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04-02-2019 (Important News Clippings)

04-02-2019 (Important News Clippings)

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Date:04-02-19

गोयल के पहले अंतरिम बजट में पूर्ण बजट की सारी खूबियां

ए के भट्टाचार्य 

यह अंतरिम बजट नहीं है। वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने शुक्रवार को जो अंतरिम बजट पेश किया है, वह किसी भी रूप में उनके पूर्ववर्तियों- 2004 में जसवंत सिंह, 2009 में प्रणव मुखर्जी और 2014 में पी चिदंबरम द्वारा पेश किए गए अंतरिम बजट से कोई समानता नहीं रखता है। अब तक किसी भी अंतरिम बजट में ऐसी योजना की घोषणा नहीं की गई, जिसके लिए 75,000 करोड़ रुपये के सालाना खर्च का प्रावधान किया गया हो। गोयल ने प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना की घोषणा की है, जिसमें 2 हेक्टेयर से कम कृषि भूमि वाले किसान परिवारों को हर साल 6,000 रुपये की आय सहायता दी जाएगी।

वर्ष 2015-16 की कृषि गणना के मुताबिक देश में 14.6 करोड़ कृषि जोत हैं, जिसमें से 86 फीसदी का रकबा दो हेक्टेयर से कम है। इसका मतलब है कि करीब 12.5 करोड़ कृषि जोत दो हेक्टेयर से कम की हैं। इस आंकड़े से बजट का आंकड़ा भी ज्यादा दूर नहीं है। गोयल के मुताबिक योजना से 12 करोड़ से अधिक किसान परिवारों को फायदा होगा। इन परिवारों में से करीब एक-तिहाई उत्तर प्रदेश और बिहार में रहते हैं, इसलिए ऐसी योजना के चुनावी फायदे को कम नहीं आंकना चाहिए। पहले किसी अंतरिम बजट में पेंशन योजना की घोषणा नहीं की गई। इसमें असंगठित क्षेत्र के करीब 10 करोड़ कामगारों के लिए पेंशन योजना शुरू करने के लिए 500 करोड़ रुपये की टोकन राशि का आवंटन किया गया है। इसका लाभ केवल 15,000 रुपये से कम आय वाले कामगारों को मिलेगा। इस तरह असंगठित क्षेत्र के 25 फीसदी कामगार योजना के दायरे में आ जाएंगे।

पिछले किसी भी अंतरिम बजट में इतनी बड़ी आयकर छूट की घोषणा नहीं की गई, जितनी गोयल ने की है। गोयल ने 5 लाख रुपये या उससे कम कर योग्य आय वाले लोगों को पूरी तरह कर छूट मुहैया कराई है। उनका अनुमान है कि इसका फायदा उन लोगों को भी होगा, जिनकी सकल सालाना आय 6.5 लाख रुपये तक है। इसका फायदा अगले साल तीन करोड़ छोटे करदाताओं को हो सकता है। कुछ अन्य फायदे मुहैया कराए गए हैं। उदाहरण के लिए वेतनभोगियों के लिए मानक कटौती बढ़ाकर 50,000 रुपये की गई है। बैंक से मिलने वाले ब्याज पर कटौती की सीमा को सालाना 10,000 रुपये से बढ़ाकर 40,000 रुपये कर दिया गया है।

दूसरे शब्दों में 2019-20 के अंतरिम बजट में कम से कम 13 करोड़ लोगों और 12 करोड़ किसान परिवारों को वित्तीय राहत मुहैया कराई गई है। आय सहायता की मासिक राशि 500 रुपये महीना ही है, लेकिन इसके ज्यादातर लाभार्थी उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में होंगे। ऐसे में यह योजना तेलंगाना और ओडिशा की नकद हस्तांतरण योजनाओं का प्रभावी राजनीतिक जवाब साबित होगी। अगर इस योजना को देश भर में ठीक से लागू किया गया तो इसका पूरे देश के सभी राज्यों और समाज के सभी वर्गों की बड़ी आबादी को फायदा मिलेगा।

