26-02-2019 (Important News Clippings)

Afeias
26 Feb 2019
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Date:26-02-19

Wanted, Differential Voting Rights Shares

DVR shares enable founders to retain control

ET Editorial

IndiaTech, an advocacy group for Indian technology industry, has put forward a demand for liberalising the current regime for companies to issue shares with differential voting rights (DVRs), with a view to letting Indian companies access large pools of available capital without the founders having to give up control. This newspaper had raised precisely this demand in the wake of the takeover of promising large Indian startups by foreign companies because the founders’ stake and voting rights had shrunk to a minority holding after successive rounds of raising capital from financial investors.

The founders of Google and Facebook are able to retain control of their companies because the shares of these companies have differential voting rights and the founders showed the prudence to retain enough voting shares to retain control, even as they raised money from external investors. In India, the company law does allow, in its 2013 version, a company to issue shares with differential voting rights. But these enabling provisions leave too many things to be desired to yield practical benefit. For one, only companies with a track record of making profits can issue shares with differential voting rights. Further, the total quantity of differential voting rights shares cannot be more than 26% of the total shares issued. Nor can shares of one type be converted to shares of the other type. While the law does not bar shares with more than one voting right each, market regulator Sebi’s rules appear to rule them out. Every one of these conditions should be relaxed. This would allow Indian startups to stay Indian even as they grow, raising capital from any available pool.

Shares with differential voting rights are not an unalloyed blessing, however. These distort the market for corporate control. A functional market for corporate control keeps, in theory, share prices at their optimal level and companies at their functional best. Therefore, it would make sense to allow differential voting rights shares for a finite period after the founding of a company and for this to be clear to founders and investors.


Date:26-02-19

बदलते हुए दौर में कारगर नहीं होगा मध्यवर्गीय पर्यावरणवाद

सुनीता नारायण

मैंने कुछ हफ्ते पहले यह सवाल पूछा था कि भारत जैसा देश क्या आर्थिक वृद्धि एवं स्थायित्व के पुराने रास्ते पर चलने का खतरा उठा सकता है या उसे नई राह अपनानी होगी? मैंने यह भी कहा था कि अलग तरीके से वृद्धि करने की चाह कम है लेकिन ऐसा होना चाहिए। हमारे सिर तक पहुंच चुके कृषि संकट पर गौर कीजिए। आज किसान का चेहरा खबरों में है। यह साफ है कि अतीत एवं वर्तमान की सरकारों ने इस दिशा में जो भी कदम उठाए हैं, वे कारगर नहीं हो रहे हैं। भारतीय किसान दोहरी मार झेल रहा है। एक तरफ खाद्य उत्पादों की उपज में आने वाली लागत बढ़ रही है क्योंकि उत्पादन में लगने वाली वस्तुओं की कीमतें बढ़ गई हैं। मौसम के बदलते एवं तीखे होते मिजाज ने भी किसानों की उपज पर असर डाला है। दूसरी तरफ सरकारें महंगाई स्तर को काबू में रखने के लिए खाद्य उत्पादों की कीमतें कम चाहती हैं। सरकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत बड़े पैमाने पर अनाज की खरीद भी करनी होती है, लिहाजा वह उनकी कीमतें नियंत्रण में चाहती हैं। कृषि उत्पादकों के लाभ देने या मार्केटिंग सहयोग देने वाले ढांचागत क्षेत्र में भी बहुत कम निवेश हुआ है। जलवायु परिवर्तन और लगातार बदलते मौसम के चलते खेती के काम में जोखिम बढ़ गया है।

सुस्थापित आर्थिक शब्दकोशों का यह दृढ़ विश्वास है कि खेती अब या तो अनुत्पादक हो गई है या कम-उत्पादक रह गई है और इसे तगड़ा धक्का लगाने की जरूरत है। कहा जाता है कि इस अनुत्पादक कारोबार से इतनी बड़ी संख्या में भारतीय लोग जुड़े हुए हैं कि यह कारगर हो ही नहीं सकती है। लेकिन यह दलील कोई जवाब नहीं है। अगर खाद्यान्न उपजाने वाला कारोबार यानी खेती से लोगों को रोजगार नहीं मिलेगा तो फिर कौन रोजगार देगा? हम जितनी शिद्दत से औपचारिक अर्थव्यवस्था को अपनाना चाहते हैं, वह रोजगार को छोड़कर बाकी सभी नजरिये से अच्छी है। हमें इसका अहसास है।

हमें इस कृषि संकट के शहरी परिदृश्य को भी पहचानना होगा। आज अगर जमीन, पानी या जंगल का आजीविका के लिहाज से कोई भविष्य नहीं है तो लोगों के पास शहरी इलाकों में प्रवास के सिवाय कोई चारा नहीं है। शहरी इलाकों में कामगारों की संख्या बढऩे से सेवा एवं प्रदूषण की समस्या भी बढ़ेगी। सच तो यह है कि मौजूदा शहरी वृद्धि कानूनी दायरे में संचालित होने वाले आवासीय एवं वाणिज्यिक प्रतिष्ठानों के ‘वैध’ क्षेत्रों में नहीं हैं। शहर अवैध क्षेत्रों में विस्तारित हो रहे हैं जहां पर तमाम आवासीय एवं वाणिज्यिक गतिविधियां सरकारी अनुमति के बगैर ही चल रही हैं। विडंबना ही है कि अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने के लिए सरकार जितनी मेहनत कर रही है, हालात लोगों को उतनी ही तेजी से गैरकानूनी एवं अनौपचारिक कारोबार की ओर धकेल रहे हैं।

