22-08-2019 (Important News Clippings)

Afeias
22 Aug 2019
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Date:22-08-19

Retain tax sops for genuine R&D

Technology will decide future competitiveness

ET Editorials

Even as the Direct Tax Code’s call to prune tax exemptions is unexceptionable, it would be sensible to retain those for research and development (R&D). The fact is that low R&D expenditure, especially in the private corporate sector, is akey challenge facing the innovation ecosystem in India, and we need to boost R&D spending with attractive tax incentives. Of course, eliminating the opportunity for businessmen to make money from anything other than core business activity — say, by diverting project funds during the course of implementation or taking a kickback from the seller while making an acquisition at an inflated cost —would, coupled with low tariffs that expose them to foreign competition, focus attention on competitiveness and spur efforts for genuine R&D.

India’s R&D spending as a percentage of GDP is a lacklustre 0.7%, a third of the figure for China and a sixth of that for South Korea. Further, while the private sector’s share in R&D investments is in the 65-75% range in dynamic nations, it is barely 30% in India. Our number of R&D specialists per million people is just over 200; compared to 1,100 in China and over 4,000 in the US. India has, of late, risen in global innovation rankings, has the third largest number of startups and is among the few nations with credible space technology. And multinational corporations have set up over 1,100 R&D centres here. But Indian industry remains a laggard in advanced technology.

We surely need to policy-design and incentivise knowledge creation system, so as to rapidly digitise, innovate and better integrate with the global economy. Note that the Finance Act, 2016, did amend Section 35(2AB) of the I-T Act, 1961, and reduced the weighted tax deduction available for in-house R&D from 200% to 150%, effective from April 1, 2017, till March 31, 2020. From next fiscal, the tax benefit would come down to 100%. The guidelines have since been further amended, and capital work in progress, attending consultation meetings or vehicle purchase are no longer defined as R&D. Prune waste, but retain incentives for genuine R&D.


Date:22-08-19

परमाणु नीति: बदलाव की कीमत भी ध्यान में रखें

जिम्मेदार राष्ट्र होने की छवि प्रभावित होगी, हथियारों पर खर्च बहुत बढ़ जाएगा

हर्ष वी पंत

पोकरन की हाल की यात्रा में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि परमाणु शस्त्रों का पहले इस्तेमाल करने के सिद्धांत का भारत ने कड़ाई से पालन किया है पर भविष्य में क्या होता है यह परिस्थितियों पर निर्भर होगा। पाकिस्तानी धमकियों की पृष्ठभूमि में आए इस बयान से भारत की परमाणु डॉक्ट्रिन के भविष्य को लेकर बहस और गरमा गई है। इस डॉक्ट्रिन से ही तय होता है कि परमाणु हथियारों से लैस कोई देश अपनी इस क्षमता को शांति व युद्ध के दौरान कैसे इस्तेमाल करता है।

2018 में तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने यह कहकर इस सिद्धांत पर संदेह जताया था कि भारत इससे अनंत काल तक बंधा नहीं रह सकता। पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने लिखा था कि यदि भारत को पाकिस्तान द्वारा परमाणु हमला करने की पुख्ता जानकारी मिले तो उसे अपने एटमी हथियारों का पहले इस्तेमाल करना पड़ सकता है। ऐसी दलीलें चीन को ध्यान में रखकर भी दी जा रही हैं। कुछ विश्लेषकों का कहना है कि जब भारत परम्परागत क्षमता से चीन को परावृत न कर सके तो उसे दबाव डालने में अपनी परमाणु क्षमता का फायदा उठाना चाहिए। लेकिन, ‘पहले परमाणु प्रहार न करने’ की नीति वापस लेने की कीमत भी चुकानी पड़ेगी। एक तो जिम्मेदार परमाणु शक्ति होने की भारत की छवि के पीछे इसकी परमाणु कूटनीति है। परमाणु संयम के कारण ही देश को वैश्विक मुख्यधारा में स्वीकार किया गया। अब वह परमाणु टेक्नोलॉजी को मर्यादित करने वाली व्यवस्थाओं का सदस्य है। परमाणु आपूर्ति समूह की पूर्ण सदस्यता के लिए भी वह शिद्दत से लगा है। अपनी नीति बदलने से दुनियाभर में भारत की छवि को नुकसान पहुंचेगा।