इन सभी योजनाओं का कुल सालाना वित्तीय भार 99,000 करोड़ रुपये से कम नहीं होगा। ये एकबारगी दिए जाने वाले लाभ नहीं हैं, इसलिए इनका आने वाले वर्षों में भी वित्तीय भार पड़ेगा। यह राशि भारत के अगले साल के अनुमानित जीडीपी की करीब आधा फीसदी है। अंतरिम बजट को तो भूल जाएं, किसी को आसानी से यह भी याद नहीं आएगा कि हाल के वर्षों में किसी पूर्ण बजट में भी इतने अधिक लोगों के लिए इतने बड़े लाभों की घोषणा की गई हो। अगर ये पहल नरेंद्र मोदी को नई दिल्ली में सत्ता बनाए रखने के लिए आवश्यक संख्या में वोट नहीं दिला सके तो मोदी सरकार से मोहभंग और बड़ा और व्यापक होगा।

फिर भी आश्चर्यजनक बात यह है कि इन योजनाओं के बावजूद राजकोषीय हालात काबू से बाहर नहीं होंगे। वित्त वर्ष 2018-19 में राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को संशोधित कर 3.4 फीसदी किया गया है, जिसका बजट अनुमान जीडीपी का 3.3 फीसदी था। इसी तरह वित्त वर्ष 2019-20 के लिए जीडीपी का 3.4 फीसदी राजकोषीय घाटा यह दर्शाता है कि इसमें पिछले साल के 3.1 फीसदी के आंकड़े के मुकाबले थोड़ी ही बढ़ोतरी होगी। सरकार ने हाल में जीडीपी के पिछले कुछ वर्षों के आंकड़ों को संशोधित किया है। ऐसे में अंतिम आंकड़े लक्ष्यों से अलग नहीं रहने की संभावना है।

लेकिन अब भी अंतरिम बजट के राजस्व अनुमानों को लेकर कुछ सवाल पूछे जाने चाहिए। वर्ष 2018-19 के बजट अनुमानों की तुलना में इसी वित्त वर्ष के संशोधित आंकड़ों में जीएसटी राजस्व की कमी एक लाख करोड़ रुपये बताई गई है। इसकी भरपाई बजट अनुमानों की तुलना में निगम कर में करीब 50,000 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी, सीमा शुल्क संग्रह में 17,500 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी और राज्यों को अनुदान एवं ऋणों में 29,000 करोड़ रुपये की कमी की बदौलत हुई है। अंतरिम बजट के मुताबिक विनिवेश प्राप्तियां 80,000 करोड़ रुपये के लक्ष्य पर पहुंचने का अनुमान है, जो अभी तक केवल 35,500 करोड़ रुपये अनुमानित हैं। ऐसे में यह लक्ष्य हासिल करना मुश्किल काम है। अगर इन राजस्व अनुमानों में से कोई भी मार्च 2019 के अंत तक हासिल नहीं हुआ तो चालू वित्त वर्ष का राजकोषीय घाटे का अंतिम आंकड़ा चिंताजनक होगा।

बजट के आंकड़े दर्शाते हैं कि 2019-20 में विभिन्न मदों पर खर्च को नियंत्रित रखने का प्रयास किया गया है। सरकार का पूंजीगत खर्च इस साल 20 फीसदी बढ़ा है। यह अगले साल केवल 6 फीसदी बढऩे का अनुमान है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम और भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के लिए बजट आवंटन में मामूली गिरावट आएगी। हालांकि रक्षा बजट 2019-20 में 7 फीसदी बढऩे का अनुमान है, जिसमें इस साल 3 फीसदी बढ़ोतरी हुई है। कुल मिलाकर मोदी सरकार के लिए गोयल का पहला बजट बहुत व्यापक नजर आ रहा है।


