहरण अपना सकता था और उसने ऑटो क्षेत्र में यह किया भी था लेकिन वह बढ़ती घरेलू मांग का नतीजा था निर्यात का नहीं। जब 1980 के शुरुआती दशक में मारुति आई तो उसने सुनिश्चित खरीद, वित्त एवं तकनीकी मदद के व्यवस्थित तरीके से कल-पुर्जा उत्पादन को बढ़ावा दिया था। आज भारत में वैश्विक रूप से प्रतिस्पद्र्धी ऑटोमोबाइल एवं उपकरण उद्योग हैं जो एक महत्त्वपूर्ण वैश्विक खिलाड़ी के तौर पर उभरा है।

हम इस नजीर को दोहराने के लिए क्या कदम उठा सकते हैं? बैकवर्ड इंटिग्रेशन के लिए प्रोत्साहन देने वाली निर्यात-केंद्रित रणनीति एक नवजात उद्योग रणनीति से खासी अलग है क्योंकि इसमें सक्षमता एवं लागत कटौती के लिए अंतर्जात दबाव होता है।

निर्यात-केंद्रित रणनीति इन चार बातों की प्रचुरता पर निर्भर करती है। गैर-विनिमेय इनपुट खासकर ढांचागत सेवाओं की सक्षम आपूर्ति, जरूरी कौशल रखने वाले श्रमिकों की उपलब्धता, खरीद क्षमता अनुरूपता एवं उत्पादकता में परिवर्तन के अनुरूप विनिमय दर और तकनीकी गतिशीलता की प्रचुरता मायने रखती है।

बिजली, परिवहन और संचार जैसे बुनियादी ढांचे की उपलब्धता आज के समय में विनिर्माण निवेश के लिए बड़ी समस्या नहीं रह गई है। असली समस्या कारोबार सहूलियत और व्यापार नीति-निर्माण, मंजूरियां, सीमा नियंत्रण और कर प्रशासन के प्रशासनिक ढांचे से है। उदाहरण के तौर पर जीएसटी रिफंड में निर्यातकों को आ रही दिक्कतों को देख सकते हैं।

जरूरी कौशल रखने वाले श्रमिकों की उपलब्धता अहम है लेकिन यह निर्यात अवसरों का फायदा उठाने की पूर्व-शर्त नहीं है। जब मौके आते हैं तो रोजगार की तलाश करने वाले लोग अपने पैसे लगाकर संबंधित कौशल हासिल कर लेते हैं। कॉल सेंटर और सॉफ्टवेयर कोडिंग के क्षेत्र में निर्यात संभावनाएं बढऩे के समय हम ऐसा देख चुके हैं। नौकरी के दौरान प्रशिक्षण देने पर अपेक्षाकृत कम लागत आती है और इससे यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि कौशल की कमी निर्यात वृद्धि में अवरोधक न बने। हालांकि शिक्षा एवं प्रशिक्षण का एक बुनियादी स्तर होना जरूरी है और वह तैयार भी किया जा चुका है। फिर भी हमारी शिक्षा एवं प्रशिक्षण व्यवस्था में प्राइमरी स्कूलों से लेकर उच्च शिक्षा तक गुणवत्तापरक सुधार लाने की जरूरत है।

विनिमय दर प्रबंधन भी महत्त्वपूर्ण है। वर्ष 2002-03 और 2011-12 के बीच भारत का गैर-तेल निर्यात पांच गुना बढ़कर 50 अरब डॉलर से 250 अरब डॉलर हो गया। उसके बाद से गैर-तेल निर्यात का डॉलर मूल्य कम होता गया है। निर्यात-संवद्र्धित वास्तविक विनिमय दर उच्च वृद्धि के दौरान 2004-05 के स्तर पर कमोबेश स्थिर थी। लेकिन उसके बाद से वास्तविक विनिमय दर बढऩे से निर्यात कम प्रतिस्पद्र्धी हो गया है और धीमे विकास के लिए यह भी आंशिक रूप से जिम्मेदार होना चाहिए।

ये तीनों कारक मध्यम अवधि के लिए अहम हैं लेकिन दीर्घावधि में विनिर्माता एवं कारोबारी सेवाओं के निर्यात के लिए कंपनी एवं देश के स्तर पर तकनीकी क्षमता रखना सबसे ज्यादा मायने रखता है। तकनीकी गतिशीलता उत्पादकता बढ़ाने वाले कारक या ऊर्जा और माल उत्पादकता में सुधार से कहीं अधिक है। इसमें शूम्पीटर के आर्थिक सिद्धांत का वह पहलू भी शामिल हो जो नए उत्पादों, प्रक्रियाओं, व्यवसाय प्रवृतियों के रूप में लागू नवाचारों की दर और नए बाजारों के विकास की दर का जिक्र करता है।