पर्यावरण संरक्षण के मामले में भी यही बात लागू होती है। भारत के संदर्भ में, हम किसी अन्य देश पर अपनी पर्यावरणीय लागत नहीं डाल सकते हैं। लेकिन हम इसे औपचारिक कारोबार और संगठित औद्योगिक क्षेत्र में सक्रिय इकाइयों से अनधिकृत एवं रिहायशी इलाकों से बाहर ले जाने की कोशिश करते हैं। अब कारोबार भी प्रदूषण फैलाता है लेकिन वह नियामकों के दायरे से बाहर है। नियमन की लागत के चलते शासन महंगा हो जाता है और भारत जैसा देश इसका बोझ नहीं उठा सकता है। इसके चलते प्रदूषण बढ़ता जाता है और उसी के साथ खराब सेहत का दायरा भी बढ़ता है।

लेकिन यह भी साफ है कि भारत जैसे देश में गरीब का पिछवाड़ा अमीर के अगवाड़े से जुदा नहीं है। कारोबार के गैरकानूनी होने पर उसके उत्सर्जन का नियमन करना अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। इसी वजह से हवा प्रदूषित हो रही है। इसकी चपेट में गरीब और अमीर दोनों आते हैं। सीवेज एवं औद्योगिक नालों के मामले में भी यही स्थिति है। गरीबों का गैरकानूनी निपटान अमीरों के शोधित कचरों से मिलकर नदियों को खत्म कर रहा है। हमारे जल स्रोतों का प्रदूषण इस संपर्क-विकार की चुनौती और स्वास्थ्य बोझ को बढ़ा देता है। कचरे के मामले में भी यही हालात हैं। अवैध बस्तियों में कचरा निपटान का कोई इंतजाम नहीं होने से वे कचरे को जला देते हैं जिससे आसपास की हवा जहरीली हो जाती है।

यही वजह है कि भूमडंलीकरण का मॉडल हमारे लिए कारगर नहीं होगा। इस मॉडल ने उत्सर्जन का स्वरूप बदल दिया लेकिन उपभोग में कोई गिरावट नहीं आई। हम अपने घर के पीछे की तरफ रहने वाले गरीबों की ओर प्रदूषण को खिसका सकते हैं, हम पर्यावरण एवं श्रम की लागत भी कम कर सकते हैं लेकिन हमें इसका झटका सहना होगा। यह काम कोई और नहीं करेगा। इस तथ्य से भागा नहीं जा सकता है। आज चीन जिस तरह से पश्चिमी दुनिया के प्लास्टिक एवं अन्य अवशिष्टों के लिए अपने दरवाजे बंद कर रहा है, उससे यही लगता है कि उसे इन अवशिष्टों के निपटान से जुड़े दर्द का अहसास हो रहा है। अमेरिका के अपेक्षाकृत विपन्न इलाकों में कचरा निपटान केंद्र लगाए जाने का अब लगातार विरोध हो रहा है। लोग अपने पिछवाड़े में उत्सर्जन होने के पक्ष में नहीं हैं। ऐसा कौन करेगा? यह अपने आप में एक चुनौती है।

इसी वजह से मैं यह कहती रही हूं कि मध्यवर्गीय पर्यावरणवाद भारत में काम नहीं करेगा। हमारे लिए संवहनीयता का अर्थ समावेशी एवं वहन की जा सकने वाली वृद्धि से है। लेकिन संभवत: तकनीकी समाधान की वकालत करने वाले और समस्या को दूसरे क्षेत्रों की तरफ धकेलने में यकीन रखने वाले सिद्धांत ‘मध्यवर्गीय पर्यावरणवाद’ का युग अब खत्म हो जाएगा। हम अपने अवशिष्टों को किसी अन्य ग्रह पर तो ले नहीं जा सकते हैं। हमें यह समझने का वक्त आ चुका है।


Date:26-02-19

मजबूत जनसंख्या नीति से होगा गरीबी उन्मूलन

भारत, जनसंख्या वृद्धि की समस्या से गंभीरतापूर्वक निपटने में नाकाम रहा है और इसकी वजह से हम गरीबी उन्मूलन के वैश्विक औसत तक पहुंचने में नाकाम रहे हैं।

पार्थसारथि शोम

गत माह मैंने अपने आलेख में चीन के जनसंख्या नियंत्रण का जिक्र करते हुए कहा था कि वह अपनी जनसंख्या नियंत्रण नीति की बदौलत सन 1960 के दशक के अंत से ही प्रति व्यक्ति जीडीपी वृद्धि के मामले में निरंतर भारत से आगे बना रहा। दोनों देशों के बीच जीडीपी वृद्घि दर का वह अंतर आज भी कायम है और चीन को निरंतर नई ऊंचाइयों पर ले जा रहा है। बीच के दशकों में चीन एक-एक करके सभी आर्थिक और सामाजिक-आर्थिक संकेतकों पर भारत से काफी ऊपर निकल गया। हां, जैसा कि मैं पहले भी जिक्र कर चुका हूं, केवल मानवाधिकार के मामले में चीन भारत से आगे नहीं निकल सका।

अगर हम विभिन्न देशों की आबादी में होने वाली वृद्धि के बरअक्स उन देशों की जीडीपी वृद्धि दर और प्रति व्यक्ति जीडीपी को रखकर देखें तो एक अलग ही तस्वीर नजर आती है। एक तरह से देखा जाए तो जनसंख्या नियंत्रण की स्थिति में जीडीपी वृद्धि में स्पष्ट सुधार देखने को मिलता है जबकि अगर नियंत्रण न हो तो जीडीपी में गिरावट साफ नजर आती है। इस प्रभाव को साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। सन 1969 से 2017 के बीच भारत का प्रदर्शन जहां कुछ हद तक ही बेहतर हो सका, वहीं सन 2010 तक चीन के प्रदर्शन में बेमिसाल ढंग से सुधार आया। सन 2010 के बाद चीन के प्रदर्शन में कुछ गिरावट आई है। इसके लिए हाल के कुछ वर्षों में चीन द्वारा जनसंख्या नीति में बरती गई नरमी को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। साफ जाहिर है कि एक लक्षित और सार्थक जनसंख्या नीति की मदद से भारत अपने प्रति व्यक्ति जीडीपी और उसमें होने वाली वृद्धि, दोनों में अच्छा खासा सुधार कर सकता है।