Date:04-02-19

मजबूत बॉन्ड बाजार

संपादकीय

पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर में शनिवार को एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2019-20 के अंतरिम बजट की सराहना करते हुए इसे किसानों, श्रमिकों और मध्य वर्ग को सशक्त बनाने की दिशा में उठाया गया ऐतिहासिक कदम बताया। उन्होंने वादा किया कि अगर लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को जीत हासिल होती है तो समाज के सभी तबकों को और अधिक लाभ प्रदान किया जाएगा। अंतरिम बजट में कई ऐसे कदम उठाए गए जो एक लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना से जुड़े हुए हैं। इन कदमों में दो हेक्टेयर रकबे वाले किसानों के लिए आय समर्थन योजना शामिल है। इस योजना के तहत देश के करीब 12 करोड़ किसानों को प्रति वर्ष 6,000 रुपये की नकद राशि प्रदान की जाएगी। सरकार ने असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए 60 वर्ष की उम्र के बाद 3,000 रुपये मासिक पेंशन मुहैया कराने की बात कही जिसमें सरकार का भी समान योगदान है। इसके अलावा 5 लाख रुपये तक की वार्षिक आय वाले लोगों को आयकर में छूट प्रदान की गई।

उल्लेखनीय बात यह है कि सरकार की इस पूरी कवायद के बावजूद राजकोषीय घाटे पर कुछ खास असर पड़ता नहीं दिख रहा। यहां व्यापक बात यह है कि क्या अत्यंत सीमित वित्तीय संसाधनों वाला देश ऐसी कल्याणकारी योजनाएं चला सकता है ? इसके लिए अकेले सरकार को दोष देना अनुचित होगा। सच तो यह है कि मोदी की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने कृषि ऋण माफी जैसी कहीं अधिक नुकसानदायक योजनाओं की राह नहीं चुनी। ऐसी योजनाएं ऋण के अनुशासन को भंग करती हैं और इनसे किसानों की स्थिति सुधारने में कुछ खास सहायता नहीं मिलती। यह बात अलग है कि भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र की सरकारों को विधानसभा चुनावों के मद्देनजर ऐसी घोषणाएं करने से नहीं रोका। विपक्षी दल भी इसे व्यवहार में अपनाने से पीछे नहीं हटे। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा है कि वह मोदी को तब तक सोने नहीं देंगे जब तक कि देश भर में कृषि ऋण माफी की घोषणा नहीं होती है। उन्होंने यह वादा भी किया है कि अगर आम चुनाव के बाद देश में कांग्रेस की सरकार आती है तो न्यूनतम आय गारंटी योजना शुरू की जाएगी।

ये तमाम वादे यही जाहिर करते हैं कि देश में ऐसे लोकलुभावनवाद का दौर आ रहा है जिसे चाहकर भी बदला नहीं जा सकता। इसके चलते देश में ऐसी राजकोषीय प्रतिबद्धताओं का दौर आ रहा है जिनका स्थायित्व काफी मुश्किल भरा हो सकता है। यकीनी तौर पर विकसित देशों में ऐसी प्रतिबद्धताओं की नाकामी का हश्र हम सब देख ही चुके हैं। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हमारे राजनेता भी उसी दिशा में अग्रसर हैं। ऐसा लगता नहीं कि कोई ऐसी बात है जो देश के नीति निर्माताओं को ये वादे करने से रोके। एक तरह से देखा जाए तो इन योजनाओं की वास्तविक वित्तीय लागत का प्रश्न भी सामने है। उदाहरण के लिए एक सुविकसित बॉन्ड बाजार के अभाव में ऐसा कोई तरीका नहीं है जिसके तहत बाजार उच्च प्रतिफल और ब्याज के माध्यम से आपत्ति दर्ज करा सके। देश में लोगों को बॉन्ड बाजार से जोडऩे के आधे-अधूरे मन से किए गए प्रयासों को बहुत ही सीमित सफलता मिली है। राजकोषीय लोकलुभावनवाद पर नियंत्रण कायम करने के लिए एक मजबूत बॉन्ड बाजार हमारी संस्थागत आवश्यकता है। इसकी सफलता सस्ते प्रपत्रों के नकदीकरण, समूचे ऋण परिदृश्य को लेकर निवेशकों की चाह, पर्याप्त हेजिंग की व्यवस्था और व्यवहार्य प्रपत्रों की उपलब्धता और आपूर्ति पर निर्भर करेगी। चूंकि ऐसा लगता नहीं कि लोक लुभावनवाद की यह चाह निकट भविष्य में कम होगी, इसलिए भारत को बॉन्ड बाजार के विकास को लेकर अपनी प्राथमिकता तय करनी होगी।


