21-12-2019 (Important News Clippings)

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21 Dec 2019
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Date:21-12-19

दुष्कर्म जैसे अपराध में फैसले की समय सीमा अनिवार्य हो

संपादकीय

7 जनवरी तक के लिए सात साल से चल रहे निर्भया दुष्कर्म मामले का फैसला फिर टल गया है। एक-एक दिन का हिसाब पीड़िता की मां से पूछा जाना चाहिए जो इतने लंबे वक्त से कोर्ट की सुनवाई और वकीलों की दलीलों के चक्कर काट रही है। कोर्ट अपनी गति से काम कर रहे हैं, लेकिन न्याय में देरी से हालात यह हो गए हैं कि लोगों का न्याय से भरोसा ही उठने लगा है। यही वजह है कि हैदराबाद दुष्कर्म के बाद दोषियों का एनकाउंटर हुआ तो लोगों ने इसकी खुशियां मनाईं। लेकिन क्या तेजी से न्याय के हल के रूप में कानून इसे स्वीकार करेगा? हाल ही में दुष्कर्म से जुड़े मामलों में प्रक्रिया तेज करने को लेकर चीफ जस्टिस ने सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की एक बेंच बनाई है। यह बेंच देशभर के दुष्कर्म मामलों की जल्दी सुनवाई सुनिश्चित करेगी। सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच ने भी स्वीकार किया है कि ऐसे मामलों में न्याय में देरी ने लोगों के दिमाग में आंदोलन, चिंता और अशांति को जन्म दिया है। दिल्ली में निर्भया के साथ हुए अपराध के बाद वर्मा कमेटी बनाई गई थी। कोशिश थी कि दुष्कर्म के मामलों की जल्दी सुनवाई हो और कठोर सजा दी जा सके। इस कमेटी की सिफारिशों के बावजूद देशभर के तमाम कोर्ट में ऐसे हजारों मामले लंबित हैं। 2017 में हर दिन दुष्कर्म के 90 मामले दर्ज हुए यानी कुल 32,500, इनमें से 1,27,800 उस साल के अंत तक पेंडिग थे। यही नहीं 2012 के बाद से दुष्कर्म और जघन्य अपराध तीन गुना बढ़ गए हैं। यानी न फैसले हुए हैं न न्याय मिला और न ही अपराध रुके। इसके लिए सरकार, पुलिस, न्याय व्यवस्था ने कितना काम किया यह इसी बात से पता चलता है कि निर्भया फंड का पांचवां हिस्सा ही अभी तक इस्तेमाल हुआ है। क्या जरूरत यह नहीं कि ऐसे अपराधों के मामले में न्याय व्यवस्था की संवेदनशीलता बढ़ाई जाए। समय सीमा के मुताबिक काम करने की अनिवार्यता हो, जिसे संविधान मानकर पालन किया जाए। केस से जुड़े पुलिस अफसर, वकील और जजों की जवाबदेही तय हो। समय पर केस का फैसला न देने से उनके प्रमोशन और वेतन जुड़े हों, ताकि वह पीड़ित पक्ष के वक्त और न्याय की अहमियत समझें। वरना देरी से हुआ न्याय कई बार इतना बेमानी साबित हो जाता है कि न्याय सुनने और उसे भोगने के लिए पीड़ित जिंदा भी नहीं रहता। ये तो सब ही जानते हैं कि, जस्टिस डीलेड इज जस्टिस डिनाइड।


Date:21-12-19

नॉर्थ-ईस्ट में क्यों हो रहा है सीएए का विरोध

पहाड़ों के इन आदिवासियों का डर जायज है, इन्हें अपनी संस्कृति कोे खोने की चिंता है