इतना ही नहीं जनसंख्या से प्रभावित होने वाला एक अन्य प्रमुख संकेतक है एक्सट्रीम पॉवर्टी हेडकाउंट रेश्यो (ईपीएचआर)। इसका आकलन इस आधार पर किया गया है कि आखिर किसी देश की कितनी आबादी प्रति दिन 1.90 डॉलर से कम आय पर गुजारा कर रही है। यह आकलन सन 1980 से 2015 तक की अवधि के लिए किया गया है। सन 1981 में चीन की 89 फीसदी आबादी इस मानक के नीचे जीवन बिता रही थी जबकि उस वक्त तक भारत की केवल 57 फीसदी आबादी ऐसी थी जो 1.90 डॉलर रोजाना से कम आय पर जी रही थी। उस समय ऐसे लोगों का वैश्विक औसत महज 42 फीसदी था। ब्राजील 21 फीसदी के आंकड़े के साथ इस स्तर से बहुत बेहतर स्थिति में था। परंतु चीन ने अपनी स्थिति में जबरदस्त सुधार करते हुए 2000 के दशक तक भारत को पीछे छोड़ दिया। सन 2015 तक ईपीएचआर संकेतक के मामले में भारत की आबादी का 13.4 फीसदी, ब्राजील की आबादी का 3.4 फीसदी और चीन की आबादी का 0.7 फीसदी इस दायरे में था।

इस समय वैश्विक औसत 10 फीसदी था। इस लिहाज से देखा जाए तो भारत वैश्विक औसत से खराब हालत में था जबकि चीन इस संकेतक से कमोबेश गायब ही था। चीन की हालत में यह सुधार उसके आर्थिक प्रदर्शन में आए सुधार की बदौलत था। यह सुधार उसने आबादी को नियंत्रित कर हासिल किया। एक आकलन सन 1981 से 2015 के बीच ईपीएचआर के दायरे में आने वाले लोगों का भी है। वैश्विक स्तर पर सन 1981 में करीब 1.9 अरब लोग अत्यधिक गरीब की श्रेणी में आने वाले थे। परंतु, सन 2015 में यह आंकड़ा सुधरकर 73.6 करोड़ रह गया। यानी 35 वर्ष में इसमें कुल मिलाकर 61 फीसदी की कमी आई। चीन में इस अवधि में आंकड़ा 87.8 करोड़ से घटकर एक करोड़ पर आ गया यानी उसने 99 फीसदी की कमी की। भारत 40.9 करोड़ से घटकर 17.5 करोड़ पर आया यानी 57 फीसदी की कमी। लेकिन भारत के मामले में यह कमी औसत से कम थी। समान अवधि में ब्राजील में यह आंकड़ा 3.6 करोड़ से घटकर 70 लाख पर आ गया। यह कमी 74 फीसदी थी जिसे वैश्विक औसत की तुलना में काफी बेहतर प्रदर्शन करार दिया जा सकता है। इन तीन देशों में केवल भारत का प्रदर्शन ही वैश्विक औसत से नीचे रहा। कहा जा सकता है कि आबादी पर नियंत्रण न रख पाना भारत के कमजोर प्रदर्शन की एक वजह रहा। व्यक्तिगत स्तर पर आर्थिक स्थिति में सुधार से जहां जन्म दर कम करने में मदद मिलती है, वहीं इसके ठीक उलट कम जन्म दर के कारण आर्थिक समृद्घि आती है और गरीबी में कमी आती है। विभिन्न देशों में हुए शोध इस दो दिशाओं वाले रिश्ते को स्पष्ट करते हैं। उदाहरण के लिए पूर्वी एशिया और दक्षिण पूर्वी एशिया जिसमें थाईलैंड, इंडोनेशिया और हिंद-चीन क्षेत्र के देशों में पिछले 25 वर्ष के दौरान जन्म दर में काफी गिरावट आई है। जनसंख्या मामलों के विशेषज्ञ माने जाने वाले स्टीवन सिंडलिंग इस बात की पुष्टि करते हैं कि इन देशों में गरीबी में कमी और जीवन स्तर में सुधार के लिए काफी हद तक उनकी सफल जनसंख्या नियंत्रण नीति को श्रेय दिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त कई अन्य समाज विज्ञानी अफ्रीका से भी ऐसे प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं। फिलहाल एक बात साफतौर पर कही जा सकती है कि दुनिया के कई देशों को इन नीतियों को अपनाने की आवश्यकता है।

भारत गरीबी के भंवर से तभी बाहर निकल सकता है जबकि देश में जनसंख्या को नियंत्रित किया जा सके और आर्थिक नीतियां सब्सिडी को नहीं बल्कि वृद्घि को बढ़ावा देने वाली हों। एक सुझाव तो यह भी है कि वित्त आयोग को भी जनसंख्या वृद्घि दर को केंद्र राज्य की राजस्व साझेदारी में नकारात्मक मानक के रूप में दर्ज करना चाहिए। अगले कुछ महीनों में देश में आम चुनाव होने वाले हैं। इन चुनावों के दौरान विभिन्न राजनीतिक दलों को अपनी-अपनी पार्टी के घोषणापत्रों में जनसंख्या नियंत्रण नीति को स्पष्ट रूप से शामिल करना चाहिए। जनसंख्या नियंत्रण के लिए जरूरत के मुताबिक प्रोत्साहित करने और हतोत्साहित करने वाले उपायों का भी प्रयोग करना चाहिए। अगर समय रहते कदम नहीं उठाए गए तो देश की आबादी बढ़ती रहेगी और आने वाले बच्चे गरीबी का जीवन जीने को अभिशप्त होंगे।


Date:26-02-19

कश्मीरी इतिहास के गालों से आंसू कौन पोंछेगा ?