बाह्य बाजार-उन्मुख विकास रणनीति तकनीकी गतिशीलता पर दोनों तरह से दबाव डालती है। कीमत को प्रतिस्पद्र्धी बनाए रखने की जरूरत के चलते संसाधन सक्षमता में सुधार और विकसित होते वैश्विक बाजारों में प्रासंगिक बने रहने के लिए नए उत्पादों एवं प्रक्रिया के नवाचारी विकास के लिए तकनीकी गतिशीलता। कमतर विनिमय दर से मदद मिल सकती है और अधिमूल्य वाली विनिमय दर कीमत प्रतिस्पद्र्धा को चोट पहुंचा सकती है। लेकिन एक वैश्विक बाजार में प्रवेश और वहां टिके रहने के लिए दोनों ही संभावनाएं बेहद कम गुणवत्ता मानकों और नवाचार के जरिये इनमें किए जाने वाले बदलावों पर निर्भर करेगा।

निर्यात-केंद्रित बैकवर्ड इंटिग्रेशन रणनीति की राह में सबसे बड़ी बाधा नीति बनाने का वह तरीका है जिसमें नए सिरे से डिजाइन साधनों के बजाय बड़े लक्ष्यों पर जोर दिया जाता है। आर्थिक वृद्धि की कारगर नीतियां साध्य के बजाय साधनों पर अधिक बल देती हैं।


Date:09-07-19

शून्य लागत खेती पर कई सवाल

संजीव मुखर्जी

सुभाष पालेकर और उनकी ‘शून्य लागत प्राकृतिक कृषि’ एक बार फिर सुर्खियों में है। पहले 2018-19 की आर्थिक समीक्षा में इसे छोटे किसानों के लिए आजीविका का एक आकर्षक विकल्प बताया गया। इसके अगले दिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शुक्रवार को अपने बजट भाषण कहा कि यह कृषि पद्धति नवोन्मेषी है, जिसके जरिये वर्ष 2022 तक किसानों की आय दोगुनी की जा सकती है। शून्य लागत प्राकृतिक कृषि करीब 10 वर्षों से विभिन्न तरीकों से की जा रही है।

अध्ययनों से पता चलता है कि जापानी वैज्ञानिक और दार्शनिक मासानोबू फुकुओका ने सबसे पहले प्राकृतिक कृषि को लोकप्रिय बनाया। उन्होंने सबसे पहले इस कृषि मॉडल का परीक्षण सिकोकू में अपने पैतृक खेत में किया। प्राकृतिक कृषि ऑर्गेनिक खेती से अलग है, लेकिन कई बार गलती से इन्हें एक मान लिया जाता है। भारत में प्राकृतिक कृषि का चलन पुराने समय से है, लेकिन शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को देश भर में लोकप्रिय बनाने का श्रेय सुभाष पालेकर को जाता है। शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को उस समय बड़ा प्रोत्साहन मिला, जब आंध्र प्रदेश सरकार ने 2015 में इस कृषि पद्धति को किसानों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए एक गैर-लाभकारी संगठन शुरू किया। इस गैर-लाभकारी संगठन का नाम रैयत साधिकरा संस्था (आरवाईएसएस) है, जिसे अजीम प्रेमजी फिलनथ्रॉपिक इनिशिएटिव (एपीपीआई) और आंध्र प्रदेश सरकार वित्तीय मदद मुहैया करा रहे हैं। इस संगठन ने करीब 1,38,000 किसानों तक शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को पहुंचाया है और महज दो वर्ष की अवधि में 1.5 लाख हेक्टेयर भूमि में इस कृषि मॉडल को अपनाया जाने लगा है।

इसके बाद इस कृषि पद्धति का देश के अन्य हिस्सों में प्रसार हुआ है, जिसके लिए पालेकर और उनकी टीम ने प्रयास किए हैं। वर्ष 2018-19 की आर्थिक समीक्षा के मुताबिक कर्नाटक और हिमाचल प्रदेश उन अन्य राज्यों में शामिल हैं, जहां यह कृषि पद्धति लोकप्रिय बन रही है। आर्थिक समीक्षा के मुताबिक अभी केंद्र की राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत 704 गांवों के 131 संकुलों और परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत 268 गांवों के 1,300 संकुलों में शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को अपनाया जा रहा है। इस कृषि मॉडल को करीब 1,63,034 किसान अपना रहे हैं। अधिकारियों ने कहा कि हिमाचल प्रदेश में करीब 4,000 किसान इस कृषि प्रणाली को अपना रहे हैं। यह राज्य वर्ष 2022 तक पूर्णतया शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को अपनाने वाला पहला राज्य बनने की योजना बना रहा है। ऐसे में सवाल पैदा होता है कि असल में शून्य लागत प्राकृतिक कृषि क्या है और इस कृषि का तरीका क्या है।

ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद (सीईईडब्ल्यू) की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक पालेकर की शून्य लागत प्राकृतिक कृषि के चार घटक हैं। यह रिपोर्ट सौरभ त्रिपाठी, श्रुति नागभूषण और तौसिफ शाहिदी ने तैयार की है। इन चार घटकों में पहला ‘बीजामृत’ है, जिसमें गोबर एवं गौमूत्र के घोल का बीजों पर लेप किया जाता है। दूसरा घटक ‘जीवामृत’ है, जिसमें भूमि पर गोबर, गौमूत्र, गुड़, दलहन के चूरे, पानी और मिट्टी के घोल का छिड़काव किया जाता है ताकि मृदा जीवाणुओं में बढ़ोतरी की जा सके। तीसरा घटक ‘आच्छादन’ है, जिसमें मिट्टी की सतह पर जैव सामग्री की परत बनाई जाती है ताकि जल के वाष्पीकरण को रोका जा सके और मिट्टी में ह्यूमस का निर्माण हो सके। चौथा घटक ‘वाफसा’ है, जिसमें मिट्टी में हवा एवं वाष्प के कणों का समान मात्रा में निर्माण करना है।

शून्य लागत प्राकृतिक कृषि में कीटों के नियंत्रण के लिए गोबर, गौमूत्र, बकाइन और हरी मिर्च से बने विभिन्न घोलों का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे ‘क्षयम’ कहा जाता है। क्या असल में शून्य लागत प्राकृतिक कृषि किसानों के लिए लाभप्रद है। सीईईडब्ल्यू अध्ययन 2016 और 2017 के बीच किया। यह आंध्र प्रदेश के 13 जिलों में फसल कटाई के अनुभवों पर आधारित था, जहां राज्य सरकार के रैयत साधिकरा संस्था के तहत शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को अपनाया जा रहा है। इस अध्ययन में पाया गया कि इस तकनीक का इस्तेमाल करने वाले किसानों की लागत में भारी कमी आई और उनके उत्पादन में सुधार हुआ। साफ तौर पर पालेकर और उनकी तकनीक के कुछ कद्रदान हैं। लेकिन भारत की कृषि अर्थव्यवस्था के पैमाने और आकार को देखते हुए क्या यह तकनीक देश भर में फैल सकती है और सभी भौगोलिक क्षेत्रों में एकसमान नतीजे दे सकती है? यह एक बड़ा सवाल है।

देश के विभिन्न कृषि जलवायु जोनों में किसानों के लिए इस कृषि पद्धति की व्यावहारिकता को समझने के लिए सरकारी भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), विभिन्न विश्वविद्यालयों समेत विभिन्न स्तरों पर खेतों में अध्ययन किए जा रहे हैं, लेकिन अभी तक कोई भी अध्ययन किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा है।

हिमाचल प्रदेश स्थित सरकारी विश्वविद्यालय वाई एस परमार यूनिवर्सिटी ऑफ हॉर्टिकल्चर ऐंड फॉरेस्ट्री के मुख्य वैज्ञानिक राजेश्वर सिंह चंदेल ने कहा, ‘इस समय देश में टमाटर उत्पादक किसानों के लिए सबसे बड़ी चुनौती एक कीट है, जिसे ‘टूटा एब्सोल्यूटा’ कहा जाता है। यह कीट देश में 2015 में आया था और यह जल्द ही सभी खेतों को साफ कर सकता है। हमारे अध्ययनों ने दिखाया है कि जिन खेतों में शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को अपनाया गया है, उनमें इस खतरनाक कीट का प्रकोप महज 5 फीसदी है। इसका प्रकोप ऑर्गेनिक खेतों में 60 फीसदी है। रासायनिक कीटनाशकों के इस्तेमाल वाले खेतों में कीट का प्रकोप 20 फीसदी है, जबकि उनमें चार बार नुकसानदेह कीटनाशकों का इस्तेमाल किया गया है।’ चंदेल ने कहा कि अगले दो वर्षों में खेतों में अध्ययन पर आधारित उचित दस्तावेजी सबूत होंगे, जो शून्य लागत प्राकृतिक कृषि के किसानों के खेतों, उनकी आय और उत्पादन पर असर को बताएंगे। लेकिन ऐसा लगता है कि हर कोई इससे सहमत नहीं है। इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट रिसर्च (आईजीआईडीआर) के निदेशक और प्रख्यात अर्थशास्त्री महेंद्र देव ने कहा कि शून्य लागत प्राकृतिक कृषि को बड़े पैमाने पर अपनाना मुश्किल होगा। देव ने कहा, ‘यह किसानों की आय दोगुनी करने के मॉडलों में से एक हो सकता है, लेकिन यह एकमात्र समाधान नहीं है क्योंकि अभी परंपरागत कृषि पद्धतियों की तुलना में शून्य लागत प्राकृतिक कृषि की उत्पादकता में लंबी अवधि में बढ़ोतरी का पता नहीं है। शून्य लागत प्राकृतिक कृषि के देश भर में प्रसार की कोई योजना बनाने से पहले विभिन्न कृषि जलवायु क्षेत्रों में और परीक्षण एवं अध्ययन किए जाने चाहिए अन्यथा यह गैर-उत्पादक साबित हो सकती है।’