पैट्रिशिया मुकिम , एडिटर शिलॉन्ग टाइम्स

देशभर के लोगों को हैरानी हो रही है कि सिटीजनशिप अमेंडमेंट एक्ट को लेकर नॉर्थ-ईस्ट में इतने विरोध प्रदर्शन क्यों हो रहे हैं। कई सारे मसले हैं जिनपर एक के बाद एक बात करना होगी। नॉर्थ-ईस्ट के सेवन सिस्टर कहलाने वाले सात राज्य 238 संजातीय समूह का घर हैं। हर समूह अपने होमलैंड को धरती के उस अमूल्य टुकड़े की तरह देखते हैं जहां उनके पूर्वजों ने अपने सपने जिए हैं। वह कल्पना भी नहीं कर सकते अपनी मातृभूमि से दूर जाने की या गैर स्वदेशी निवासियों द्वारा विस्थापित किए जाने की। ऐसे लोग जल्दी ही भारतीय नागरिक होंगे, यदि वह दिसंबर 2014 से पहले भारत आए थे। वह त्रिपुरा की स्वदेशी बोरोक समुदाय की ओर देखते हैं। आज त्रिपुरा पर बंगाली बोलने वालों का कब्जा है जो अविभाजित बंगाल और फिर ईस्ट बंगाल, ईस्ट पाकिस्तान और बांग्लादेश से यहां पहुंचे। उनकी नौकरशाही बंगाली चलाते हैं। आदिवासी पूरी तरह से हाशिए पर रख दिए गए हैं। सीएए उस असम समझौते का उल्लंघन करता है जिसने 1979 से 85 के बीच 6 साल चले आंदोलन का अंत किया था। वह आंदोलन, जिसने राज्य को एनआरसी अपडेट करने की ओर धकेला। वह नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन जिसे पिछली बार 1951 में इसलिए अपडेट किया था ताकि असम में अवैध प्रवासियों की पहचान कर उन्हें निर्वासित किया जा सके। राजीव गांधी की सरकार ने ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन के साथ असम समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और मार्च 1971 को कट ऑफ डेट मान अवैध प्रवासियों को नागरिकता देने पर सहमति दी थी। उस वक्त मेघालय असम का ही हिस्सा था। उसे 1972 में राज्य का दर्जा मिला। यही वजह थी कि मेघालय में भी बंगाली बोलने वाले हिंदुओं की अच्छी खासी संख्या थी जिनका दावा था वह पाकिस्तानी सेना के सताए हुए हैं। 1971 में बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान हजारों बंगाली हिंदू ईस्ट पाकिस्तान से भागे और भारत में शरण मांगी।

बांग्लादेश के जन्म के लिए जिम्मेदार युद्ध की निगरानी करने वाली इंदिरा गांधी ने इन रिफ्यूजियों को भारत के अलग-अलग हिस्सों में बसने की अनुमति दी लेकिन इन लोगों ने बंगाल और नॉर्थ-ईस्ट में रहना पसंद किया। भाषा और संस्कृति की समानता के चलते। असम की राजधानी रहे शिलॉन्ग में आज भी इनकी कॉलोनियां हैं। जब मेघालय अलग राज्य बना तो खासी, जैन्तिया और गारो जैैसे आदिवासी आशंकित थे इस बात को लेकर कि ज्यादातर नौकरियां गैर आदिवासियों के हिस्से जा रही थीं। 80% आरक्षण के बावजूद वह मेरिट लिस्ट में जगह नहीं बना पाते थे। बंगाली सौहार्दपूर्वक आदिवासियों के साथ रहकर अपना रोजगार चला रहे थे। लेकिन आदिवासी असुरक्षित महसूस कर रहे थे। उन्हें लगातार यह डर था कि कुछ नहीं किया तो वो भी त्रिपुरा बन जाएंगे। 1979 में बंगालियों के खिलाफ एक हिंसक आंदोलन हुआ। कई बंगालियों को अपने बसेरे छोड़ भागना पड़ा। जो गए उनके जहन में बेदखली और आतंक का दर्द आज भी ताजा है। कुछ रातों रात भाग गए तो कुछ औने-पौने दाम पर अपनी प्रॉपर्टी बेचकर निकले। कई इलाकों में बंगाली घरों को जला दिया गया। आदिवासियों और गैर आदिवासियों के बीच जो शांति थी वह सांप्रदाियक हिंसा में बदल गई। आज भी उन्हें ‘दखर’ यानी बाहरी कहा जाता है। ऐसा कहलाना बुरा लगता है लेकिन शांति बनी रहे इसलिए उन्होंने इसे स्वीकार कर लिया। अब भले सीएए में छठी अनुसूची के तहत मेघालय के इलाकों को छूट है लेकिन शिलॉन्ग के दस बाय दस स्क्वेयर किमी का एक टुकड़ा, जिसे यूरोपियन वॉर्ड कहा जाता है, उसके हिस्से यह छूट नहीं आती। इस इलाके में गैर आदिवासी जमीन खरीद सकते हैं और यह इलाका घनी आबादी वाला है। इस इलाके की उफनती आबादी छठी अनुसूची में आने वाले इलाकों में भी फैलती जा रही है, क्योंकि उसे रोकने के लिए कोई दीवार नहीं है। गैर आदिवासी वहां जमीन खरीद नहीं सकते लेकिन मजदूर बतौर काम करते हैं।