दूसरी कीमत यह है कि जवाबी परमाणु कार्रवाई आसान है, जबकि पहले प्रहार करने की नीति बहुत महंगी है, क्योंकि इसमें न सिर्फ हथियारों व डिलीवरी सिस्टम पर बल्कि जासूसी, निगरानी और टोह लेने संबंधी गतिविधियों के ढांचे पर व्यापक निवेश करना पड़ता है। ‘बुलेटिन ऑफ एटामिक साइंटिस्ट’ के मुताबिक भारत के पास 130-150 परमाणु हथियारों का छोटा संग्रह है, जबकि इसके पास 200 परमाणु हथियार बनाने लायक सैन्य श्रेणी का प्लूटोनियम है। ‘पहले परमाणु प्रहार न करने’ की नीति से पीछे हटने पर दो प्रतिद्वंद्वियों को देखते हुए इसे कहीं बड़ा भंडार लगेगा। खासतौर पर शत्रु की एटमी क्षमता को निशाना बनाने के लिए उसे बहुत सारे हथियारों की जरूरत होगी। 1998 में हाइड्रोजन बम परीक्षण को लेकर हुए विवाद से यह नाजुक गणित और जटिल हो जाता है।

फिर भारत को परमाणु हथियार ले जाने की क्षमता में व्यापक वृद्धि करनी पड़ेगी। ऐसे कोई संकेत नहीं है कि भारत के मिसाइल उत्पादन में हाल में नाटकीय वृद्धि हुई है। उसे मिसाइलों में मल्टीपल री-एंट्री टेक्नोलॉजी भी शामिल करना है। परमाणु ठिकानों को नष्ट करने के लिए यह अनिवार्य है। फिर निगरानी, टोही व खुफिया क्षमताएं ऐसे स्तर पर ले जानी होंगी कि उसमें प्रतिद्वंद्वी के ज्यादातर शस्त्र भंडार को ठिकाने लगाने का आत्मविश्वास पैदा हो। स्ट्रेटेजिक फोर्सेस कमांड में काम कर चुके एक वरिष्ठ अधिकारी ने इसे ‘असंभव’ काम बताया है। भारत को न्यूक्लियर अलर्ट रुटीन में खासा बदलाव लाना होगा। अभी इस्तेमाल की योजना में चार प्रक्रियाएं हैं। यह तब शुरू होती है जब फैसला लेने वाले सैन्य संघर्ष में इजाफा होते देखते हैं। इसके बाद परमाणु हथियार व ट्रिगर मेकेनिज्म की असेंबली शुरू होती है। दूसरे चरण में इन्हें पहले से तय लॉन्च पोजीशन पर भेजा जाता है। तीसरे चरण में हथियार व डिलीवरी प्लेटफॉर्म एक साथ आते हैं। अंतिम चरण में परमाणु हथियारों का नियंत्रण वैज्ञानिक हलकों से सैन्य क्षेत्र में इस्तेमाल के लिए चला जाता है। हालांकि, मिसाइलों में परमाणु हथियार लगाने से दूसरा और तीसरा चरण एक में ही सीमित रह जाता है पर यह भी पहले परणामु प्रहार के लिए सहायक नहीं है, क्योंकि इसमें प्रतिद्वंद्वी को भारत के इरादे को लेकर पहले ही काफी चेतावनी मिल जाती है। भारत के रणनीतिक माहौल में हो रहे तीव्र परिवर्तन को देखते हुए नीति की समीक्षा जरूरी है। लेकिन ठोस नीतिगत बहस तभी संभव है जब हम इसके नफा-नुकसान को लेकर व्यापक विचार-विमर्श करें।


Date:22-08-19

क्षेत्रवार राहत नहीं

संपादकीय

गत माह देश के वाहन क्षेत्र ने 19 फीसदी की गिरावट दर्ज की। यह अप्रैल 2001 के बाद की सबसे बड़ी गिरावट है। यात्री कारों की बिक्री में पिछले काफी समय से कमी आ रही थी जिससे यह संकेत निकल रहा था कि उपभोक्ता मांग में गिरावट आई है। परंतु अब वाणिज्यिक वाहनों की बिक्री पर भी असर पडऩे लगा है। यह इस बात का सीधा संकेत है कि आर्थिक गतिविधियों में धीमापन आ रहा है। जून में यात्री कारों की बिक्री सालाना आधार पर 31 फीसदी गिरी जबकि वाणिज्यिक वाहनों की बिक्री 26 फीसदी कम हुई। दोपहिया और तिपहिया वाहनों पर भी असर पड़ा, हालांकि यह असर चौपहिया वाहनों से कम रहा। जाहिर सी बात है कि कंपनियों की वित्तीय स्थितियों पर भी बुरा असर पड़ा और वाहन निर्माता कंपनियों का मुनाफा 28 फीसदी और वाहन कलपुर्जा कंपनियों का मुनाफा 21 फीसदी गिरा।