फेडरेशन ऑफ सीड इंडस्ट्री ऑफ इंडिया के महानिदेशक राम कौंडिन्य ने कहा कि इस बारे में वैज्ञानिक आकलन किया जाना चाहिए कि शून्य लागत प्राकृतिक कृषि का उत्पादकता पर क्या असर होगा और क्या इस कृषि पद्धति के दायरे में देश के 14 करोड़ किसानों को लाया जा सकता है।


Date:09-07-19

विकास सिर्फ जीडीपी से नहीं उसकी डिलीवरी से ही संभव

संपादकीय

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फिर अगले चंद वर्षों में भारत को पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की प्रतिबद्धता को जगह-जगह दोहराया है। हकीकत यह है कि विकास से इसका कोई सीधा संबंध तब तक नहीं हो सकता जब तक सरकारें बढ़ती अर्थव्यवस्था का लाभ आमजन तक न पहुंचाएं। भारत 29 साल पहले दुनिया में जीडीपी के पायदान पर 35वें स्थान पर था आज छठवें पर। किंतु देश मानव विकास सूचकांक में 29 साल पहले भी 135वें स्थान पर था और 2011 में भी उसी पायदान पर। बड़ी कूद-फांद के बाद पिछले वर्ष यह 130वें स्थान पर पहुंचा। साफ है कि अर्थव्यवस्था में वृद्धि का लाभ स्वास्थ्य, शिक्षा और आय के रूप में गरीबों या मध्यम वर्ग तक नहीं पहुंच रहा है। इसके ठीक उलट तमाम देश जिनका जीडीपी भारत से काफी कम है, हम से बेहतर सुख-सुविधाएं अपने नागरिकों को दे रहे हैं। दरअसल जब तक सरकार, खासकर राज्य सरकारें, डिलीवरी को भ्रष्टाचार-मुक्त और शिथिलता-शून्य नहीं करती तब तक अर्थव्यवस्था में वृद्धि का कोई मतलब नहीं। ऐसा नहीं कि बेहतरीन योजनाएं नहीं लाई जा रही हैं, लेकिन चूंकि इनमें से अधिकतर योजनाओं का अमल राज्य सरकारों के हाथ में होता है लिहाज़ा वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं या सरकारी अमले की सुस्ती की चौखट पर असमय दम तोड़ देती हैं।

फसल बीमा योजना पिछले दो वर्षों में लगातार घटती गई और आज केवल 17% कवरेज है, जो तीन वर्षों में 50% किया जाना था। केंद्रीय मंत्री ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन शुरू करते हुए दो साल पहले स्वास्थ्य पर खर्च को जीडीपी का 2.50% करने का एलान किया था, आज यह मात्र 1.25% है जो सरकार के मुताबिक ही विश्व में सबसे कम है। शिक्षा की भी स्थिति कमोबेश यही है। फिर इस जीडीपी को पांच नहीं 50 लाख करोड़ कर लें अगर प्रेमचंद की झुनिया और गोबर को और उनके बच्चों को गरीबी की उसी गर्त में रहना पड़ा तो इसका कोई लाभ नहीं। आज तो दर्जनों राज्यों में भाजपा की या उससे समर्थित सरकारें हैं। क्या मोदी सरकार के लिए अब जरूरी नहीं कि इन मुख्यमंत्रियों को मजबूर करें कि योजनाओं पर अमल का हर संभव प्रयास हो। तभी पांच लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था का कोई मतलब होगा। हालांकि ऐसा कहने वाले मोदी के हिसाब से ‘प्रोफेशनल निराशवादी है’ जबकि सच यह है कि वे सरकार को सही रास्ता बता रहे हैं।


 

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