संपादकीय

कश्मीर में जो हालात शुरुआत में थे, वही आज भी हैं। जब-तब भावनात्मक उबाल आते रहते हैं। कुछ दिन बाद ही सब कुछ फिर उसी अनिर्णय की खाई में चला जाता है, जो महाराजा हरि सिंह के वक्त कश्मीर में क़ाबिज़ था। समझ में नहीं आता, आख़िर इतिहास के गालों से आंसू कौन पोंछेगा? इतिहास देखें तो, वैसे महाराजा हरि सिंह के शासनकाल में जम्मू-कश्मीर का प्रशासन अच्छा था। पहले पोलिटिकल डिपार्टमेंट द्वारा चुने गए अधिकारियों के प्रशासन में और उसके बाद में हरचंद महाजन, गोपालस्वामी अय्यंगार, महाराज सिंह और बीएन राव जैसे सुयोग्य प्रशासकों के मातहत। कहने को महाराज ख़ुद भी कार्यक्षम और परिश्रमी थे, परंतु उनके चरित्र में अनिर्णय और असमंजस का भारी दोष था।

अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान की ओर से कराए गए कबाइली आक्रमण को भारतीय फ़ौज द्वारा ध्वस्त कर दिए जाने के बावजूद महाराजा इस असमंजस में थे कि वे कश्मीर को भारत के साथ मिलाएं या नहीं! दरअसल, वे अपना स्वतंत्र कश्मीर चाहते थे। एक छोटे से कौमी आंदोलन के अदने से पात्र रहे शेख अब्दुल्ला कश्मीर को अपनी उंगलियों पर नचाने लगे तब भी महाराजा कोई निर्णय लेने की स्थिति में नहीं थे। यहां तक कि शेख अब्दुल्ला की ज़िद और इस ज़िद की तरफ़ पंडित जवाहरलाल नेहरू के चुम्बकीय खिंचाव के कारण जब महाराजा को कश्मीर छोड़ मुंबई में बसना पड़ा तब भी उनका असमंजस जस का तस था। कश्मीर पर असमंजस अब भी वैसा ही है। वर्षों इस देश और कश्मीर पर निष्कंटक राज करने वाली कांग्रेस से तो किसी को कोई उम्मीद थी नहीं, लेकिन उतने ही वर्षों तक अनुच्छेद 370 को हटाने की रट लगाने वाली भाजपा भी इस दिशा में कुछ नहीं कर सकी। अब तो आपका ही शासन है, फिर यह सब क्यों चल रहा है? जब कोई बड़ा आतंकी हमला होता है, कुछ दिन भावनाओं का घमासान चलता है, बाद में तमाम राजनेता और समूची सरकार गूंजती उदासी के लंबे-लंबे घूंट भरती रहती है। क्यों? आज़ादी के इतने साल बाद भी यही सब चलता रहा तो बताइए- राजनीति के स्वच्छ बचपन के लिए भविष्य की लोरियां कौन लिखेगा? कश्मीर को अगर संकट मुक्त करना है तो केवल चुनाव तक कश्मीरी राग छेड़ने से कुछ नहीं होगा। तीसों दिन एक ही नीति, एक ही रीति और बला की सख्ती के साथ चलना होगा। इसके अलावा न कोई रास्ता है, न कोई समाधान ।


Date:26-02-19

सिंधु जल समझौता तोड़ने का वक्त

सिंधु जल समझौता सद्भाव के आधार पर हुआ था। जब दोनों देशों में सद्भाव ही न रहे तो इसे तोड़ देना ही अच्छा।

डॉ. भरत झुनझुनवाला , (लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आईआईएम, बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं)

पुलवामा आतंकी हमले के जवाब में सैन्य कार्रवाई के हमारे विकल्प सीमित दिखते हैं, क्योंकि पाकिस्तान के पास भी परमाणु अस्त्र हैं। कोई भी सैन्य कार्रवाई परमाणु युद्ध में बदल सकती है, जो दोनों देशों पर बहुत भारी पड़ेगी। पुलवामा के बाद भी पाकिस्तान द्वारा भारतीय सरहद के भीतर गोलाबारी जारी है। लगता है कि पाकिस्तान भारत की विवशता को समझ रहा है कि हम सैन्य कार्रवाई नहीं कर सकेंगे और हमारी इस मजबूरी का वह लाभ उठा रहा है। इस परिस्थिति से निपटने के लिए भारत सरकार ने आर्थिक मोर्चेबंदी करने की रणनीति अपनाई है। पाकिस्तान से आयात होने वाली सभी वस्तुओं पर 200 प्रतिशत का आयात कर लगा दिया है, जिसके कारण पाकिस्तान से कोई भी आयात संभव नहीं होगा, मगर पाकिस्तान द्वारा भारत को किए जाने वाले निर्यात उसके कुल निर्यातों का मात्र 1.4 प्रतिशत है। पाकिस्तान भारत को मुख्य रूप से सीमेंट, फलों का निर्यात करता है। ऐसा नहीं कि ये वस्तुएं केवल भारत को ही निर्यात होती हैं। ऐसे में पाकिस्तान इन्हें दूसरे देशों को निर्यात करने का रास्ता निकाल लेगा। हालांकि फलों को फौरी तौर पर दूसरे देशों में निर्यात करने में जरूर कुछ मुश्किलें आ सकती हैं। इससे किसानों को घरेलू मंडी में माल बेचना होगा, घरेलू बाजार में फल के दाम कम होंगे और घरेलू खपत बढ़ेगी। जैसे किसान का दूध बिकना कम हो जाए तो घर के बच्चों को दूध अधिक मिलता है। इसका पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा, परंतु संकट जैसी स्थिति पैदा नहीं होगी। इसलिए आयात कर की इस वृद्धि का पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर कोई विशेष प्रभाव पड़ने की संभावना कम ही है।