Date:03-02-19

वेनेजुएला के पीछे अमेरिका

डॉ. दिलीप चौबे

महाशक्ति अमेरिका का निकटवर्ती लैटिन अमेरिकी क्षेत्र फिर से तख्तापलट और राजनीतिक हत्या की धमकी की त्रासदी का शिकार बन रहा है। शीत युद्ध के दौरान अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सीआईए की गतिविधियों को लेकर इस क्षेत्र के अमेरिका विरोधी देश या गुट-निरपेक्ष खेमे के सदस्य देश सुनियोजित तख्तापलट की आशंका से भयभीत रहते थे। 11 सित. 1973 को लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए चिली के शासक सल्वाडोर अलांदे की सैनिक तख्तापलट अभियान के तहत हत्या और क्यूबा में क्रांति के नायक फिदेल कास्त्रो की हत्या की बार-बार कोशिशों की खबरें दुनिया में चर्चा का विषय रहीं। अलांदे दुनिया के पहले निर्वाचित मार्क्‍सवादी राष्ट्राध्यक्ष थे। उन्होंने चिली में कई आर्थिक सुधार किए, लेकिन अमेरिका की तत्कालीन सरकार को यह पसंद नहीं आया था।शीत युद्ध को पूंजीवाद बनाम मार्क्‍सवाद के बीच वैचारिक और राजनीतिक संघर्ष के रूप में प्रचारित किया गया था। जब शीत युद्ध खत्म हुआ तब होना यह चाहिए था कि इस संघर्ष का अंत हो जाए लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इससे एक बात स्पष्ट होती है कि शीत युद्ध वैचारिक संघर्ष से कहीं अधिक वर्चस्व की लड़ाई थी। यही कारण है कि आज अमेरिका और चीन, अमेरिका और रूस तथा अमेरिका और लैटिन अमेरिका के कईदेश एक दूसरे के आमने-सामने हैं। वेनेजुएला का घटनाक्रम भी इसका साक्षी है।

उसका संकट घरेलू राजनीति में नेतृत्व की अक्षमता, आर्थिक कुप्रबंधन और कूटनीतिक विफलता की उपज हो सकता है, लेकिन इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे अमेरिकी वर्चस्व की लड़ाई भी बड़ी वजह है। दुनिया के सबसे बड़े तेल भंडार वाला लैटिन अमेरिकी देश इन दिनों गंभीर राजनीतिक संकट, कमजोर अर्थव्यवस्था और सेना के सियासी इस्तेमाल से जूझ रहा है। राजनीतिक सत्ता संघर्ष में एक ओर राष्ट्रपति निकोलस मादुरो हैं, तो दूसरी ओर विपक्ष के नेता जुआन गोइदो हैं। कहने को तो राष्ट्रपति मादुरो की सत्ता वैध है, क्योंकि पिछले साल मई में हुए चुनाव में उन्हें निर्वाचित किया गया था, लेकिन विपक्ष ने इस चुनाव का बहिष्कार किया था, और अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों ने चुनाव में धांधली की शिकायत की थी। राष्ट्रपति मादुरो के आर्थिक कुप्रबंधन के चलते देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उतरती चली गई। हालात यह है कि देश आठ हजार फीसद की महंगाई से जूझ रहा है। रोजमर्रा की चीजों के साथदवाइयों के दाम आसमान छू रहे हैं। इस कारण देश के नागरिक हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरकर मादुरो की नीतियों का विरोध कर रहे हैं। जाहिर है कि विपक्षी नेता जुआन गोइदो ने इस स्थिति का फायदा उठाते हुए अपने को स्वयंभू अंतरिम राष्ट्रपति घोषित कर दिया है, लेकिन घरेलू सत्ता संघर्ष में अमेरिकी हस्तक्षेप ने वेनेजुएला के मसले पर दुनिया को दो खेमों में बांट दिया है। अमेरिका, ब्राजील, कोलंबिया, चिली, पेरू, इक्वाडोर, अज्रेटीना और पराग्वे जुआन गोइदो का समर्थन करते हुए उन्हें अंतरिम राष्ट्रपति के तौर पर मान्यता दे दी है।