इस साल एनआरसी को लेकर असम में जो प्रक्रिया चली उसमें 19 लाख लोगों को लिस्ट में अपना नाम नहीं मिला। भाजपा को लगा ये 19 लाख लोग ज्यादातर मुस्लिम होंगे, लेकिन इनमें बड़ी संख्या में बंगाली हिंदू हैं। अपने चुनाव घोषणापत्र में भाजपा ने अवैध प्रवासियों को निर्वासित करने की बात कही थी। जब चुनाव हुए तब तक एनआरसी की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई थी। लोगों ने भाजपा को वोट दिए, यह सोचकर कि सरकार बनी तो उनके इलाकों के गैरकानूनी मुसलमानों को हटा देगी। अगस्त में जब एनआरसी पब्लिश हुई तो अवैध प्रवासियों को भगाने की जगह उसे तोड़ मरोड़कर पेश किया। अब वादे के मुताबिक उन हिंदू बंगालियों को नागरिकता देनी होगी। क्योंकि माना जाता है कि हिंदू भाजपा और मुसलमान प्रवासी कांग्रेस का असम में वोट बैंक हैं। तो नॉर्थ-ईस्ट में यह नागरिकता की राजनीति है। लोग सोचते हैं नॉर्थ-ईस्ट के उन राज्यों में जहां इनर लाइन परमिट और छठीं अनुसूची से मिला स्पेशल स्टेटस है वहां नागरिकता बिल का विरोध क्यों। मसला यह है कि असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम की सीमा बांग्लादेश से सटी है। 4156 किमी लंबी भारत-बांग्लादेश सीमा में से 1939 किमी नॉर्थ-ईस्ट और 2217 किमी पश्चिम बंगाल से लगी है।

सीमा पर पहुंचकर पता चलता है ये कितनी खोखली है। कितना आसान है इसे पार कर जाना। भारत की ओर से बीएसएफ और बांग्लादेशी बॉर्डर गार्ड इसकी बमुश्किल निगरानी कर पाते हैं। पाकिस्तान की सीमा सिर्फ खतरनाक आतंकी घुसपैठिए पार कर पाते हैं लेकिन बांग्लादेशी सीमा इतनी खोखली है कि आसानी से पशु तस्करी तक होती है। पहाड़ों पर बसे इन आदिवासियों का डर जायज है, इन्हें अपनी संस्कृति के खोने की चिंता है। और देखा जाए तो भारत से बतौर देश इनका रिश्ता सिर्फ 72 साल पुराना ही तो है। उनके लिए उनकी मातृभूमि ही देश है। लंबे संघर्ष और हिंसा से हाल ही में निपटे हैं। अब हैरान हो रहे हैं कि दिल्ली उनकी जिंदगी के साथ सीएए के रास्ते क्यों खेल रही है। उन्हें पता है कि सरकार की सहूलियतों के लिए इनर लाइन परमिट या छठी अनुसूची में मिला स्टेटस भी किसी वक्त खत्म किया जा सकता है, जैसा कश्मीर के साथ हुआ। यही आशंकाएं और डर इन दिनों जारी प्रदर्शनों में जाहिर हो रहे हैं।


