20-12-2019 (Important News Clippings)

Afeias
20 Dec 2019
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Date:20-12-19

महिलाओं के प्रति कुत्सित सोच से गिरी रैंकिंग

संपादकीय

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम, 2020 की लैंगिक समानता को लेकर ताजा रिपोर्ट में भारत दुनिया के 153 देशों में पिछले दो सालों में चार अंक फिसलकर 112वें स्थान पर आ गया है। मनुस्मृति के ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’ (जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवताओं का वास होता है) को शायद हम भूल गए, लिहाज़ा वोट लेने के लिए राजनीतिक वर्ग ने उन्हें 26-27 साल पहले 73वें व 74वें संविधान संशोधन के तहत पंचायत और शहरी निकायों में तो आरक्षण का झुनझुना पकड़ा दिया। लेकिन, उनको शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक भागीदारी के अवसरों में समानता देना तो दूर, छोटे-छोटे पड़ोसी देशों की महिलाओं के मुकाबले भी बेहतर स्थिति नहीं दे पा रहे हैं। यही वजह है कि कई उप-मानदंडों पर नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका या भूटान तक हमसे आगे हैं। इस रिपोर्ट के उप-मानदंडों को गौर से देखने पर पता चलता है कि नारी सशक्तिकरण के प्रति सत्ता वर्ग ने स्थानीय निकायों में आरक्षण देकर ईमानदार प्रयास करना तो दूर एक ड्रामा किया, क्योंकि पिछले 11 वर्षों से आरक्षण संबंधी विधेयक लटका हुआ है। पंचायतों में महिलाएं चुनी तो जाती हैं, लेकिन अधिकांश मामलों में व्यावहारिक रूप से उनका पति ही पद का दायित्व निभाता है, क्योंकि वे शिक्षित नहीं होती और उन्हें यह ज्ञान भी नहीं होता कि कानून क्या है और किस कागज पर हस्ताक्षर करने हैं। फोरम की रिपोर्ट के अनुसार भारत में महिलाओं का राजनीतिक सशक्तिकरण तो हुआ, लेकिन आर्थिक सहभागिता और समानता के अवसर में हम पाकिस्तान से थोड़ा ही ऊपर हैं। जबकि, पड़ोस के सभी अन्य देश भारत से आगे हैं। दो वर्षों में जो रफ़्तार रही है, उससे भारत को अवसर की समानता देने में अभी ढाई सौ साल लग सकते हैं। स्वास्थ्य और उत्तरजीविता (सर्वाइवल) में भी भारत, पाकिस्तान सहित सभी छोटे-छोटे पड़ोसी देशों से पीछे है, लेकिन हम यह सोचकर खुश हो सकते हैं कि चीन यहां हमसे पीछे है। भारत के लिए एक अन्य अच्छी बात यह है कि शिक्षा के पैमाने पर हम पड़ोसी देशों में यह महज चीन और श्रीलंका से पीछे हैं और अगले 12 वर्षों में महिलाएं और पुरुष बराबरी की स्थिति में आ जाएंगे। रिपोर्ट में दर्शाई गई इस फिसलन के पीछे सरकार की कमजोरी से ज्यादा पुरुषों की महिलाओं के प्रति कुत्सित और शोषणकारी सोच है। हम बेटियों को बेटों जैसा भोजन या प्रारंभिक शिक्षा तक नहीं देते।


Date:19-12-19

राजनीतिक आंदोलनों में सामाजिक हिंसा

आनंद कुमार, (वरिष्ठ समाजशास्त्री)

 

लोकतांत्रिक देश की सत्ता-व्यवस्था के लिए यह जरूरी है कि संसद में चुने हुए प्रतिनिधियों के बीच लगातार संवाद रहे और संसद व सड़क की आवाज के बीच भी एक तारतम्य हो। कभी-कभी सरकारों को यह गलतफहमी हो जाती है कि संसदीय प्रक्रियाओं में चुने हुए जन-प्रतिनिधि और विभिन्न वैचारिक राजनीतिक समूह ही पूरे समाज व देश के प्रतिनिधि हैं। यह दृष्टि सिर्फ तकनीकी तौर पर सही होती है, क्योंकि नागरिकों की सत्ता को किसी खास तरीके से प्रकट जनमत के आधार पर हम टिकाऊ नहीं मान सकते। जिस तरह परिस्थितियों के अनुसार व्यक्तियों का निजी विचार और दृष्टिकोण बनता-बदलता रहता है, उसी तरह सामूहिक स्तर पर विभिन्न क्षेत्रों, समुदायों, वर्गों, जातियों और हित-समूहों का देश, काल और पात्र के अनुसार दृष्टिकोण बनता-बदलता रहता है।

