27-05-2019 (Important News Clippings)

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27 May 2019
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Date:27-05-19

Different Ballgame

Indian voters are sophisticated enough to distinguish national from state polls

TOI Editorials

BJP’s huge mandate in the just concluded Lok Sabha polls has shaken up the political landscape. While many believed that the BJP-led NDA would return to government, the magnitude of victory has been stunning. It underlines the huge popularity that Prime Minister Narendra Modi enjoys across large parts of the country. The saffron surge has certainly become intimidating for opposition parties. That said, the second Modi wave or TsuNamo manifested precisely because this was a national election. And with visual media such as TV or social media dominant the polls were transformed into a presidential-style contest, at least in form. This is where Modi was perceived to be a peerless national leader.

However, the same formula could work in reverse in assembly elections, where the polls turn into a state-wide referendum on chief ministerial candidates. This provides an opening for opposition political parties. Odisha, which simultaneously held its assembly elections with the Lok Sabha polls, exemplifies this. Chief minister Naveen Patnaik’s BJD swept the assembly, while BJP picked up seats in the Lok Sabha constituencies. This shows that voters can be sophisticated and distinguish between national and state polls. The latter are likely to be decided on separate criteria.

This is also why Congress, after winning state elections in Madhya Pradesh, Rajasthan and Chhattisgarh last December, performed poorly in Lok Sabha polls in the same three states. Meanwhile, in Andhra Pradesh and Tamil Nadu, superlative performances of YSRCP and DMK highlighted that the space for regional parties remains intact. Even in Bengal where BJP made huge inroads during this Lok Sabha election, one can’t simply write off chief minister Mamata Banerjee and TMC in state polls due in 2021. Taken together, in India’s federal scheme it is the states that deliver. Performance on the ground is judged more critically here.


Date:27-05-19

इलेक्ट्रिक वाहनों का इस्तेमाल बढ़ाने की सरकारी पहल

देवांग्शु दत्ता

देश में इलेक्ट्रिक वाहनों के प्रोत्साहन के लिए तमाम नीतिगत कदम उठाए गए हैं। इन वाहनों के साथ कई लाभ जुड़े हैं। वे शून्य-उत्सर्जन के साथ शोर भी बहुत कम करते हैं। प्रति किलोमीटर उपभोग के संदर्भ में विद्युत ऊर्जा काफी सस्ती पड़ती है। इन वाहनों के इंजन में आंतरिक दहन (आईसी) इंजनों की तुलना में गतिशील हिस्से कम होते हैं। इस वजह से उनका रखरखाव आसान होता है और उनके ठप हो जाने की आशंका कम होती है। हाइब्रिड इंजनों के लिए भी यह बात सही है क्योंकि उसमें आईसी इंजन को कम क्षति होती है।

हालांकि इलेक्ट्रिक वाहनों की कीमतें इनका एक नकारात्मक पहलू है। करों में कटौती के बावजूद इलेक्ट्रिक और हाइब्रिड वाहनों की कीमतें आईसी इंजन वाले वाहनों से काफी अधिक होती हैं। परिचालन लागत कम होने से इसकी थोड़ी भरपाई होती है फिर भी फर्क अधिक है। सुरक्षा का मुद्दा भी है। इलेक्ट्रिक वाहनों में आग लगने पर उसे बुझा पाना बहुत मुश्किल होता है। लिथियम-आयन बैटरी की आग बुझाए जाने के कई घंटे बाद भी शॉर्ट-सर्किट होने से दोबारा आग भड़क सकती है। अग्निशमन विभाग को बैटरी चालित वाहनों में लगी आग बुझाने के लिए नए सिरे से प्रशिक्षित करने की जरूरत है। इलेक्ट्रिक वाहन को चार्ज करने में अधिक वक्त लगता है। यहां तक कि फास्ट रिचार्ज करने में भी कम-से-कम 20 मिनट लग जाते हैं। बैटरी की अदला-बदली एक जल्दबाजी वाला विकल्प है लेकिन वह भी पेचीदा काम है। अलग-अलग वाहनों को अलग तीव्र एवं सुस्त चार्जिंग स्टेशनों की जरूरत होती है।

इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए जरूरी ढांचागत आधार तैयार करना एक चुनौती है। देश भर में 60,000 से अधिक पेट्रोल पंप हैं। इससे एक अंदाजा मिलता है कि बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रिक वाहन अपनाने के लिए कितने चार्जिंग स्टेशनों की जरूरत पड़ेगी? बैटरी चालित वाहनों की सर्विसिंग, रखरखाव और मरम्मत के लिए अपने कर्मचारियों को नए सिरे से प्रशिक्षित करने की भी जरूरत होगी। मार्च 2019 में मंत्रिमंडल ने 10,000 करोड़ रुपये वाले फेम-2 कार्यक्रम को हरी झंडी दिखाई थी। हाइब्रिड एवं इलेक्ट्रिक वाहनों के तीव्र अंगीकरण एवं विनिर्माण (फेम) के पहले कार्यक्रम की शुरुआत 1 अप्रैल, 2015 को 895 करोड़ रुपये के बजट के साथ हुई थी। दो साल की अवधि वाले फेम-1 कार्यक्रम की मियाद कई बार बढ़ाई गई।

फेम-2 के लिए सरकार ने तीन साल की अवधि तय की है। इसका लक्ष्य 10 लाख दोपहिया, 5 लाख तिपहिया, 55 हजार चार-पहिया और 7,000 बसों को मदद देना है। इलेक्ट्रिक वाहनों की बिक्री निम्न आधार होने से बहुत तेजी से बढ़ रही है। इलेक्ट्रिक वाहन विनिर्माता सोसाइटी का दावा है कि वर्ष 2018-19 में 6.3 लाख इलेक्ट्रिक ऑटो-रिक्शा और 1.26 लाख दोपहिया वाहन और करीब 3,600 यात्री कारों की बिक्री हुई। यह 1.9 करोड़ से अधिक दोपहिया-तिपहिया वाहनों की बिक्री के चार फीसदी से भी कम है और 30 लाख से अधिक कारों के एक फीसदी से भी कम है।

फेम-2 कार्यक्रम के तहत 2019-20 में 1500 करोड़ रुपये, 2020-21 में 5,000 करोड़ रुपये और 2021-22 में 3,500 करोड़ रुपये दिए जाएंगे। इस कार्यक्रम में 35,000 चार-पहिया इलेक्ट्रिक वाहनों को 1.5 लाख रुपये और 20,000 हाइब्रिड चार-पहिया वाहनों को 13,000 रुपये की सब्सिडी दी जाती है। इसके अलावा 7,090 ई-बसों को 50-50 लाख रुपये की सब्सिडी दी जाएगी। दिल्ली की इलेक्ट्रिक वाहन नीति 2018 के मसौदे में वर्ष 2023 तक पंजीकृत होने वाले सभी नए वाहनों में 25 फीसदी हिस्सा इलेक्ट्रिक वाहनों के पहुंचाने का लक्ष्य है और हरेक तीन किलोमीटर पर बैटरी एक्सचेंज सेंटर और चार्जिंग स्टेशन बनाने का उद्देश्य है। दिल्ली में सालाना करीब सात लाख नए वाहनों का पंजीकरण होता है।

दिल्ली की इस नीति में फेम-2 कार्यक्रम के तहत दी जाने वाली सुविधाओं के अलावा भी काफी कर-छूट एवं सब्सिडी देने का जिक्र है। एक इलेक्ट्रिक दोपहिया को 22,000 रुपये तक की सब्सिडी देने के अलावा बैटरी बदलने पर भी अलग से सब्सिडी मिलेगी। बीएस-2 या बीएस-3 मानक वाले दोपहिया वाहनों को कबाड़ में देने पर 15,000 रुपये का कैशबैक भी मिलेगा। सभी इलेक्ट्रिक वाहनों को रोड टैक्स, पंजीकरण, एमसीडी पार्किंग शुल्कों से छूट मिलती है और ई-ऑटो या ई-कैब के हरेक फेरे पर 10 रुपये का कैशबैक मिलेगा। दिल्ली सरकार मौजूदा वित्त वर्ष में 1,000 इलेक्ट्रिक बसें भी खरीदने जा रही है।

