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02-02-2019 (Important News Clippings)

02-02-2019 (Important News Clippings)

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Date:02-02-19

देश की कृषि अर्थव्यवस्था की सफलता का मंत्र

सिराज चौधरी , (लेखक कारगिल इंडिया में वरिष्ठ सलाहकार हैं।)

वित्त वर्ष 2018-19 के केंद्रीय बजट में कृषि क्षेत्र को प्रमुखता दी गई थी और 1 फरवरी, 2019 को पेश अंतरिम बजट में भी ऐसा ही किया गया है। आज की घोषणाओं में किसानों की आय में बढ़ोतरी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन के प्रस्तावों को प्रमुखता मिली। भले ही यह शुरू की गई प्रत्यक्ष आय सहायता योजना हो या किसानों को पशुपालन तथा मत्स्यपालन पर ऋणों में ब्याज छूट या मनरेगा के लिए बजट आवंटन में बढ़ोतरी, इन सभी पहलों से ग्रामीण संकट दूर करने और किसानों की आय बढ़ाने में मदद मिलेगी। मेरे नजरिये से जिन चार क्षेत्रों पर काम करने की जरूरत है, उनमें ये शामिल हैं –

 

1. किसानों को प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण

हालांकि सरकार बहुत से कदम पहले ही उठा चुकी है, लेकिन इस बजट में प्रधानमंत्री किसान योजना शुरू की गई है। इसके तहत 2 हेक्टेयर से कम भूमि वाले छोटे किसानों को हर साल 6,000 रुपये सीधे उनके खाते में हस्तांतरित किए जाएंगे। मगर प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण को ठीक से लागू करना जरूरी है। इसके लिए भूमि से संबंधित सरकारी दस्तावेजों का सही मूल्यांकन करना जरूरी है। इसके अलावा उन किसानों के लिए एक योजना भी बनाने की जरूरत है, जो भूस्वामी नहीं हैं। प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण का मकसद कृषि संकट को कम करना और किसानों पर वित्तीय बोझ घटाकर उनकी आय दोगुनी करने के सरकार के प्रयासों में मददगार बनना है। आय हस्तांतरण कार्यक्रम को प्रभावी बनाने के लिए इसे सभी उर्वरक, बिजली, सिंचाई और अन्य सब्सिडी की जगह लागू किया जाना चाहिए। ओडिशा और तेलंगाना जैसे राज्य पहले ही ऋण माफी की जगह ऐसे कार्यक्रमों को अपना चुके हैं। ऋण माफी पुराना तरीका रहा है।

2. कृषि उत्पादकता में सुधार

ऐसा तभी संभव है, जब कृषि मशीनीकरण, खेतों के स्तर पर तकनीक के इस्तेमाल और बीजों तथा जैवतकनीक में निवेश पर जोर दिया जाएगा। भारत में कृषि में मशीनों का इस्तेमाल औसत दर से बढ़ रहा है, लेकिन हमें व्यापक स्तर पर मशीनों को अपनाने की जरूरत है ताकि बेहतर नतीजे सामने आएं। कृषि क्षेत्र में तकनीक को अपनाए जाने से किसानों को न केवल भूमि को सुधारने और कम श्रम की जरूरत पड़ती है, बल्कि इससे कृषि उपज की गुणवत्ता और मात्रा में भी सुधार होता है। इस समय भारत आईटी क्रांति के दौर में है। तकनीक को अपनाना इस तथ्य से और जरूरी हो जाता है कि भारत की आबादी तेजी से बढ़ रही है, जबकि उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन सीमित हैं। उपभोक्ता ज्यादा जागरूक और स्वास्थ्य को लेकर सतर्क बन रहे हैं। वे भारत जैसे विकसित बाजारों में भी पारदर्शिता और उपज के उत्पादन स्थान की जानकारी की मांग कर रहे हैं। जैवतकनीक में सुधार हो रहा है। इसलिए किसान उत्पादकता बढ़ाने और लागत घटाने के लिए नई जीवविज्ञान तकनीक इस्तेमाल कर सकते हैं। इससे अधिक पोषण वाली खाद्य फसलें पैदा करने में मदद मिलेगी। इससे अल्प पोषण की समस्या से निजात और खाद्य की उपयोगिता बढ़ाई जा सकती है। इस तरह जैव तकनीक भारत जैसे उन देशों के लिए अत्यावश्यक है, जहां कुपोषण व गरीबी गंभीर चुनौती हैं।