दूसरी ओर, रूस, चीन, क्यूबा, मैक्सिको और तुर्की राष्ट्रपति मादुरो का समर्थन कर रहे हैं। मादुरो ने अमेरिका पर तख्तापलट कराने का आरोप लगाते हुए उसके साथ राजनयिक संबंध तोड़ लिए हैं। दूसरे देशों के मामलों में हस्तक्षेप करने की अमेरिका की पुरानी नीति रही है। वह वेनेजुएला में अपनी कठपुतली सरकार बनवाना चाहता है। सभी जानते हैं कि अमेरिका तेल भंडार से संपन्न देशों में अपना राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करके अपना आर्थिक हित साधना चाहता है। वेनेजुएला का यह राजनीतिक संकट भारत के लिए भी महत्त्व रखता है क्योंकि नई दिल्ली अपनी जरूरतों के लिए यहां से कच्चे तेल का आयात करता है। किसी देश की आंतरिक स्थिति में दखल नहीं देना भारत की पुरानी नीति है। इसीलिए वह इस मामले में तटस्थ रहते हुए आपसी बातचीत के जरिए समस्या का समाधान निकालने के पक्ष में है। यूरोपीय संघ ने राष्ट्रपति मादुरो को चेतावनी देते हुए आठ दिनों में नया चुनाव कराने का फरमान जारी किया है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो संघ विपक्षी नेता गोइदो को राष्ट्रपति के रूप में मान्यता से सकता है। दरअसल, लैटिन अमेरिकी देशों को आपस में बैठकर इस राजनीतिक संकट का समाधान निकालने की कोशिश करनी चाहिए ताकि यह क्षेत्र महाशक्तियों का अखाड़ा न बनने पाए या यहां उनका हस्तक्षेप न हो।


Date:03-02-19

विषमता की जड़ें

संपादकीय

भारत के संदर्भ में ऑक्सफेम की ताजा सर्वेक्षण रिपोर्ट में बताया गया है कि 2018 में देश के शीर्ष एक प्रतिशत अमीरों की संपत्ति में उनतालीस फीसद का इजाफा हुआ है, वहीं पचास फीसद गरीब आबादी की संपत्ति में महज तीन फीसद की बढ़ोतरी हुई। पिछले साल भारतीय अरबपतियों की संपत्ति प्रति दिन 2200 करोड़ रुपए बढ़ी। वहीं देश की 77.4 फीसद संपत्ति पर दस फीसद अमीर लोग काबिज हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में रहने वाले 13.6 करोड़ लोग 2004 से कर्जदार बने हुए हैं। गौरतलब तथ्य यह भी सामने आया है कि 2018 में अठारह नए अरबपति बने, इस तरह अब देश में कुल अरबपतियों की संख्या एक सौ उन्नीस हो गई है, जिनकी संपत्ति पहली बार बढ़ कर चार सौ अरब डॉलर के स्तर को पार कर गई है। ऑक्सफेम ने अनुमान लगाया है कि 2018 से 2022 के बीच भारत में रोजाना सत्तर नए करोड़पति बनेंगे। इस सर्वेक्षण से इस बात का पता चलता है कि सरकारों द्वारा स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी सार्वजनिक सेवाओं का कम वित्तपोषण करके, अमीरों पर कम कर लगा कर तथा कर चोरी रोकने के पुख्ता इंतजाम न कर पाने से असमानता बढ़ रही है।