शहरी इलाकों में हरेक तीन किलोमीटर और राजमार्गों पर हरेक 25 किलोमीटर दूरी पर एक चार्जिंग स्टेशन मुहैया कराने का लक्ष्य देखते हुए फेम-2 के तहत चार्जिंग स्टेशनों को लाइसेंस-मुक्त किया गया है। हरेक चार्जिंग स्टेशन पर फास्ट चार्ज और स्लो चार्ज के लिए अलग प्लग-प्वाइंट लगाने की जरूरत होती है। फास्ट चार्ज सिस्टम में एक कंबाइंड चार्जिंग सिस्टम और एक चाडेमो प्लग लगा होता है जिसमें 200-1000 वोल्ट के 50 किलोवाट के कनेक्शन होते हैं। वहां 380-480 वोल्ट के 22 किलोवाट क्षमता वाले टाइप-2 एसी फास्ट चार्जर की भी जरूरत होती है। इसके अलावा स्लो चार्जिंग के भी दो प्वाइंट- भारत एसी 001 और भारत डीसी 001 रखने होते हैं।

इलेक्ट्रिक वाहनों की संख्या बढऩे के लिए इनकी कीमतों का कम होना और बैटरियों की लागत में कमी आना जरूरी है। चार्ज स्टेशनों और दक्ष सेवा कर्मचारियों की संख्या भी निश्चित रूप से बढ़ेगी। लेकिन इसमें वक्त लगेगा। मौजूदा रुख के हिसाब से भारत में दोपहिया एवं तिपहिया इलेक्ट्रिक वाहनों के पहले रफ्तार पकडऩे की संभावना है और किराये की सवारी के तौर पर लोग इनका अधिक इस्तेमाल करेंगे। हालांकि माहौल बदलने और कीमतों में कमी आने पर निजी उपयोग भी बढ़ सकता है।


Date:27-05-19

कृषि उपज की चुनौती

संपादकीय

प्रमुख फसलों की सरकारी खरीद कीमत को उसकी उत्पादन लागत के 50 फीसदी तक बढ़ाए जाने के बाद भी जिंस बाजारों में निरंतर गिरावट आ रही है। यह एक ऐसा विषय है जिससे देश की नई सरकार को तत्काल निपटना होगा। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) वाली अधिकांश जिंस मौजूदा रबी मार्केटिंग सीजन में इन दरों से 10 से 30 फीसदी कम दर पर बिक रही हैं। गत खरीफ सीजन में भी हालात अलग नहीं थे। केवल गेहूं और चावल ही अपवाद हैं जो चुनिंदा क्षेत्रों में सरकारी एजेंसियों द्वारा खरीदे जाते हैं। इसके अलावा तुअर, कपास और जौ पर भी यह बात लागू होती है क्योंकि इनकी मांग आपूर्ति से ज्यादा है। हालांकि दाल और तिलहन की खरीद कुछ इलाकों में सरकार द्वारा नियत एजेंसियों द्वारा भी की जाती है लेकिन इस खरीद की मात्रा अत्यंत कम है। यही कारण है कि ये बाजार को प्रभावित नहीं करती। सरकार की प्रमुख मूल्य समर्थन योजना पीएम-आशा (अन्नदाता आय संरक्षण अभियान) को भी गति नहीं मिल सकी। इस प्रक्रिया में जिन किसानों को नुकसान हुआ है, आशंका है कि नई सरकार के गठन के बाद वे भी विरोध करेंगे।