यह बात साफ है कि समस्या निर्यात के बजाय घरेलू बिक्री में है। जुलाई 2019 में निर्यात 4 फीसदी की कमतर लेकिन सकारात्मक दर से बढ़ा जबकि घरेलू बिक्री घटी। वाहन क्षेत्र जोरशोर से क्षेत्रवार प्रोत्साहन पैकेज की मांग कर रहा है और चूंकि यह देश के विनिर्माण उत्पादन का अहम घटक है और इसने 3.5 करोड़ लोगों को रोजगार दे रखा है इसलिए सरकार शायद इस मांग पर ध्यान भी दे। खासतौर पर यह क्षेत्र वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) में कटौती की अपेक्षा कर रहा है।

वाहन क्षेत्र में इस मंदी की कुछ जिम्मेदारी सरकार की भी है। खासतौर पर नियामकीय अनिश्चितता ने भी कंपनियों पर असर डाला है। जब भी नए ईंधन मानकों को लागू करने की बात आती है तो भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। इससे निवेश और खरीद का निर्णय दोनों बाधित होते हैं। सरकार ने हाल ही में निजी वाहन क्षेत्र में इलेक्ट्रिक वाहनों पर जो जोर दिया है उसने भी कार कंपनियों को चिंतित किया है। वित्तीय क्षेत्र की दिक्कत संकट में और इजाफा कर सकती है। वित्तीय लागत इसलिए बढ़ी हुई है क्योंकि केंद्रीय बैंक द्वारा हाल में की गई ब्याज दरों में कटौती का सही ढंग से पारेषण नहीं हुआ। गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) की भी इसमें भूमिका है क्योंकि वे उपभोक्ताओं को कार ऋण देने, वाणिज्यिक वाहनों की खरीद, करीब दो तिहाई दोपहिया वाहनों की खरीद और एक तिहाई यात्री कारों की बिक्री में योगदान देती थीं। संकटग्रस्त एनबीएफसी ने ऋण देना बंद कर दिया और तनावग्रस्त बैंकों ने भी कंपनियों और डीलरों के समक्ष अपना जोखिम कम किया।

यह स्पष्ट है कि इस मंदी को कर कटौती जैसे उपायों से नहीं निपटाया जा सकता। समस्या की जड़ें कहीं अधिक गहरी हैं। नियामकीय दिक्कत, मांग में कमी और तनावग्रस्त वित्तीय क्षेत्र। सरकार को वाहन उद्योग की राहत पैकेज की मांग पर विचार करते वक्त समझदारी बरतनी होगी। लॉबीइंग के बाद मिले राहत पैकेज के मामले में देश का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा है। इन्हें बहुत देर से वापस लिया जाता है और ये आगे चलकर गलत प्रोत्साहन बनते हैं। किसी क्षेत्र को ऐसी नीतियों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। जरूरत कुछ ऐसा करने की है जिससे पूरे माहौल में सुधार आए। यहां शायद सरकार बड़ी कंपनियों के कॉर्पोरेट आय कर में कटौती के माध्यम से ऐसा करना चाहे। ऐसा प्रोत्साहन आकर्षक हो सकता है लेकिन वित्तीय स्थिति को भी ध्यान में रखना होगा। बाजार पहले ही सरकारी उधारी से त्रस्त है। निवेश का संकट इसे और भीषण बना रहा है। अर्थव्यवस्था में आ रही मंदी राजस्व पर और दबाव बनाएगी तथा राजकोषीय लक्ष्यों को हासिल करना और कठिन होगा। इस स्थिति में ऐसा सुधार पैकेज बेहतर होगा जो उच्च निवेश को बेहतर बनाए और बिना राजकोषीय स्थिति पर दबाव बनाए मांग में इजाफा करे।


Date:21-08-19

तीनों सेनाओं के साझा प्रमुख की क्या होगी संभावित भूमिका

अजय शुक्ला

सरकार ने बीते 15 दिन में सुरक्षा से जुड़े तीन अहम कदम उठाए हैं। पहला, जम्मू कश्मीर का विशेष राज्य का दर्जा समाप्त कर उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में बांट दिया गया है। दूसरा, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने परमाणु हथियारों के पहले इस्तेमाल न करने के भारत के पुराने सिद्घांत को नकारते हुए परोक्ष रूप से यह कहा है कि खास परिस्थितियों में भारत भी पहले हमला कर सकता है।