जब सरकारों में बैठे नुमाइंदों का रोज-रोज की जिंदगी से रिश्ता कमजोर होने लगता है, तब लोग छोटे-बड़े समूहों में, सभाओं, प्रदर्शनों, हड़तालों और नागरिक नाफरमानी द्वारा शांतिपूर्ण तरीके से ध्यानाकर्षण का प्रयास करते हैं। यही लोकतंत्र का सत्ता-व्याकरण माना जाता है। इनमें से किसी भी एक पक्ष की अवहेलना लोकतंत्र के लिए अहितकर है। न तो हम वोट द्वारा प्रकट बहुमत के आधार पर बनी सरकार को दरकिनार कर सकते हैं, और न सरकारों में बैठे लोग आम जिंदगी की उथल-पुथल और अंतर्विरोधों से जुड़े आंदोलनों की अनदेखी कर सकते हैं। उन्होंने बहुत सोच-समझकर आपको अपना प्रतिनिधि बनाया और आप उस जनादेश के आधार पर अपने से असहमत लोगों को संवाद के भी काबिल नहीं मानते, तो इसे सत्ता का अहंकार ही कहा जाएगा।

सवाल सड़कों पर होने वाले सार्वजनिक आचरण का भी है। लंबी प्रक्रियाओं के बाद देश की संविधान सभा के अनुभवी संविधान सदस्यों ने हमें कुछ बुनियादी अधिकारों के काबिल माना है। इसमें शिक्षा, आयु, वर्ग, लिंग, भाषा और धर्म में से किसी को भी बाधक बनने से रोका गया है। नागरिक होने मात्र से हम अपने देश के भाग्य-विधाताओं की कतार में जोड़ दिए जाते हैं। लेकिन नागरिकता के अधिकारों में ही नागरिकता के कर्तव्यों का बहुत जरूरी हिस्सा शामिल होता है। बिना कर्तव्यपरायण नागरिकता के अधिकारवादी नागरिकता का कोई आधार नहीं बचता। इसीलिए हमने भारतीय राजनीति के नए निर्माण में स्वराज की लड़ाई को मूलत: सत्य और अहिंसा पर संगठित किया। हिंसावादी धाराएं भी थीं। मगर 1857 की पहली कोशिश की भयानक विफलता और लगभग आधी शताब्दी के आत्ममंथन के बाद हमारे देश के नायकों व लोगों ने सुसंगठित प्रतिरोध, विशेषकर असहयोग और अहिंसक आंदोलनों के रास्ते से बंगाल विभाजन से लेकर चंपारण और जलियांवाला बाग से होते हुए भारत छोड़ो आंदोलन तक एक राजनीतिक-संस्कृति की रचना की। यहां अपने प्रतिपक्षी के साथ पूर्ण असहयोग के बावजूद उसके विचारों या उसके व्यक्तिगत अधिकारों का मर्दन करने का रास्ता कभी नहीं अपनाया गया। वैसे, सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष के अलावा एक तीसरा तटस्थ नागरिक समाज भी होता है।

अगर हम अपनी बात को अलोकतांत्रिक तरीके की तरफ यानी फुटकर हिंसा से लेकर संगठित आतंक तक मोड़ देते हैं, तो न्याय की हमारी मांग और लोकतांत्रिक आधार पर हित-रक्षा का आंदोलन कमजोर होने लगता है। अत्यंत निर्मल आदर्शवाद के बावजूद अपने दावे को मजबूत करने के लिए सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने या सत्ता-प्रतिष्ठान से जुड़ी नौकरशाही, सत्ताधीशों या न्यायपालिका को आतंक या अराजकता के बल पर अपने दावों को कुबूल करने के लिए विवश करने की रणनीति ऐसे अभियानों को व्यापक लोकतांत्रिक मर्यादाओं से अलग कर देती है।