जिंस कीमतों में मौजूदा गिरावट का काफी श्रेय बीते कुछ वर्ष के दौरान निरंतर अधिशेष उत्पादन को दिया जा सकता है। इसके अलावा वैश्विक स्तर पर कमजोर जिंस कीमतें और प्रतिकूल घरेलू और बाहरी व्यापार नीतियां भी इसका कारण हैं। इतना ही नहीं पुराने नए घरेलू माल के विपणन के दौरान ही भंडारित माल का निपटान और नए आयात की इजाजत भी इसका कारण है। इससे अलग पीएम आशा योजना में वही मूलभूत कमियां हैं जो अन्य मूल्य समर्थन योजनाओं में। मध्य प्रदेश तथा कुछ अन्य राज्यों में भावांतर भुगतान का प्रयास किया गया। कुछ जगहों पर तयशुदा कमीशन के आधार पर कृषि उपज की खरीद और प्रबंधन में निजी क्षेत्र को भागीदार बनाने की कोशिश भी की गई। मुख्य उपज खासकर चावल और गेहूं की खुली खरीद का काम दशकों से चल रहा है और इसकी बदौलत दुनिया की सबसे बड़ी सार्वजनिक वितरण प्रणाली सफलतापूर्वक चल रही है, लेकिन सरकारी खजाने पर इसका भारी बोझ पड़ा है। परंतु यह भी मोटेतौर पर चुनिंदा राज्यों तक सीमित है जहां खरीद का बुनियादी ढांचा मौजूद है। अन्य स्थानों पर गेहूं और चावल की बिक्री एमएसपी से कम दर पर होती है। इस योजना को देश भर की सभी फसलों पर लागू करने की बात तो सोची भी नहीं जा सकती। भावांतर भुगतान योजना भी नाकाम रही है क्योंकि पंजीयन की प्रक्रिया जटिल थी और नियमित मंडियों के जरिए बिक्री करना अनिवार्य था जहां बिचौलिये हावी थे। उपज का अधिकतम 25 फीसदी ही खरीदा जा सकता था। तीसरा विकल्प था मूल्य समर्थन व्यवस्था में निजी कारोबारियों को शामिल करना। यह इसलिए नाकाम रहा क्योंकि खरीद, पैकिंग, परिवहन, भंडारण, निस्तारण आदि के लिए एमएसपी का केवल 15 फीसदी कमीशन तय किया गया था जो कि बहुत कम था।

इन मसलों को हल करने के अलावा कृषि-जिंस कीमतों में सुधार के लिए कई अन्य कदम उठाने की आवश्यकता है। अधिशेष उपज का निर्यात करने की सुविधा आवश्यक है। इसके लिए आयात-निर्यात शुल्क दरों में बदलाव किया जा सकता है। साथ ही, कृषि निर्यात को बढ़ावा दिया जा सकता है। इसके अलावा किसानों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए कि वे अपनी कृषि में विविधता लाएं और मूल्यवर्धित फसल उगाएं। इससे बिना सरकारी हस्तक्षेप के उनको बेहतर प्रतिफल मिल पाएगा। नीतिगत व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि किसानों के हितों और मुद्रास्फीति के प्रबंधन के बीच संतुलन कायम हो सके।


Date:26-05-19

दबे-झुके बिना बढ़ना

डॉ. दिलीप चौबे

नरेन्द्र मोदी को अभूतपूर्व जनादेश मिला है। इसका सकारात्मक परिणाम घरेलू और विदेश नीति के मोर्चे पर निश्चित ही दिखाईदेगा। वह पांच साल के अपने विराट कार्यानुभवों से विदेश नीति पर गहरी छाप छोड़ने में सफल होंगे। देश में इसके पहले ऐसे अवसर कम आए होंगे जब चुनाव जीतने वाले नेता को इतनी बड़ी संख्या में विदेशी राष्ट्राध्यक्ष-शासनाध्यक्षों की ओर से बधाई और शुभकामना संदेश मिले हों। महाशक्तियों के नेताओं ने केवल बधाईसंदेश भेजने की औपचारिकता ही पूरी नहीं की, बल्कि नरेन्द्र मोदी को टेलीफोन पर व्यक्तिगत भी बधाईदी। यह उनके करिश्माईराजनीतिक व्यक्तित्व की विश्वव्यापी मान्यता को दर्शाता है।