हालांकि पाकिस्तान की वित्तीय हालत पहले से ही खराब है, लेकिन इस कमजोर वित्तीय स्थिति से भी पाकिस्तान टूटेगा नहीं। चीन और सऊदी अरब ने पाकिस्तान को धन उपलब्ध करा दिया है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष भी पाकिस्तान को धन उपलब्ध करने को तैयार है। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस हाल में भारत आए थे। उन्होंने आतंकवाद के विरोध में कुछ बातें जरूर कहीं, लेकिन पाकिस्तान का नाम नहीं लिया जो कि उनके पाकिस्तान के समर्थन को ही दर्शाता है। ऐसे हालात में हमें सिंधु जल समझौते को निरस्त करने पर विचार करना चाहिए। पाकिस्तान के पास कुल 1450 लाख एकड़ फुट नदी का पानी उपलब्ध है। 1 लाख एकड़ फुट का अर्थ हुआ एक एकड़ भूमि पर एक फुट जितना पानी उपलब्ध हो। इस 1450 लाख एकड़ फुट जल में 1160 लाख एकड़ फुट पानी सिंधु, झेलम और चिनाब नदियों से पाकिस्तान को मिलता है, जो कि भारत से होकर ही बहती हैं। वर्षा के पानी को छोड़ दें तो नदियों से मिलने वाले पानी का अस्सी प्रतिशत पानी पाकिस्तान को भारत से मिलता है। यही पानी सर्दी और गर्मी में पाकिस्तान की कृषि, उद्योगों और शहरों के काम आता है। यदि हम इस पानी को रोक लें तो पाकिस्तान को जल्द ही घुटने टेकने पड़ सकते हैं, लेकिन ऐसा करने में भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ सिंधु जल समझौता आड़े आता है। हालांकि इसका भी रास्ता उपलब्ध है।

सिंधु जल समझौते की प्रस्तावना में लिखा गया है कि भारत और पाकिस्तान ने इस समझौते पर सद्भाव और मित्रता के आधार पर दस्तखत किए हैं। कानून के जानकारों के अनुसार किसी भी कानून को समझने के लिए उसकी प्रस्तावना को देखना पड़ता है कि उसका उद्देश्य क्या था? उद्देश्य के अनुसार ही कानून का विवेचन होता है। सिंधु जल समझौते को हमने सद्भाव एवं मित्रता बनाए रखने के लिए किया था। जब यह सद्भाव और मित्रता ही नहीं रही तो सिंधु जल समझौते का आधार ही खत्म हो जाता है। हमें इसे निरस्त करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। यह सही है कि समझौते में लिखा है कि इसमें कोई भी परिवर्तन आपसी समझौते से ही किया जाएगा, लेकिन जब समझौता ही रद्द हो जाए तो उसमें किए गए प्रावधानों का कोई मतलब नहीं रह जाता। जैसे भारत के स्वतंत्र होने पर ब्रिटिश राज्य द्वारा बनाए गए नियमों एवं कानूनों का कोई औचित्य नहीं रह गया।

मान लीजिए आपने किरायेदार से समझौता किया कि वह दीवार पर कुछ नहीं लिखेगा। इस समझौते का कोई वजूद नहीं रह जाता, यदि किरायेदार ने आपका घर ही खाली कर दिया। सिंधु जल समझौते में यह व्यवस्था भी है कि मतभेद होने पर विश्व बैंक की मध्यस्थता की जाएगी। ध्यान दें कि मध्यस्थता का अर्थ साथ में वार्ता करना मात्र होता है। विश्व बैंक न तो निर्णय दे सकता है, न ही कोई पक्ष विश्व बैंक की सलाह मानने को बाध्य है। फिर भी इस प्रावधान के तहत हम विश्व बैंक को नोटिस दे सकते हैं कि एक सप्ताह के भीतर यदि पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद समाप्त नहीं हुआ तो हम इस समझौते को रद्द कर देंगे। इसके लिए हमें अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से भी सीख लेनी चाहिए जिन्होंने मेक्सिको और कनाडा से हुए मुक्त व्यापार समझौतों को एक चुटकी में निरस्त कर दिया। इसी प्रकार हमें भी सिंधु जल समझौते को निरस्त करने पर विचार करना चाहिए।