तीसरा, स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि वह चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) की नियुक्ति करने जा रहे हैं। वह तीनों सेनाओं का कमांडर होगा जो सशस्त्र बलों को और प्रभावी बनाएगा। यह स्पष्ट नहीं है कि वह करगिल समीक्षा समिति द्वारा 1999 में की गई अनुशंसाओं तथा 2001 में मंत्री समूह के कहे के मुताबिक पांच सितारे वाला सर्वोच्च पदस्थ होगा जिसे तीनों सेनाओं के प्रमुख रिपोर्ट करेंगे। या फिर नया सीडीएस 2012 के नरेश चंद्र कार्य बल के मुताबिक एक चार सितारा अधिकारी होगा जिसे चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी के स्थायी चेयरमैन का दर्जा मिलेगा जो तीनों सेनाओं का प्रमुख नहीं होगा। वह केवल समकक्ष में सर्वोपरि होगा। एक पांच सितारा सीडीएस की नियुक्ति हालांकि पहला चरण होगी लेकिन यह इशारा होगा कि उच्च रक्षा प्रबंधन को लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति बरकरार है। वहीं चार सितारा अधिकारी की नियुक्ति प्रतीकात्मक होगी।

नए सीडीएस के समक्ष क्या काम होंगे? पहला, थलसेना, नौसेना और वायुसेना के मध्य निर्णायक बनना। इसके लिए पांच सितारा अधिकारी की आवश्यकता होगी क्योंकि इन सेनाओं का नेतृत्व फिलहाल चार सितारा अधिकारियों के पास है। तीनों प्रमुख अपने-अपने क्षेत्र के हित में काम करते हैं इसलिए सीडीएस को बजट आदि के वितरण में गहन ईमानदारी का परिचय देना होगा। उसके निर्णय व्यापक राष्ट्रहित में होने चाहिए। इसके अलावा सीडीएस शीर्ष राजनैतिक नेतृत्व को सलाह देने का भी काम करेगा।

कई वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों को आशंका है कि सीडीएस उनके अधिकार का अतिक्रमण और उनकी सेना को सीमित करेगा। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि तीनों सेनाओं की प्रतिद्वंद्विता सैन्य क्षमताओं को नुकसान पहुंचाएगी। दूसरे विश्वयुद्घ में जब अमेरिका और जापान की जंग चल रही थी तब वॉशिंगटन में अधिकारियों ने टिप्पणी की थी कि इस अभियान की सबसे भीषण लड़ाई सैन्य कमांडर जनरल डगलस मैकआर्थर और नौसेना के उनके समकक्ष अर्नेस्ट किंग के बीच लड़ी गई। बाद में अमेरिका के राष्ट्रपति बनने वाले तत्कालीन जनरल आजइनहॉवर ने अपनी डायरी में लिखा, ‘अगर कोई किंग को मार दे तो यह जंग जीतने में मदद मिल सकती है।’ आखिरकार वियतनाम युद्घ में विभिन्न सेनाओं के बीच विसंगति के बाद राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल में गोल्डवॉटर-निकोलस अधिनियम के जरिये राजनीतिक हस्तक्षेप कर सैन्य कमान के ढांचे में बदलाव लाना पड़ा।

भारत की विभिन्न सेनाओं के बीच रिश्तों को भी ऐसे ही पुनर्गठन की जरूरत है। सन 1962 में चीन के साथ जंग में वायुसेना पूरी तरह बाहर ही रह गई। सन 1965 में पाकिस्तान के साथ लड़ाई में नौसेना के साथ यही हुआ। सन 1999 में करगिल की लड़ाई के वक्त सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक ने बताया कि कैसे उन्हें शुरुआती चरण के दौरान वायु सेना का सहयोग पाने की खातिर एयर चीफ मार्शल अनिल टिपणिस पर दबाव बनाना पड़ा। केवल सीडीएस की नियुक्ति करने से यह असहजता दूर नहीं होगी। बिना सेना और रक्षा मंत्रालय के बीच की खाई पाटे कोई सुधार नहीं होता दिखता। नई सर्वोच्च संस्था में सैन्य, अफसरशाही और वित्त तीनों क्षेत्रों पर काम होना चाहिए।

नए सीडीएस को दीर्घावधि की योजना पर काम करना होगा। खासकर तीनों सेनाओं के कार्यबल के ढांचे, कमान और संचार, उनके द्वारा प्रयोग में लाए जाने वाले हथियार तथा तकनीक आदि पर। सीडीएस को तीनों सेनाओं को आधुनिकतम तकनीक से लैस कर भविष्य में साइबर हथियारों और ऐंटी-सैटेलाइट हथियारों से सुरक्षित करना होगा। आंतरिक स्थिति को देखते हुए सीडीएस को ऐसा सैन्य ढांचा बनाना होगा जो प्रशिक्षित हो और आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी निभा सके। वह बेहतर प्रबंधन के माध्यम से कुछ धनराशि भी बचा सकते हैं।