लेकिन मोदी की नई सरकार के आगे विदेश नीति से संबंधित बहुत अधिक चुनौतियां होंगी क्योंकि नियंतण्र समीकरणों को निर्धारित करने वाली ताकतों के आपसी संबंधों में लगातार उतार-चढ़ाव आ रहे हैं। इसीलिए यह सवाल बहुत अहम है कि रूस, चीन और अमेरिका के आपसी रिश्ते जिस तरह से लगातार बन-बिगड़ रहे हैं, उनके साथ भारत किस तरह सामंजस्य बिठाएगा। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि अमेरिका महाशक्ति है, और उसकी विदेश नीति उसकी अपनी घरेलू समस्याओं से निर्धारित होती है, और अमेरिका दूसरे देशों के साथ पारस्परिक संबंधों को लेकर बहुत सहज नहीं है। इसका आशय यह है कि उसके साथ पारस्परिक रिश्ते सहजता के साथ नहीं बनाए जा सकते। शीत युद्ध की समाप्ति के बाद पूरी दुनिया में एक शांति सी दिखाईदे रही थी, लेकिन अब यह स्थिति नहीं है। इसीलिए अमेरिकी नीति में अपने हितों के लिए किसी भी देश के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंध लगाना या सैनिक हस्तक्षेप करना प्राथमिक हो गया है। वह दूसरे देशों पर अपने हितों के अनुसार चलने के लिए दबाव बनाता है। ईरान और वेनेजुएला पर उसके प्रतिबंध इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इसके चलते भारत को अपनी ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए ज्यादा धन व्यय करना होगा।

अमेरिका के बाद भारत का दूसरा महत्त्वपूर्ण साझेदार देश रूस है, जिसके साथ हमारे परंपरागत रिश्ते हैं। 1991 में सोवियत संघ के बिखराव के बाद भी रूस हमारी आधे से अधिक सुरक्षा संबंधी जरूरतों को पूरा करता है। 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के समय रूस (तब सोवियत संघ) ने हमें कूटनीतिक समर्थन दिया था,जो किंचित बदलाव के साथ जारी है। लेकिन पिछले कुछवर्षो से रूस आंतरिक कठिनाइयों से जूझ रहा है, जिसके चलते वह अपनी ऊर्जा और वित्तीय जरूरतों की पूर्ति के लिए चीन पर ज्यादा निर्भर होता जा रहा है। अमेरिका और यूरोप के देशों के साथ भी रूस के संबंधों में एक खास तरह की जटिलताएं आईहैं। इसके कारण भी रूस की चीन पर निर्भरता बढ़ गई है। रूस पाकिस्तान को भी सैन्य सामानों की आपूर्ति करता है। रूस की तालिबान संबंधी नीति भी भारत-अफगान की संयुक्त नीति के अनुरूप नहीं है। अगर रूस और अमेरिका के बीच रिश्ते बेहतर नहीं हुए तो भारत के संबंध इन दोनों देशों के साथ नीति संबंधी संकट पैदा हो सकता है। अगर भारत इस संकट से ठीक से नहीं निपटता है तो नई दिल्ली और मास्को के संबंध खराब हो सकते हैं। इस संभावित संकट का संकेत इस बात से मिलता है कि अमेरिका की लॉबी भारत के रूस से एस 400 मिसाइल खरीदने का विरोधकर रही है और ट्रंप प्रशासन पर दबाव बना रही है। यदि भारत यह मिसाइल नहीं खरीदता है, तो रूस के साथ संबंध खराब होंगे और अगर खरीदता है, तो अमेरिका के साथ खराब होंगे।

प्रधानमंत्री मोदी की एक समस्या विदेश मंत्री के चुनाव की भी है। पिछले पांच वर्षो में भारत की सक्रिय विदेश नीति के पीछे विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का बेबाक, तर्कपूर्ण और तयपरक नजरिया भी रहा है। कूटनीतिक हलकों में उनकी प्रतिभा और क्षमता का लोहा माना जाता है। पर सुषमा स्वराज ने स्वास्यगत कारणों से चुनाव नहीं लड़ा है। संभव है कि वह आगे जिम्मेदारी लेने से भी इंकार करें। ऐसी स्थिति में मोदी उन्हें कुछ समय तक और विदेश मंत्री की जिम्मेदारी निभाने को कह सकते हैं। इससे विदेश नीति में आई निरंतरता जारी रहने की संभावना है। भारतीय विदेश नीति के लिए अगले पांच वर्ष बहुत ही चुनौतीपूर्ण होंगे क्योंकि नियंतण्र शक्ति-संतुलन बदल रहा है। ऐसी सूरत में एक सक्षम विदेश मंत्री की जरूरत होगी जो सभी देशों के साथ सहयोगात्मक संबंध बनाए और किसी के दबाव में नहीं आए ताकि इस मोर्चे पर स्वायत्तता बनी रहे।