3. किसानों को बाजारों और खाद्य प्रसंस्करण उद्योग से जोड़ें

राष्ट्रीय कृषि बाजार या ई-नाम जैसी पहलें अच्छी हैं, जो भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था की बेहतरी की दिशा में काम कर रही हैं। ई-नाम योजना में मंडियों का आपसी जुड़ाव बेहतर है और यह कृषि निर्यात पर केंद्रित है। हालांकि अब भी किसान और बाजार के बेहतर जुड़ाव की जरूरत है। अगर किसान उस जिंस के उत्पादन पर जोर देगा, जिसकी बाजार में जरूरत है तो मांग और उन्हें मिलने वाली कीमत में स्वत: ही बढ़ोतरी होगी। किसानों को इस बारे में शिक्षित करना जरूरी है कि वे बाजार के हिसाब से उत्पादन का फैसला लें। युवाओं को उद्यमिता का कौशल दिया जाए ताकि वे वायदा बाजारों को समझ सकें। सरकार के लिए किसानों के हितों और उपभोक्ता के हितों के बीच संतुलन साधना जरूरी है। सरकार सब्सिडी, न्यूनतम कीमत और कारोबारी प्रतिबंधों के जरिये किसानों के हितों की रक्षा करती हैं, लेकिन इससे उपभोक्ताओं के लिए कीमतें भी बढ़ सकती हैं।

4.जोखिम में कमी

भारत में बहुत से किसानों के लिए फसलों को प्रभावित करने वाली मौसमी दशाएं और भूमि स्वामित्व की असुरक्षा प्रमुख चिंताएं हैं। ब्याज छूट योजना में प्राकृतिक आपदा से प्रभावित किसानों के लिए ब्याज में दो फीसदी छूट की घोषणा की गई है। इसके अलावा समय पर ऋण चुकाने पर तीन फीसदी अतिरिक्त छूट दी जाएगी। इससे कृषि आय में इजाफा होगा। वहीं, उपलब्ध तकनीक को मौसम पूर्वानुमान, मिट्टी में सुधार, शुष्क कृषि, बीज, कीटनाशक, उर्वरक, सिंचाई, कृषि उपकरण और फाइनैंसिंग के रूप में सेवाएं मुहैया कराने, फसल बीमा और कृषि के विस्तार में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इससे किसानों को बेहतर टिकाऊ उत्पादन उपकरणों में निवेश करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसान बैंकिंग प्रणाली से जुड़ें ताकि उन्हें आसानी से कर्ज मिल सके।

कृषि अर्थव्यवस्था की सफलता का फॉर्मूला बहुत आसान है। किसान उतनी ही जमीन से कम लागत में अधिक उत्पादन करने में समर्थ होने चाहिए। उनके जोखिम को कम किया जाए और उन्हें बाजार से जोड़ा जाए ताकि उन्हें अपनी उपज की ज्यादा कीमत मिल सके। सरकार को किसानों का जोखिम कम करने और अपनी जीविका के लिए कृषि पर निर्भर भारत की बड़ी आबादी की आमदनी बढ़ाने के लिए इन उपायों पर (निस्संदेह उद्योग की मदद से) ध्यान देना चाहिए।


Date:02-02-19

कायम रहा अनुशासन !

संपादकीय

चुनाव पूर्व के बजट की दृष्टि से देखा जाए तो पीयूष गोयल का बजट बहुत बुरा नहीं है। वोट दिलाने वाली घोषणाओं पर करीब एक लाख करोड़ रुपये (अगले वर्ष के जीडीपी के एक फीसदी का करीब आधा) व्यय करने की घोषणा की गई है लेकिन राजकोषीय घाटा इस वर्ष के जीडीपी के 3.4 फीसदी के संशोधित आंकड़े से अपरिवर्तित रहेगा। राजकोषीय सुधार में ठहराव सहन किया जा सकता है। अगर इसमें नकारात्मक बदलाव आता तब जरूर गड़बड़ होती। अगर मूलभूत न्यूनतम आय जैसी अन्य घोषणाएं होतीं तब जरूर इसे नकारात्मक कहा जा सकता था। इसके बावजूद अगर महत्त्वाकांक्षी संशोधित आंकड़े अमल में नहीं आए तो चालू वर्ष का घाटा बढ़ सकता है। खासतौर पर निगम कर राजस्व और विनिवेश प्रक्रिया के मामले में। सरकार के ऋण कार्यक्रम के आकार ने पहले ही बॉन्ड बाजार में ब्याज दरों को रोक रखा है जबकि सरकार का ऋण-जीडीपी अनुपात गिरने के बजाय बढ़ता जा रहा है।