इस रिपोर्ट में खास और चिंताजनक बात यह बताई गई है कि इस आर्थिक असमानता में सबसे ज्यादा महिलाएं प्रभावित हो रही हैं। इस सर्वेक्षण से यह स्पष्ट होता है देश में अमीर और गरीब के बीच असमानता लगातार कायम है। गौरतलब है कि विकास की मौजूदा प्रक्रिया के कारण एक तबके के पास हर तरह की विलासिता के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध है और दूसरी तरफ गरीब लोगों की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही है। गरीबी उन्मूलन के प्रयास तो हो रहे हैं, मगर वह नाकाफी है। तभी तो एक वर्ष में गरीबों की आय में महज तीन फीसद की वृद्धि दर्ज की गई है। यह चिंताजनक है। देखने में आ रहा है कि आज वैश्विक अर्थव्यवस्था के जिस उदारीकरण और निजीकरण के समर्थक मॉडल को अपनाया गया है वह अमीर और गरीब की खाई को पाटने के बजाय और अधिक चौड़ा कर रहा है। पिछले सालों के रिकॉर्ड को देखने पर नजर आता है कि देश में दस फीसद पूंजीपति लोगों की आय में कई गुना वृद्धि हुई है, जबकि दूसरी ओर दस फीसद आम लोगों की आय में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है। घरेलू उत्पाद में खरबपतियों की संख्या में इजाफा हो रहा है, वहीं कृषि में जीडीपी का स्तर घट रहा है। एक तरह से विकास दर से संबंध उद्योगपतियों और कारोबारियों तक ही सीमित हो रहा है। आवश्यकता समावेशी विकास की अवधारणा पर ध्यान केंद्रित करने की है, मगर धरातल पर असमानता है।

विकास का पैमाना आर्थिक और सामाजिक समानता कायम करने वाला और गरीबों के जीवन स्तर को तीव्र गति से ऊंचा उठाने वाला होना चाहिए। बड़ी आबादी के पास आय के साधन नहीं हैं, अर्थतंत्र में यह बदलाव देश की गरीब आबादी के लिए नकारात्मक पहलू है। अब सवाल है कि क्या विकास का यह पैमाना उचित है, जो देश को अमीर-गरीब के साथ ही कृषि-उद्योग और गांव-शहर के बीच बांट कर विषमता को बढ़ाने का काम कर रहा है। आर्थिक विकास की वर्तमान प्रक्रिया क्या इस दशा में परिवर्तन लाने में सहायक हो पाएगी। हमारी वर्तमान विकास नीति का लक्ष्य और दर्शन क्या है? यह भी स्पष्ट होना चाहिए। जो सारे आर्थिक विशेषाधिकार मेट्रो सिटी के एक खास पूंजीपति तबके के पास ही कायम है, वह गैरकानूनी आय और कालेधन की समांतर अर्थव्यवस्था की भी उपज है। गरीबी बढ़ने का यह भी एक प्रमुख कारण है। आर्थिक असमानता की वजह से आम लोगों के जीवन स्तर में कमी के साथ ही कई और समस्याएं जन्म लेती हैं, जैसे तेजी से बढ़ती आर्थिक असमानता बड़े पैमाने पर कुंठा को जन्म देती है। समाज के आर्थिक रूप से निचले स्तर पर आजीविका के लिए संघर्षरत किसी व्यक्ति के लिए नैतिकता और ईमानदारी अपना मूल्य खो देती है। यानी इससे सामाजिक असमानता भी जन्म लेती है, जो टकराव का कारण बनती है। ध्यान देना होगा कि चंद हाथों में सिमटी समृद्धि की वजह से देश का एक बड़ा वंचित तबका अमानवीयता से शून्य अपसंस्कृति का शिकार हो रहा है। एक राष्ट्र में उच्च और निम्न स्तर के लोगों के दो भाग एक तरह से राष्ट्र का आंतरिक आर्थिक विभाजन है।