एक और विषय यह है कि चंद जिहादी लोगों ने पूरी दुनिया को कैसे भयाक्रांत कर रखा है? फिर चाहे वह अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड टावर पर हुआ हवाई हमला हो या हाल का पुलवामा आतंकी हमला। उनकी ताकत दर्शाती है कि इस्लाम में जिहाद के आंतरिक और बाह्य पक्ष दोनों एक साथ चलते हैं। न्यू वर्ल्ड इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार जिहाद के अंतर्गत मुसलमानों की जिम्मेदारी बनती है कि वे आध्यात्मिक विकास के लिए आंतरिक युद्ध और इस्लाम के प्रसार के लिए बाहरी युद्ध दोनों करें। ऐसा करने से जिहादी युवक के मानस में आंतरिक ऊर्जा और इस्लाम के विकास के लिए बाहरी कार्य का जुड़ाव हो जाता है। जब जिहादी लड़ाका आत्मघाती हमला करता है तो उसे विश्वास रहता है कि वह जन्न्त में जाएगा और इस्लाम का विस्तार भी करेगा। इसलिए उन्हें इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने में तनिक भी संकोच नहीं होता। इसके विपरीत हिंदू और बौद्ध धर्म में आंतरिक और बाहरी युद्धों को अलग-अलग किया गया है। हिंदू धर्म में निवृत्ति और प्रवृत्ति दो भिन्न् मार्ग बताए गए हैं। बौद्ध धर्म में हीनयान और महायान दो अलग-अलग मार्ग बताए गए हैं। इस अलगाव का अर्थ यह हुआ कि जब हिंदू युवक बाहरी कार्य करता है तो उसके मानस का आंतरिक ऊर्जा से जुड़ना अनिवार्य नहीं होता। यदि हिंदू युवक पाकिस्तान में प्रवेश कर आतंकवादी बने तो उसे कोई आंतरिक लाभ नहीं मिलेगा। हमारे युवक अपेक्षा करते हैं कि आंतरिक ऊर्जा से लैस पाकिस्तानी युवकों का सामना भारतीय सेना करेगी, न कि वे स्वयं। हमें इस समस्या का हल निकालना होगा। हमें अपने वैचारिक दृष्टिकोण में बदलाव लाने का प्रयास करना चाहिए और निवृत्ति एवं प्रवृत्ति को जोड़कर एक साथ करना चाहिए, जिससे हम आतंकवाद का सामना कर सकें। हिंदू और बौद्ध धर्मों के सामने असल चुनौती इस्लाम की नहीं, बल्कि इस आंतरिक सुधार की है।


Date:25-02-19

पुरानी लकीर को पीटता चीन

हर्ष वी पंत प्रोफेसर किंग्स कॉलेज लंदन

पुलवामा हमले के बाद एक बार फिर भारत और चीन के रिश्तों पर संदेह के बादल मंडराने लगे हैं। इस हमले पर शुरुआती प्रतिक्रिया देते हुए चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि ‘हम इस घटना से गहरे सदमे में हैं। घायलों और शोक संतप्त परिवारों के प्रति हमारी गहरी संवेदना और सहानुभूति है’। उन्होंने यह भी कहा कि ‘हम आतंकवाद के सभी रूपों की कड़ी निंदा करते हैं। हमें उम्मीद है कि संबंधित देश आतंकवाद के खतरे से निपटने में सहयोग करेंगे और क्षेत्रीय शांति व स्थिरता बनाए रखने के लिए साझा प्रयास करेंगे’। मगर जब उनसे मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा वैश्विक आतंकी घोषित करने के चीन के रुख के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब वही पुराना था। नई दिल्ली की इस मांग पर बीजिंग का अब तक यही कहना रहा है कि ‘जैश-ए-मोहम्मद को प्रतिबंधित आतंकी संगठनों की सूची में शामिल किया जा चुका है। चीन जिम्मेदार और रचनात्मक तरीके से इस मांग पर गौर करेगा’।

बहरहाल, इस हमले को लेकर दुनिया भर में फैली नाराजगी के कारण चीन का रुख भी बहुत मामूली सा बदलता हुआ दिख रहा है। पहले उसकी तरफ से यह कहा गया कि मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने संबंधी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की चर्चा में वह ‘उद्देश्यपूर्ण, निष्पक्ष और पेशेवर तरीके’ से भाग लेगा। फिर, जब सुरक्षा परिषद ने इस हमले की निंदा करते हुए जैश-ए-मोहम्मद और उसके मुखिया मसूद अजहर का नाम लिया, तो उस पर भी चीन ने अपनी सहमति जताई। हालांकि तब भी, यह भरोसे से नहीं कहा जा सकता कि अब चीन का रवैया पूरी तरह बदल जाएगा। आज भी लगता यही है कि पाकिस्तान और मसूद अजहर को जिस तरह पिछले कुछ वर्षों से वह बचाता आ रहा है, आगे भी बचाता रहेगा। वह तमाम कूटनीतिक प्रयासों के बाद भी अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने की भारत की मांग टालता रहा है। इस वर्ष तो ऐसा दो बार हो चुका है, और हर बार बीजिंग का स्पष्टीकरण अनोखा होता है। इस बार तो चीन के उप-विदेश मंत्री ली बाओदोंग ने अपने देश के रुख को सही ठहराते हुए कहा कि ‘चीन आतंकवाद के सभी रूपों का विरोध करता है। आतंकवाद से निपटने का कोई दोहरा मापदंड नहीं होना चाहिए, और न ही आतंकवाद से लड़ाई के नाम पर कोई राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश होनी चाहिए’।