Date:26-05-19

समावेशी बनें या न बनें

पी चिदंबरम

इस महीने की 17 तारीख को मध्यप्रदेश के खरगौन में एक रैली को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा, कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कच्छ से कामरूप तक, पूरा देश यह कह रहा है, ‘अब की बार 300 पार, फिर एक बार, मोदी सरकार’। उनका चुनाव विश्लेषण एकदम सटीक निकला, लेकिन भूगोल गलत। आखिरी नतीजे बताते हैं कि उनके चुनावी गणित को पूरे दस नंबर मिलने चाहिए। लिहाजा, मोदी, भाजपा, पार्टी के लाखों कार्यकर्ता और सहयोगी बधाई के पात्र हैं। अब जबकि वे दूसरा कार्यकाल शुरू करने जा रहे हैं, मेरी कामना है कि प्रधानमंत्री सफलता से जनता की सेवा में सरकार चलाएं। परिणाम पूर्व नतीजे इसके दो दिन बाद, 19 मई को आए और उनमें कम से कम दो पूरी तरह सटीक थे : भाजपा को 300 सीटें, सहयोगी दलों को मिला कर 350 और कांग्रेस को लगभग 50 सीटें। इन दो सर्वेक्षणों ने सांख्यिकीय नमूनों और चुनावी पूर्वानुमान में जनता के भरोसे को थोड़ा-बहुत बहाल किया।

प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोण

एक और यात्रा आज शुरू हुई है। यह अनवरत यात्रा है। हर पांच वर्ष के अंतराल पर छोटा-सा विश्राम और यात्रा पुन: शुरू। भारत पर शासन करने के अधिकार को लेकर विभिन्न पार्टियों में मतभिन्नताएं रही हैं और आगे भी रहेंगी। ये मतभिन्नताएं किसी भी बहुदलीय लोकतंत्र की पहचान हैं, खासकर बहुलवादी और विविधतावादी जीवंत लोकतंत्र की। एक पार्टी, विविधताओं को स्वीकार करने से इनकार करने के बावजूद यदि राष्ट्रीय चुनावों में विजय प्राप्त करती है, तो इसका मतलब यह नहीं होता कि विविधताएं वास्तविक नहीं हैं। भारत के लिए भाजपा की दृष्टि है : एक देश, एक इतिहास, एक विरासत, एक नागरिक संहिता, एक राष्ट्रभाषा और ‘एकात्मता’ के विभिन्न अन्य आयाम। कांग्रेस का नजरिया अलग है : एक देश, इतिहास की विविध व्याख्याएं, विविध उप-इतिहास, विभिन्न संस्कृतियां, विभिन्न भाषाएं और विविधता के तमाम अन्य आयाम, जो एकता की आकांक्षा को पूरा करते हैं। क्षेत्रीय दलों का अपना दृष्टिकोण है : यद्यपि इनका नजरिया हर राज्य में अलग-अलग हो सकता है, लेकिन एक चीज उनके सभी राजनीतिक वक्तव्यों में समान दिखती है : राज्य के लोगों का इतिहास, भाषा और संस्कृति सर्वोच्च सम्मान की अधिकारी है और खासतौर से राज्य की भाषा को पुष्पित-पल्लवित करते हुए उसे प्रमुखता दी जाए।