पांच वर्ष में सरकार ने कर-जीडीपी अनुपात को 2013-14 के 10.1 फीसदी से बढ़ाकर चालू वर्ष के संशोधित आंकड़ों में 11.9 फीसदी तक पहुंचा दिया है। यह उल्लेखनीय सुधार है। अगर आयकर चुकता करने वालों की तादाद के हिसाब से देखा जाए तो कर अनुपालन में भी सुधार हुआ है। इस अवधि में राजकोषीय समायोजन 1.1 फीसदी रहा जो काफी बेहतर है। प्राथमिक घाटा नाम मात्र का है। ऐसे में पूरा घाटा अतीत की गलतियों का परिणाम है। परंतु 3 फीसदी का लक्ष्य शाश्वत है। अगले वर्ष राज्यों के साथ संसाधन साझा करने की वित्त आयोग की अनुशंसा लागू होने के बाद अतिरिक्त दबाव उत्पन्न हो सकता है। हकीकत में मौजूदा वर्ष के आंकड़ों को राज्यों को अनुमानित हस्तांतरण में कमी से भी समर्थन मिला है।

चुनावी घोषणाओं की बात करें तो सरकार ने छोटे और सीमांत किसानों को आय समर्थन के लिए करीब 75,000 करोड़ रुपये की योजना की घोषणा की है। इसके बचाव में कहा जा रहा है कि यह कृषि उपज के मूल्य में कमी की भरपाई करेगी। यानी यह एक तरह से कारोबारी नुकसान के हर्जाने के रूप में दी जाने वाली राशि है। बात तार्किक है लेकिन अधिकांश छोटे और सीमांत किसानों के पास इतनी उपज नहीं होती कि वे उसे मंडी में बेच सकें। सच तो यही है कि सरकार का यह कदम न्यूनतम लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना की दिशा में ही एक कदम है। यह एक राजनीतिक कदम है और राज्यों द्वारा की गई ऐसी ही अन्य घोषणाओं को देखते हुए किया गया है। केंद्र सरकार राजनीतिक श्रेय चाहती है।

दूसरी कल्याण योजना असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए पेंशन की योजना है जहां सरकार आधी लागत चुकाएगी। यह योजना तमाम अन्य खुली कल्याणकारी योजनाओं की तरह भविष्य में बोझ बन सकती है। अमीर देशों में भी ऐसा देखने को मिल चुका है। आयुष्मान भारत की बात करें तो यह यकीन करना मुश्किल है कि 6,000 करोड़ रुपये का बजट दुनिया के सबसे बड़े स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम के लिए पर्याप्त होगी। राज्यों के योगदान देने के बावजूद और अगर एक व्यक्ति को अपने जीवनकाल में कम से कम कुछ बार अस्पताल होने की जरूरत पड़े तो यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 50 करोड़ की बीमित आबादी में से करीब 1.5 करोड़ लोगों को हर साल इलाज की जरूरत पड़ेगी। ऐसे में यह मानना उचित होगा कि 50 करोड़ की बीमित आबादी का करीब दो फीसदी हर वर्ष अस्पताल में भर्ती हों। संयुक्त रूप से 10,000 करोड़ रुपये के आवंटन से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अगले साल कवरेज बहुत कम होगा या अस्पताल में भर्ती होने की औसत लागत करीब 6,000 रुपये होगी। यह कितना वास्तविक है?

निहायत असमानता भरे समाज में गरीबों या वंचित वर्ग के लोगों के कल्याण पर किए जाने वाले खर्च के खिलाफ दलील देना काफी मुश्किल है। खासतौर पर तब जबकि मध्य वर्ग के लिए निरंतर कर संबंधी राहत की घोषणा की जा रही हैं। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि कल्याण योजनाओं पर इस खर्च के लिए राजकोषीय गुंजाइश मौजूदा कार्यक्रमों की फंडिंग कम करके ही तैयार की गई है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के अगले वर्ष के आवंटन में इस वर्ष की तुलना में कमी की गई है। इसके अलावा इसमें उज्ज्वला (गरीब परिवारों के लिए एलपीजी कनेक्शन), कर्मचारी पेंशन योजना, अनुसूचित जातियों के विकास के लिए योजना, अन्य वंचित समूहों के लिए ऐसी ही योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत अभियान, श्वेत क्रांति, पोषण आधारित सब्सिडी आदि शामिल हैं। अन्य आवंटन चालू वर्ष के बजट आवंटन से कम हैं। इनमें हरित क्रांति, नीली (मत्स्य) क्रांति, राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम और शहरी मिशन आदि। शायद सरकार ने इस बात को अमल में लाना शुरू कर दिया है कि नई कल्याण योजना की आंशिक फंडिंग अन्य मदों में कटौती से की जाए। आयकरदाताओं के सबसे निचले स्लैब को राहत देना तो राजनीतिक दृष्टि से समझ में आ सकता है लेकिन मुद्रास्फीति को देखते हुए कर दायरे को कम करके 3.50 लाख रुपये किया जा सकता था। आखिरी बार 2014 में करमुक्त आयकर का दायरा 2.5 लाख रुपये तय किया गया था। परंतु ऐसा करने से शायद लोकसभा में मोदी मोदी के नारों के बीच मेज थपथपाने का सिलसिला वैसा न चलता जैसा कि देखने को मिला।