लिहाजा बीजिंग की बदलती भंगिमा में कई भारतीय बेशक आतंकवाद विरोधी प्रयासों में उसके साथी बनने की उम्मीद तलाश रहे हों, लेकिन चीन के नीति-नियंता इसे लेकर किसी उलझन में नहीं हैं। उनकी नजरों में, मसूद अजहर यदि आज कोई समस्या है, तो यह भारत का अपना किया-धरा है। दरअसल, मसूद को 1999 में वाजपेयी सरकार ने विमान संख्या आईसी- 814 के अपहरण के बाद अफगानिस्तान में बंधक बनाए गए विमान चालक दल और उसके यात्रियों के बदले रिहा किया था। उसके बाद से ही वह भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान के लिए मुश्किलें पैदा करता आया है। साल 2016 में जब जैश-ए-मोहम्मद ने पठानकोट के एयरबेस पर हमले की जिम्मेदारी कबूली, तब जाकर भारत ने मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा वैश्विक आतंकी घोषित करवाने के प्रयासों पर अपना ध्यान लगाया। चीन चूंकि सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य है और उसे वीटो पावर भी हासिल है। लिहाजा वह हर बार पाकिस्तान की मदद करता आया है। भारत के प्रस्ताव पर ‘तकनीकी’ आधार पर अडं़गा लगाने के बाद आखिरकार दिसंबर 2016 में उसने वीटो का इस्तेमाल करके उस पर रोक लगा दी।

डोका ला विवाद के बाद पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब अनौपचारिक बातचीत करने चीन के वुहान पहुंचे थे, तब दोनों देशों के रिश्तों में एक नई ताजगी आती दिखी। लेकिन वुहान बैठक भी मसूद अजहर को लेकर चीन के रुख को बदलने में सफल न हो सकी। भारत के लिए वुहान सम्मेलन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की अस्थिर आर्थिक नीतियों के नकारात्मक प्रभावों को दूर करने का एक प्रयास था, तो चीन के लिए वह एक ऐसे समय में भारत के साथ अपने रिश्तों को सुधारने का मौका था, जब वाशिंगटन सिर्फ बीजिंग को निशाना बना रहा था। हालांकि तब भी इसका मतलब यह कतई नहीं था कि भारत के साथ लगने वाली सीमा पर सैनिकों की तैनाती और स्थाई निर्माण के कार्य चीन टाल देगा या दक्षिण एशिया और हिंद महासागर क्षेत्र में भारत को चुनौती देना वह बंद कर देगा। भारत के खिलाफ ‘नॉन-स्टेट एक्टर्स’ का समर्थन चीन लंबे समय से करता आया है। भारत के पूर्वोत्तर में विद्रोहियों को उकसाने में उसकी भूमिका तो जगजाहिर है।

यही वजह है कि पुलवामा हमले के बाद भले ही भारत ने पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए कूटनीतिक प्रयास शुरू कर दिए हैं, लेकिन यह पूरी तरह सफल होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता। चीन और सऊदी अरब जैसे देश पाकिस्तान के अब भी प्रमुख सहयोगी हैं। सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलमान ने भारत आने से पहले पाकिस्तान के साथ एक ऐसे घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किया है, जो ‘संयुक्त राष्ट्र की आतंकी सूची को लेकर किसी भी तरह की राजनीति’ से बचने की बात कहता है। यह जाहिर तौर पर मसूद अजहर के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रयासों पर निशाना साधता है।

साफ है, चीन भी पहले की तरह पाकिस्तान का कवच बना रहेगा। वुहान बैठक से जो भावना निकलकर बाहर आई थी, यदि वह अब भी अस्तित्व में है, तो अपनी आखिरी सांसें ही गिन रही है। इसीलिए चीन को कड़ा जवाब देने का वक्त आ गया है। अगर वह अपनी पुरानी पाकिस्तान-नीति जारी रखता है, तो भारत को भी अपनी चीन-नीति की पड़ताल करनी चाहिए। भले ही दोनों एशियाई ताकत कई वैश्विक हितों को साझा करते हों, लेकिन कुछ मनगढ़ंत रिश्तों की वेदी पर द्विपक्षीय मसलों को कुर्बान किया जा रहा है। चीन को अब यह संदेश मिल ही जाना चाहिए कि पारंपरिक राह पर आगे बढ़ने का कोई मतलब नहीं है।


Date:25-02-19

पर्यावरण लागत के प्रति कब संजीदा होंगी सरकारें

वीरेंद्र कुमार पैन्यूली सामाजिक कार्यकर्ता

अब यह कोई ढकी-छिपी बात नहीं है कि प्राकृतिक संसाधनों की हमारी पूंजी घटती जा रही है और जलवायु परिवर्तन की वैश्विक चुनौतियां गंभीर रूप लेने लगी हैं। ऐसे में, विकास संबंधी विभिन्न योजनाओं की स्वीकृति में नए दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है। जाहिर है, देश के प्राकृतिक संसाधनों के ट्र्र्रस्टी के रूप में सरकारों और नीति आयोग को इस दायित्व को निभाना चाहिए। उन्हें इसके लिए देश में वातावरण बनाना चाहिए।

यह एक अविवादित तथ्य है कि विभिन्न परियोजनाओं के क्रियान्वयन में वित्तीय लागत के अलावा पारिस्थितिकीय लागत भी आती है। कुछ लोग इसे छिपी हुई लागत कहते हैं। इसकी क्षतिपूर्ति के लिए योजनाओं की स्वीकृति के स्तर पर ही प्रावधान करना तर्कसंगत होगा। वित्तीय लागत के साथ-साथ पर्यावरणीय लागत के आकलन के लिए नीति आयोग में विशेषज्ञता लानी होगी। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने देश में भूजल के चिंताजनक आंकड़ों और एनजीटी के आदेश के परिपे्रक्ष्य में पुल, आवास, राजमार्ग निर्माण और इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी ऐसी ही योजनाओं के लिए, जिनमें भूजल का भारी उपयोग होता है, केंद्र या राज्य भूजल प्राधिकरणों से अनापत्ति प्रमाणपत्र लेना अनिवार्य कर दिया है। इसके बाद ही पर्यावरण मंजूरी का निर्णय होगा।