सीडीएस की नियुक्ति से जुड़ा सबसे विवादास्पद सवाल यह है कि क्या उन्हें जंगी कार्रवाई की निगरानी और तीनों सेनाओं की संयुक्त सैन्य शक्ति के तालमेल वाले मुख्यालय का नेतृत्व देना चाहिए? या फिर सैन्य ऑपरेशन क्षेत्रीय कमान द्वारा चलाए जाने चाहिए। इन्हें तीनों सेनाओं का समर्थन मिलना चाहिए। फिलहाल तीनों सेनाओं के पास कुल 17 एकल सर्विस कमान हैं। इन्हें तीनों सेनाओं की चार कमान में बांटा जा सकता है। मिसाल के तौर पर पाकिस्तान और चीन की चुनौती को एकीकृत पश्चिमी और पूर्वी कमान से संभाला जा सकता है जिसमें थलसेना और वायुसेना शामिल हों। इस बीच हिंद-प्रशांत क्षेत्र की समुद्री चुनौती को दक्षिण-पश्चिम और दक्षिण-पूर्व कमान से निपटाया जा सकता है जो मुख्यतौर पर नौसेना की होगी लेकिन इसे वायुसेना और थलसेना की मदद मिलेगी।

तीनों सेनाओं की भौगोलिक कमान का विचार अमेरिका जैसी वैश्विक सेना को संगठनात्मक बढ़त दिलाने में कामयाब रहा है। हो सकता है उसकी केंद्रीय कमान इराक में लड़ रही हो जबकि प्रशांत कमान उत्तर कोरिया में लड़ सकती है। भारत में सैन्य परिचालन के मोर्चे इतने दूर नहीं हैं, ऐसे में अमेरिकी ढांचे की नकल करना ठीक नहीं। वायुसेना के बेड़ों को तयशुदा कमान पर रखना सही नहीं होगा क्योंकि आधुनिक युद्घक विमानों की पहुंच बहुत तगड़ी होती है। विमान आसानी से एक स्थान से दो जगह आक्रमण कर सकता है। इसी लचीलेपन के कारण वायुसेना तयशुदा तैनाती की कट्टर विरोधी है।


Date:21-08-19

नदियों को जोडऩे से मॉनसून पर खतरा ?

अगर नदियों को जोडऩे की परियोजना अमल में लाई जाती है तो भारत में मौसम चक्र के सबसे अहम किरदार मॉनसून पर भी गहरा असर पड़ सकता है। बता रहे हैं

मिहिर शाह , (लेखक समाज प्रगति सहयोग के सह-संस्थापक हैं)

देश भर में जल संकट गहराने के साथ ही विज्ञान एवं अध्यात्म दोनों के बुनियादी सिद्धातों के उल्लंघन के लिए तैयार होने की सीमा और हमारा दु:साहस भी बढ़ चुका है। अपनी गलतियों से सबक सीखने के बजाय हम गलत रास्ते पर ही आगे बढऩे से खुद को रोक नहीं पा रहे हैं।

भारत की नदियों को एक-दूसरे से जोडऩे का प्रस्ताव दोषपूर्ण धारणाओं की एक पूरी शृंखला पर आधारित है। कहा जाता है कि एक ही समय पर भारत के कुछ हिस्सों में बाढ़ और कुछ हिस्सों में सूखा होता है, लिहाजा पानी की अधिकता वाले क्षेत्रों से किल्लत वाले क्षेत्रों में पानी पहुंचा दिया जाए तो सबकी समस्या दूर हो जाएगी। सवाल है कि क्या वाकई में भारत के कुछ इलाकों में बहुत अधिक पानी है? पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में सोचिए। क्या आपको पता था कि धरती पर सर्वाधिक बारिश वाली जगहों में शुमार सोहरा (पहले चेरापूंजी के नाम से मशहूर) अब पीने लायक पानी की कमी से गुजर रहा है? जल प्रबंधन की पुरानी परिपाटी को इसकी वजह माना जा सकता है जिसमें अपने जलग्रहण क्षेत्रों का बेहतर प्रबंधन कर पाने में हम नाकाम रहे हैं। इसके अलावा प्राकृतिक झरनों को हमने बरबाद कर दिया और भूमिगत जल का खूब दोहन किया। जलवायु परिवर्तन ने हालात को और भी खराब कर दिया है। आज मेरा संगठन ‘समाज प्रगति सहयोग’ इस जटिल समस्या का समाधान तलाशने में लगा हुआ है लेकिन मैं बता सकता हूं कि सोहरा में महज 70,000 लोग होने और दिल्ली की तुलना में वहां दस गुना बारिश होने के बावजूद किसी और के लिए वहां अतिरिक्त जल नहीं रह गया है। भारतीय उप-महाद्वीप में मॉनसून पर निर्भरता के चलते नदियों में अधिक पानी होने की स्थिति लगभग एक समय पर ही पैदा होती है। एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि भारत के जल-अधिकता वाले नदी घाटी क्षेत्रों में मॉनसूनी बारिश में खासी कमी आई है। इस तरह नदी-जोड़ परियोजना की मूल धारणा ही सवालों के घेरे में आ जाती है।