Date:01-02-19

बदहाली के स्कूल

संपादकीय

आजादी के बाद से अब तक देश में शिक्षा की सूरत बदलने के लिए कितने दावे किए गए, कितनी योजनाएं बनीं, यह जगजाहिर रहा है। लेकिन आज भी अगर देश के बहुत सारे स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे सुरक्षित हालात में पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं तो यह अपने आप में विकास की अवधारणा पर एक बड़ा सवाल है। अकेले उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में जिस तरह बड़ी तादाद में स्कूल भवनों के जर्जर होने की खबर आई है, वह हैरान करने वाली है। खुद राज्य के शिक्षा विभाग की ओर से कराए गए एक सर्वेक्षण में यह तथ्य सामने आया कि इटावा में कम से कम दो सौ नौ स्कूलों के भवन खतरनाक हालत तक जर्जर हो चुके हैं और उन्हें नया बनवाने या उनकी मरम्मत को लेकर कोई गंभीर नहीं दिख रहा है। भवनों के गिरने के डर के माहौल में हालत यह है कि कड़ाके की ठंड के मौसम में बच्चों को मजबूरी में खुले आसमान के नीचे बैठ कर पढ़ाई करनी पड़ती है। मौसम ज्यादा खराब होने पर कई बार बच्चों को छुट्टी भी देनी पड़ती है। खबर के मुताबिक स्कूलों के प्रबंधन ने शिक्षा विभाग के पास इससे संबंधित शिकायत भेजी थी। लेकिन स्कूल भवनों की मरम्मत को लेकर संबंधित अधिकारियों के बार-बार दिए गए आश्वासन अब तक कोरे साबित हुए।

अब स्वाभाविक ही खतरनाक हालत में पहुंच चुकी इमारतों में चलने वाले स्कूलों की खबर पर मानवाधिकार आयोग ने संज्ञान लिया है। आयोग ने इसे स्कूल के विद्यार्थियों और शिक्षकों के मानवाधिकारों के हनन का मामला मानते हुए उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किया है और चार हफ्ते के भीतर विस्तृत रिपोर्ट देने का निर्देश दिया है। यह स्थिति केवल इटावा जिले की नहीं है। राज्य के कुछ अन्य जिलों से भी स्कूल भवनों के जर्जर हालत में होने और इसकी वजह से बच्चों की पढ़ाई बाधित होने की खबरें आ चुकी हैं। देश के कई अन्य राज्यों में भी तस्वीर इससे अलग नहीं है। हालांकि शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने और दोपहर का भोजन या कई अन्य योजनाओं की वजह से स्कूलों में बच्चों की तादाद और उपस्थिति बढ़ी है। लेकिन सवाल है कि अगर स्कूलों की इमारतों की स्थिति ठीक नहीं है, मजबूरी में बच्चों को खुले आसमान के नीचे पढ़ना पड़ता है, बुनियादी सुविधाओं का अभाव है तो वहां पढ़ाई के लिए जाने वाले बच्चों का कैसा भविष्य तैयार हो रहा है !

यह विडंबना है कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए आठ साल से ज्यादा का वक्त बीत चुका है, लेकिन आज भी स्कूलों की दशा की वजह से भारी तादाद में बच्चे पढ़ाई से वंचित रह जाते हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि कई जगहों पर स्कूलों की इमारतें पर्याप्त सुरक्षित नहीं हैं और वहां बुनियादी सुविधाओं का अभाव होता है। इसका सीधा असर शिक्षा की गुणवत्ता और स्तर पर भी पड़ता है। एक अध्ययन में यह पाया गया था कि बीच में स्कूली पढ़ाई छोड़ने वालों में ज्यादा संख्या लड़कियों की होती है और वे शौचालय और पीने के साफ पानी के अभाव की वजह से भी स्कूल छोड़ देती हैं। यह समझना मुश्किल है कि दूसरे कई गैरजरूरी मदों में पैसा बहाने वाली सरकारों को सुरक्षित और बुनियादी सुविधाओं से लैस स्कूल भवनों का निर्माण कोई प्राथमिक काम क्यों नहीं लगता है। विकास के तमाम दावों के बीच आज भी देश के कई इलाकों में मौजूद यह समस्या एक बड़ा सवाल है कि स्कूली शिक्षा की इस तस्वीर के रहते हमारी उपलब्धियों की क्या अहमियत रह जाती है !


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