हमें यह हमेशा स्मरण रहना चाहिए कि प्रकृति से मिले सीमित संसाधनों को वर्तमान पीढ़ियों के विकास में ही इतना न खर्च कर दें या उन्हें इस कदर प्रदूषित न कर दें कि आने वाली पीढ़ियों को अपना विकास करना ही मुश्किल हो जाए। इन संसाधनों के अंधाधुंध दोहन का असर सीमित करके नहीं देखा जा सकता। एक राज्य में हुआ विनाशकारी दोहन अन्य राज्यों या पूरे देश पर असर नहीं डालेगा या मानवकृत आपदाओं की बारंबारता नहीं बढ़ाएगा, इस गलतफहमी से उबरने का समय आ गया है। देश में ऐसे प्रसंगों की कमी नहीं है कि स्वीकृत चालू परियोजना के कारण जब स्थानीय समुदायों की प्राकृतिक संसाधनों तक पारंपरिक पहुंच बाधित हुई या फिर उनके जीवन और आजीविका पर खतरा आया, तो अदालतों ने हस्तक्षेप किया। कई परियोजनाओं पर रोक भी लगाई। जब कभी भी ऐसी स्थिति आई, संबंधित राज्य सरकार ने अरबों रुपये के नुकसान का रोना रोया। इस क्षति से बचने के लिए योजनाओं की कल्पना और क्रियान्वयन में जन-सुनवाई के महत्व को समझा जाना चाहिए। स्थानीय परिवेश में प्राकृतिक संसाधनों की क्षतिपूर्ति की राज्य की रणनीति क्या होगी और इसके लिए वह धन कहां से जुटाएगी, यह भी साझा किया जाना चाहिए।

यह सच है कि विकास योजनाओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता जरूरी है। वित्तीय संसाधनों के आवंटन का काम तो वित्त आयोग निर्धारित मानकों से तय करता रहा है, किंतु परियोजनाओं के लिए राज्यों को प्राकृतिक संसाधन के आवंटन की ऐसी कोई व्यवस्था नहीं रही। ऐसे में, यह तय किया जाना सामयिक होगा कि राज्यों की योजनाओं के लिए प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन किन मानकों से होगा? उदाहरण के लिए, गैर-वानिकी कार्यों के लिए वन भूमि का हस्तांतरण बिना केंद्र की अनुमति के आसान नहीं होता। ऐसे में, कई सड़कें, बिजली की लाइनें तथा पेयजल योजनाएं सालोंसाल लंबित रह जाती हैं। उनके लिए किए गए वित्तीय प्रावधान या तो बेकार हो जाते हैं या कम पड़ जाते हैं।

इसलिए स्वीकृत योजनाएं जमीन पर तभी उतरें, जब वित्त के साथ उनके लिए जरूरी जल, जमीन व अन्य प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता सुनिश्चित हो। चूंकि अब नीति आयोग द्वारा आवंटित संसाधनों के बल पर ही देश का नियोजित विकास नहीं टिका है और विभिन्न राज्य अपने-अपने तईं नीतिगत वातावरण बनाकर देसी-विदेशी पूंजी एवं संसाधन जुटा रहे हैं, ऐसे में यह और जरूरी हो जाता है कि पर्यावरणीय लागत के संदर्भ में उन योजनाओं पर शुरू में ही विचार हो। निजी क्षेत्र की योजनाएं भी नीति आयोग के सामने आएं। संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान ने कुछ वर्ष पूर्व कहा था कि यह निजी क्षेत्र ही है, जो दो-तिहाई से ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करता है। अत: हरित विकास के लिहाज से इसमें भी हस्तक्षेप होने चाहिए।


Date:25-02-19

Safety Nets

New rules on unregulated deposit schemes need to be backed up with proper checks

EDITORIAL

The savings of low-income Indian households have traditionally remained unprotected by the government when compared to those of the more affluent economic groups. But that may be about to change now. President Ram Nath Kovind on Thursday promulgated the Banning of Unregulated Deposit Schemes Ordinance, which bars all deposit schemes in the country that are not officially registered with the government from either seeking or accepting deposits from customers. The ordinance will help in the creation of a central repository of all deposit schemes under operation, thus making it easier for the Centre to regulate their activities and prevent fraud from being committed against ordinary people. The ordinance allows for compensation to be offered to victims through the liquidation of the assets of those offering illegal deposit schemes. Popular deposit schemes such as chit funds and gold schemes, which as part of the huge shadow banking system usually do not come under the purview of government regulators, have served as important instruments of saving for people in the unorganised sector. But these unregulated schemes have also been misused by some miscreants to swindle the money of depositors with the promise of unbelievably high returns in a short period of time. The Saradha chit fund scam in West Bengal is just one example of such a heinous financial crime against depositors. The Centre’s latest attempt to curb unregulated deposit schemes through an ordinance reflects a timely recognition of the need for greater legal protection to be offered for those depositors with inadequate financial literacy.

While the intent of the ordinance, which is to protect small depositors, is indeed commendable, the benefits that depositors will eventually derive from the new legislation will depend largely on its proper implementation. For one, policymakers will have to make sure that the bureaucrats responsible for the on-ground implementation of the ordinance are keen on protecting the savings of low-income households. There must also be checks against persons in power misusing the new rules to derecognise genuine deposit schemes that offer useful financial services to customers in the unorganised sector. In fact, in the past there have been several cases of politicians acting in cahoots with the operators of fraudulent deposit schemes to fleece depositors of their hard-earned money. Another potential risk involved when the government, as in this case, takes it upon itself to guarantee the legitimacy of various deposit schemes is that it dissuades depositors from conducting the necessary due diligence before choosing to deposit their money. The passing of tough laws may thus be the easiest of battles in the larger war against illicit deposit schemes.


 

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