भाषा की प्रासंगिकता

भाषा खासतौर से एक भावनात्मक मुद्दा है। संस्कृति, साहित्य, कला और लोगों के जीवन के प्रत्येक पहलू भाषा के इर्द-गिर्द ही घूमते रहते हैं। यह सिर्फ तमिल लोगों के बारे में नहीं, बल्कि उन तमाम लोगों जो तेलुगु, मलयालम, कन्नड़, उड़िया, बांग्ला और जहां तक मैं समझता हूं, यह कोई भी प्राचीन भाषा बोलने वाले सभी लोगों के बारे में सच है। राजनीति में और खासकर राजनीतिक संवाद में भाषा की प्रासंगिकता को खारिज नहीं किया जा सकता। तमिल लोगों के बारे में थोड़ा ठीक-ठाक जानता हूं। भाषा उनकी सभ्यता और संस्कृति के मूल में है। तमिल बोलने वाले तमिझन की पहचान तमिल है। कर्णाटिक संगीत के तीन महान संगीतकार तमिलनाडु में जन्मे और उन्होंने अपनी रचनाएं संस्कृत और तेलुगु में लिखी। तमिल गौरव और उसके प्राधान्य की प्रतिष्ठा के लिए ही तमिल साई (संगीत) आंदोलन का जन्म हुआ। मंदिरों में अर्चनाएं संस्कृत में की जाती थीं और अब भी यह भाषा ज्यादातर मंदिरों के अर्चकों और श्रद्धालुुओं की पहली पसंद है; सरकार ने विकल्प के रूप में तमिल में अर्चना का प्रावधान किया और इन नीति को सभी लोगों ने स्वीकार किया। हिंदू धर्म, जिसे आज हम इस रूप में जानते हैं, वह शैव और वैष्णव था और तमिल इतिहास और धार्मिक साहित्य में इसे इसी रूप में दर्ज किया गया है। वस्तुत: तमिल क्लैसिक उत्कृष्ट साहित्य का एक उदाहरण होने के अलावा धर्म की भी धुरी थे। इसके अतिरिक्त तमिल साहित्य को समृद्ध करने में ईसाई और मुसलिम विद्वानों एवं लेखकों का भी महती योगदान है। यहां तमिलों और तमिल भाषा के बारे में मैंने जो कहा वह केरल, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल के लोगों और उनकी भाषाओं के बारे में भी उतना ही सत्य है। अपने किसी मित्र से पूछ लें। अब मुझे विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोणों पर लौटने दें। 2019 चुनाव के नतीजों को यह नहीं माना जा सकता कि यह अन्य नजरियों पर एक निर्णायक विजय है। इससे भी ज्यादा सच यह है कि धर्म कभी भी भाषा और संस्कृति पर प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सकता।

इक्कीसवीं सदी में धर्मनिरपेक्ष

धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा भारत में नहीं जन्मी। यह किसी भी आधुनिक लोकतंत्र और गणराज्य की कसौटी है और इसके सर्वश्रेष्ठ उदाहरण यूरोपीय देश हैं। कोई यह नहीं कह सकता कि यूरोपीय देशों के लोग अधार्मिक हैं, लेकिन वे अपनी राजनीति और शासन प्रणाली में धर्मनिरपेक्षता के प्रति दृढ़प्रतिज्ञ हैं। वास्तव में धर्मनिरपेक्षता का मूल अर्थ ही है, ‘धार्मिक और आध्यात्मिक मामलों से अलगाव’। कालांतर में, खासतौर से यूरोप में इसका अर्थ हो गया राज्य और चर्च के बीच अलगाव। आजकल, खासतौर से बहुलवादी और विविधतावादी समाजों में धर्मनिरपेक्ष का अर्थ हो गया है किसी भी तरह के अतिवाद से दूरी और समावेशी होना। यहां मेरी सारी दलीलों के मूल में यह है कि भारत- भारत सरकार और शासन प्रणाली के तमाम संस्थान- हमेशा और हर हाल में समावेशी बने रहें। हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में क्या समावेशन के लिए कोई मुद्दा था? मुझे संशय है। कई खबरों के अनुसार भाजपा के 302 सांसदों में मुसलिम समुदाय से कोई सांसद नहीं होगा। दलित, आदिवासी, बंटाई पर खेती करने वाले और खेतिहर मजदूरों जैसे कई और भी तबके हैं, जिन्हें लगता है कि उन्हें उपेक्षित छोड़ दिया गया है। बहुत से ऐसे तबके हैं, जिन्हें जाति, गरीबी, अशिक्षा, बुढ़ापे, कम संख्या या सुदूर होने की वजह से वास्तव में विकास की प्रक्रिया से बाहर छोड़ दिया गया है। इस कारण से मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री को अपने पुराने नारे ‘सबका साथ, सबका विकास’ को एक बार फिर दोहराने की आवश्यकता है। मुझे डर है कि भाजपा यह चुनाव एक विलगाववादी एजंडे के साथ लड़ी। मुझे उम्मीद है कि शासन की प्रक्रिया समावेशी होगी।


 

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