यह बड़ी राहत की बात है कि वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में नदी-जोड़ परियोजना का जिक्र तक नहीं किया है। शायद यह नए जलशक्ति मंत्री की सोच की स्पष्टता का संकेत देता है। लेकिन इस विचार के समय-समय पर सामने आने की बात को ध्यान में रखें तो इस खतरनाक विचार का ध्यानपूर्वक अवलोकन जरूरी है। नदी-जोड़ परियोजना के तहत हिमालयी खंड में गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों पर बड़े बांधों और उत्तरी एवं पूर्वी राज्यों के जल-अधिकता वाले इलाकों में पानी जमा करने की योजना है। फिर इस पानी को नहरों के जरिये पानी की कमी वाले मध्य, दक्षिणी एवं पश्चिमी इलाकों में भेजा जाएगा। वहीं परियोजना के प्रायद्वीपीय खंड के मुताबिक प्रायद्वीप में मौजूद नदियों के अतिरिक्त पानी को भी जमा कर दक्षिणी एवं पश्चिमी हिस्सों में भेजा जाएगा। इस परियोजना के तहत कुल 44 नदियों को 9,600 किलोमीटर लंबी नहरों के जरिये जोडऩे की तैयारी है जिस पर 11 लाख करोड़ रुपये की लागत आने का अनुमान है। यह परियोजना की असली लागत का एक अनुमान भर है और असली लागत इससे काफी अधिक रह सकती है। क्रियान्वयन में विलंब की आशंकाओं और ऊर्जा मद के अलावा खेती एवं जंगल को होने वाले नुकसान और मानवीय विस्थापन पर होने वाला खर्च भी इसमें शामिल नहीं है। असली विडंबना यह है कि भारत की स्थलीय संरचना देखते हुए नदियों को जोडऩे की जो परिकल्पना की गई है, वह मध्य एवं पश्चिमी भारत के असली सूखाग्रस्त इलाकों को दरकिनार कर देती है। ये इलाके समुद्र तल से 300-1,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित हैं।

हाल में वैज्ञानिकों ने भारतीय नदी प्रणाली में इतने बड़े स्तर पर होने वाले दखल के संभावित असर का बारीकी से परीक्षण शुरू कर दिया है। परियोजना में शामिल 44 में से 29 नदियों के बारे में 2018 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक इस परियोजना की वजह से 3,400 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र डूब जाएगा और करीब सात लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ेगा। नहरें बनते समय विस्थापित होने वाले लोगों की संख्या अलग होगी। यह 29 में से 24 नदियों के प्रवाह को भी बाधित करेगा जिससे गीली जमीन (वेटलैंड) एवं नदियों के चौड़े मुहाने (एस्चुअरी) तक पहुंचने वाला पानी भी कम हो जाएगा। जलमार्ग में नए दूषणकारी तत्त्व, प्रजातियां और बीमारियां पैदा करने वाले एजेंट मिलेंगे। भारतीय उप-महाद्वीप के पहले से ही संकटग्रस्त डेल्टा क्षेत्र नदियों से लाई जाने वाली गाद में 87 फीसदी तक कमी हो जाने से और भी अधिक खतरे में पड़ जाएंगे। पानी के प्रवाह में कमी आने का असर डेल्टा क्षेत्रों में खारेपन पर असर पड़ेगा जिससे आगे चलकर समुद्र का जलस्तर बढऩे और भूमिगत जल एवं नदी जल के खारे होने की भी स्थिति पैदा हो सकती है। नदियों एवं डेल्टा क्षेत्रों में खारापन बढऩे से नदियों के मुहाने पर गिरने वाली गाद में और कमी आएगी। दुर्लभ पारिस्थितिकी एवं अहम कृषि क्षेत्र तूफानों की संख्या बढऩे, नदियों की बाढ़ और खारापन बढऩे को लेकर अधिक संवेदनशील हो जाएंगे।