देश का एक बड़ा तबका जो अकुशल है, जिसे शिक्षा और तकनीक का ज्ञान नहीं है, वही गरीब है। अगर इनके हाथों में गृह उद्योग और लघु ग्रामीण उद्योग दिए जाएं तभी ये आगे बढ़ेंगे। लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने उत्पादों का जाल छोटे-छोटे कस्बों तक फैला रखा है, जो गरीबों के पेट पर लात मारने जैसा है, क्योंकि इससे कुटीर और लघु उद्योग की वस्तुओं की बिक्री नहीं हो पाती। गरीबों को हुनर और काम देने के साथ ही उनके समग्र जीवन स्तर को ऊपर उठाने का प्रयास होना चाहिए। कर्ज माफी और मुफ्त सुविधाएं देना गरीबी को चिरस्थायी बना कर उनका राजनीतिक उपयोग करने की रणनीति मात्र है। बढ़ते पूंजीवाद के कारण नव-उदारवादी नीतियों तथा खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश की नीतियां गरीबों के लिए अहितकारी साबित हुई हैं। गरीबों की कीमत पर बढ़ती अमीरी गरीबी निवारण के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा बन गई है। आधुनिक आर्थिक अवधारणा विषमता को बढ़ने से रोकने में सफल नहीं हो पाई है। गरीबी नियंत्रण के लिए सरकार को कुछ त्वरित कदम उठाने की जरूरत है, जैसे ग्रामीण अर्थव्यस्था की मजबूती के लिए, पशुपालन और कृषि में तकनीकी सुधार के साथ सुविधाएं और प्रोत्साहन देना होगा।

स्वरोजगार के अवसरों में वृद्धि की जानी चाहिए। गांवों को स्वरोजगार केंद्र के रूप में विकसित करने की आवश्यकता है। अधिक से अधिक महिलाओं को स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे। व्यापक सामाजिक सुरक्षा योजनाएं बनाई जानी चाहिए। साधनों के निजी स्वामित्व, आय और साधनों के असमान वितरण और प्रयोग पर नियंत्रण लगाया जाना चाहिए। अमीरों की पूंजीवादी नीतियों में बदलाव करके उसे वंचित लोगों के जीवनस्तर को ऊंचा उठाने वाली जनकल्याणकारी योजनाओं के लिए उपयोग किया जाना चाहिए। भारत में कंपनियों के शीर्ष एक्जीक्यूटिव का वेतन करोड़ों में है, वहीं ग्रामीण गरीबों के पास श्रम और आय की दिनों दिन कमी होती जा रही है। इस समस्या के समाधान के लिए ग्रामीण भारत के विकास को मुख्यधारा से जोड़े जाने की जरूरत है। अब कई अर्थशास्त्री यह मानने लगे हैं कि गांधीजी द्वारा बताए गए मार्ग को छोड़ कर देश ने बड़ी गलती की है, जिसका खमियाजा गरीबी के साथ आज हम भुगत रहे हैं। गांधीजी का मानना था कि कृषि विकास हमारी योजनाओं का मुख्य आधार होना चाहिए, जिसकी बुनियाद पर गृह उद्योग तथा ग्रामोद्योग की रूपरेखा गांवों के विकास के लिए बनानी चाहिए। आज कृषि और गृह उद्योग दोनों हाशिए पर हैं। अमीरों को भी गांधी दर्शन सादगी और भौतिक आवश्यकताओं पर नियंत्रण का मार्ग दिखाता है, जो गरीबों के कल्याण के लिए भी उपयोगी है। लोकतंत्र विभिन्न वर्गों के लोगों के भौतिक, आर्थिक, सामाजिक और आध्यात्मिक संसाधनों को सार्वजनिक हित में लगाने की कला है। अब देश की गरीब आबादी को आय के सम्मानजनक स्तर तक लाना ही होगा। गरीबी उन्मूलन के लिए खाका बना कर नई कार्ययोजना को त्वरित रूप से क्रियान्वित किए जाने की जरूरत है, ताकि फासले को पाटा जा सके।


 

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