जब जनांदोलन से जुड़े लोग लोकतांत्रिक लक्ष्मण रेखा लांघने का प्रयास करते हैं, तब सत्ता-प्रतिष्ठान को हर तरह की बर्बरता की छूट मिल जाती है। इसीलिए शुरू से आखिरी तक शांतिपूर्ण बने रहना एक असरदार प्रतिरोध की बुनियादी शर्त मानी गई है। अगर किसी सभा में वक्ताओं की तरफ से भाषायी हिंसा होने लगे या किसी सार्वजनिक प्रदर्शन में निर्दोष लोगों को आतंकित किया जाना शुरू हो जाए या सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाने की हरकतें होने लगें, तो उस अभियान या आंदोलन के आयोजकों को समझ लेना चाहिए कि वे एक बेलगाम हो रहे घोड़े पर सवार हैं। और अगर घोड़े की लगाम जाती है, तो सबसे पहले सवार ही धराशायी होता है।

लोकतंत्र की सबसे बड़ी जरूरत यही होती है कि हम अपने प्रतिपक्षी के साथ अशिष्टता से बचें। अगर हम शिष्ट तरीके से आगे बढ़ते हुए सत्ता-प्रतिष्ठान की हिंसा का शिकार बनते हैं, तो यह आम लोगों की निगाह में सत्ता की कमजोरी और जनांदोलन की मजबूती का संकेत होता है। जिस तरह आंदोलनकारियों द्वारा अलोकतांत्रिक तरीकों से अपनी मांगों को मनवाना अनुचित है, उसी तरह सत्ता-प्रतिष्ठान के लिए अहिंसक और शांतिपूर्ण नागरिक समूहों के खिलाफ लाठी-गोली की पद्धति का इस्तेमाल सत्ता के इकबाल को घटाता है।

आजकल हमारे जीवन में सामाजिक हिंसा बढ़ रही है। लेकिन चिंता की बात यह है कि अधिकांश राजनीतिक दल अलग-अलग वैचारिक आधारों पर समाज में पांव पसार रही सामाजिक हिंसा की या तो अनदेखी कर रहे हैं या महिमा मंडन। राष्ट्रवाद से लेकर साम्यवाद तक अलग-अलग चश्मों से इसे देखने वाले दरअसल आग से खेल रहे हैं। सामाजिक हिंसा कब राजनीतिक विमर्शों में फैल जाएगी, कहना मुश्किल है। जब समाज में हम मोटे तौर पर हिंसा को उचित साधन मानने लगेंगे, तब राजनीति में हिंसा का प्रतिरोध करना कठिन हो जाएगा।

एक समाज और शासन-व्यवस्था के रूप में हमें आत्म-समीक्षा का धर्म निभाना चाहिए। जहां हमारी शासन-व्यवस्था के स्वराजीकरण की जरूरत है, वहीं जन-हस्तक्षेप के लिए फुटकरिया हिंसा से लेकर छिपी व खुली हिंसा का इस्तेमाल भी दवा के नाम पर जहर जैसा है। अगर हम अपने सहज नागरिक-अधिकारों के आधार पर सुनवाई चाहते हैं, तो हिंसा का रास्ता तो कम से कम हमें नहीं ही अपनाना चाहिए। दूसरी तरफ, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और अब नरेंद्र मोदी की सरकारों के विभिन्न आंदोलनों से हुए समझौतों को देखते हुए यह भी साफ है कि हम एक देश के रूप में बहुत बड़ी सेना और सुसज्जित पुलिस बल के मालिक जरूर हैं, लेकिन जनता के प्रतिरोधों की अंतिम परिणति के रूप में बहुत शक्तिशाली सरकारों को भी संवाद की मेज पर अपने प्रतिपक्षों को बुलाना पड़ा है। संविधान-सम्मत समझौतों से ही तमाम चुनौतियां सुलझाई गई हैं।


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