कृष्णा, गोदावरी एवं महानदी नदियों में प्राकृतिक एवं मानव-निर्मित कारणों से पानी का प्रवाह पहले से ही धीमा हो चुका है। ऐसे में नदी-जोड़ परियोजना केवल इस समस्या को बढ़ाने का ही काम करेगी। यह कोलोरेडो, नील, सिंधु एवं येलो नदी प्रणालियों से मिलती-जुलती स्थिति है जहां ऐसी ही परियोजना सीमित स्तर पर लागू करने की कोशिश की गई थी। एलिमेंटा अध्ययन का दावा है कि ‘भारत की नदी-जोड़ परियोजना अमेरिका में एक नदी प्रणाली से दूसरी प्रणाली तक पानी पहुंचाने की सबसे बड़ी परियोजना से भी 50-100 गुनी बड़ी है और इसके मानव इतिहास की सबसे बड़ी निर्माण परियोजना बनने की संभावना है।’

आखिर में, हमें यह मान लेना चाहिए कि नदी-जोड़ परियोजना भारत की मॉनसून प्रणाली की समग्रता को ही गहराई से प्रभावित कर सकती है। नदियों के मीठे जल के लगातार समुद्र में जाने से ही बंगाल की खाड़ी के ऊपरी स्तरों में पानी में लवणता का निम्न स्तर और निम्न सघनता बनी रहती है। यह समुद्र में पानी के स्तर का ऊंचा तापमान (28 डिग्री सेल्सियस से अधिक) बने रहने की वजह है जिससे समुद्री इलाके में निम्न दबाव का क्षेत्र बनता है और मॉनसूनी गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलता है। उप-महाद्वीप के अधिकांश हिस्से में बारिश काफी हद तक कम खारे पानी के इस जलस्तर से ही निर्धारित होती है। लेकिन नदी-जोड़ परियोजना के तहत नदियों के मार्ग में बड़े अवरोध खड़े करने से समुद्र तक पहुंचने वाले मीठे पानी का प्रवाह बाधित होगा जिसका उप-महाद्वीप में जलवायु एवं बारिश पर गंभीर दीर्घकालिक दुष्परिणाम हो सकते हैं जो आबादी के बड़े हिस्से की आजीविका को भी खतरे में डाल सकता है।

सच तो यह है कि सड़कों एवं बिजली आपूर्ति की तरह नदियों को इंसानों ने नहीं बनाया है जिनका मनमाने ढंग से बेजा इस्तेमाल किया जा सके। नदियां एक जीती-जागती पारिस्थितिकी हैं जिनका जन्म हजारों वर्षों के भीतर क्रमिक रूप से होता रहा है। लेकिन हम अपने अहंकार के वशीभूत होकर नदियों को काफी नुकसान पहुंचा चुके हैं। अब वक्त आ गया है कि हम अपनी नदी जल प्रणालियों में नई जान फूंकने, प्रकृति के नाजुक धागे को उलझाने के बजाय विनम्रता एवं समझदारी दिखाते हुए विज्ञान एवं अध्यात्म का समावेश करने की दिशा में आगे बढ़ें।


Date:21-08-19

प्रगाढ़ होती आपसी समझ

राकेश कु. मीना

भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 17-18 अगस्त को हिमालयी देश भूटान का दो दिवसीय राजकीय भ्रमण किया। भूटान की भू-राजनीतिक अवस्थिति, भारत के भूटान के साथ अनूठे संबंध और भारत की ‘पड़ोसी पहले’ की नीति दोनों देशों के आपसी द्विपक्षीय रिश्तों को मजबूती प्रदान करती है। अपने पिछले कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी पहली विदेश यात्रा भूटान की थी और इस बार विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए भूटान को चुना। दक्षिण एशिया में इन दोनों देशों के संबंध हमेशा से मधुर रहे हैं।

भारत का भूटान की अर्थव्यवस्था में अहम योगदान रहता है। वहां के हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट में भारत का निरंतर सहयोग रहा है, जो भूटान की अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। मोदी की हालिया यात्रा के दौरान सहयोग के नये आयामों को तलाशने की कोशिश की गई, जिसमें शिक्षा, विज्ञान, मानव संसाधन और अंतरिक्ष जैसे क्षेत्र उभर कर सामने आए। इस दौरान मोदी ने भूटान के प्रधानमंत्री लोट्ये शेरिंग, भूटान नरेश और विपक्ष के नेताओं से भी मुलाकात की और सहयोग के विभिन्न क्षेत्रों पर बातचीत की। मोदी ने मांगदेचू हाइड्रो पॉवर प्रोजेक्ट का उद्घाटन किया और भारत-भूटान हाइड्रो पॉवर सहयोग के पचास वर्ष पूरे होने पर टिकट जारी किया।

इसके अतिरिक्त ‘रुपे एप’ का भी उद्घाटन मोदी ने खरीदारी करके किया। दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच गहन वार्ता के बाद थिम्पू में सिमतोखा जोंग नामक ऐतिहासिक ईमारत में कई प्रोजेक्टों का उद्घाटन हुआ और 10 ज्ञापन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए। पहला, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो), भारत सरकार एवं सूचना तकनीकी और टेलीकॉम विभाग, भूटान सरकार के मध्य दक्षिण एशिया सेटेलाइट के उपयोग में नेटवर्क स्थापित करने के लिए ज्ञापन समझौता, दूसरा, वायु दुर्घटना अन्वेषण यूनिट, सूचना एवं संपर्क मंत्रालय, भूटान सरकार एवं वायु दुर्घटना अन्वेषण ब्यूरो। नागरिक एवं उड्डयन मंत्रालय, भारत सरकार के मध्य ज्ञापन समझौता, तीसरा, भारत के राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क, इलेक्ट्रॉनिक और सूचना तकनीकी मंत्रालय, भारत सरकार और सूचना तकनीकी एवं टेलीकॉम (द्रुक रिसर्च एंड एजुकेशन नेटवर्क), भूटान सरकार के मध्य साझेदारी समझौतों पर ज्ञापन समझौता, चौथा, पीटीसी इंडिया लिमिटेड और द्रुक ग्रीन पॉवर कोपरेशन लिमिटेड के मध्य मांगदेचू पॉवर क्रय-विक्रय हेतु समझौता ज्ञापन, पांचवां, भूटान राष्ट्रीय विधिक संस्थान और राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी, भोपाल (भारत) के मध्य न्यायिक शिक्षा और पारस्परिक विनिमय पर ज्ञापन समझौता, छठा, जिग्मे सिंग्ये वांगचुक स्कूल ऑफ लॉ, भूटान और नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिर्वसटिी, बेंगलुरू (भारत) के मध्य विधिक शिक्षा और शोध में अकादमिक एवं सांस्कृतिक विनिमय पर ज्ञापन समझौता, सातवां, रॉयल यूनिर्वसटिी ऑफ भूटान एवं आईआईटी, कानपूर के मध्य ज्ञापन समझौता, आठवां, रॉयल यूनिर्वसटिी ऑफ भूटान एवं आईआईटी, बोम्बे के मध्य ज्ञापन समझौता, नवां, रॉयल यूनिर्वसटिी ऑफ भूटान एवं आईआईटी, सिल्चर के मध्य ज्ञापन समझौताम, दसवां, रॉयल यूनिर्वसटिी ऑफ भूटान एवं आईआईटी, दिल्ली के मध्य ज्ञापन समझौता। इन समझौतों के अलावा भारत ने भूटान के विकासात्मक सहयोग के तहत 12वीं पंचवर्षीय योजना के लिए 5000 करोड़ रुपये देने की प्रतिबद्धता जाहिर की, जिसकी पहली खेप भारत ने जारी भी कर दी है। गौरतलब यह रहा कि इन दस समझौतों में से 6 समझौते शिक्षा और तकनीकी पर केंद्रित रहे।

इस अवसर पर प्रधानमंत्री मोदी ने रॉयल भूटान यूनिर्वसटिी के युवाओं को संबोधित किया। मोदी ने कहा कि भारत विश्व में तीव्र गति से स्टार्ट-अप के लिए माहौल बनाने में आगे बढ़ रहा है, और युवाओं के लिए इससे अच्छा समय नहीं हो सकता। भारतीय प्रधानमंत्री ने दोनों देशों के मध्य विश्वविद्यालयों, शोध संस्थाओं, पुस्तकालयों, स्वास्थ्य एवं कृषि संस्थाओं को आपस में तीव्र गति से जोड़ने और सहयोग पर बल भी दिया। मोदी ने उम्मीद जताई कि भारत में आने वाले समय में भूटानी छात्रों की संख्या बढ़ेगी। 2017 के डोकलॉम मुद्दे के बाद प्रधानमंत्री मोदी की यह पहली भूटान यात्रा थी, जो इस मायने में भी महत्त्वपूर्ण रही कि भूटान द्वारा अपनी संप्रभुता और भौगोलिक अखंडता को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए विकास के मार्ग पर चलने की प्रक्रिया की भारत हिमायत करता है। पिछले साल भारत और भूटान ने अपने कूटनीतिक संबंधों के पचास वर्ष पूरे किए जो दोनों देशों के लोगों के मध्य आपसी समझ को प्रगाढ़ करते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यह यात्रा इस दिशा में रिश्तों को आगे ले जाने की महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में स्थापित हुई है।


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