Date:20-12-19

सामाजिक संरचना का नतीजा

बाल मुकुंद

आने वाले समय में अपने विकास की राह में भारत को जिन बड़ी चुनौतियों का सामना करना है, उनमें से एक है लैंगिक असमानता। पारंपरिक कारणों और अपनी सामाजिक संरचना की वजह से स्त्री और पुरु ष के बीच की खाई काफी चौड़ी है। आज की तारीख में भारत में महिलाओं की संख्या लगभग 67 करोड़ है। लेकिन 2011 की जनगणना के अनुसार वे देश की आबादी का आधा नहीं, बल्कि 48.5 प्रतिशत हिस्सा ही हैं। हालांकि पूरी दुनिया में महिलाओं की औसत आयु पुरु षों से ज्यादा है। भारत में भी वे पुरु षों की तुलना में ज्यादा दीर्घजीवी हैं। भारत में महिलाओं की संख्या ज्यादा होनी चाहिए थी, लेकिन आबादी के अनुपात में प्रति हजार पुरु षों पर यहां औसतन 929 महिलाएं ही मौजूद हैं। इसकी वजहें मुख्य रूप से धार्मिंक और सामाजिक हैं। यहां बेटी की तुलना में बेटे के जन्म की कामना ज्यादा रहती है। लोग ऐसा मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्त्तव्य है कि अपने वंश को वह आगे बढ़ाए। यह वंश बेटे के जन्म से ही आगे बढ़ सकता है, बेटी के जन्म से नहीं। इसके अलावा, एक धार्मिंक विास यह भी है कि मृत्यु के बाद बेटे के ही मुखाग्नि देने से तर्पण होता है। इसलिए भी बेटे का होना जरूरी है। ऐसी पारंपरिक धारणाओं की वजह से प्रतिबंध के बावजूद लोग प्रसव-पूर्व लिंग परीक्षण कराते हैं, और कन्या भ्रूण का गर्भपात करा देते हैं। देश के लिए सबसे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि चोरी- छुपे कन्या भ्रूण हत्या की यह परंपरा हमारे शिक्षित मध्यम वर्ग और अर्ध शहरी कस्बों में ज्यादा प्रचलित है।

अपने देश में शिशु मृत्यु दर दुनिया में सबसे अधिक है। शिशु मृत्यु दर का अर्थ है, जन्म के एक साल से पांच साल के बीच होने वाली मृत्यु। भारत में प्रति वर्ष लगभग 8 लाख शिशु इसी अवधि में समाप्त हो जाते हैं। इसका मुख्य कारण होता है कुपोषण और स्वास्य सुविधाओं का अभाव। आपको यह जान कर शायद अच्छा नहीं लगे कि इसमें भी कन्या शिशु की मृत्यु दर, पुरु ष शिशु दर से 2.5 प्रतिशत ज्यादा है। बहुत सारे लोग अपनी इस मानसिकता के कारण कन्या शिशु के पालन-पोषण पर विशेष ध्यान नहीं देते कि ‘‘इसे कौन हमारे साथ रहना है, यह तो पराये घर ही जाएगी। बड़ी होने पर इसे यौन अपराधों से बचाना मुश्किल होगा और इज्जत से विदा करने के लिए दहेज में भारी रकम देनी पड़ेगी’, ऐसी सामाजिक व्यवस्था के कारण शुरुआती देखभाल में भी लड़कियों की उपेक्षा की जाती है। इस तरह की सोच और सामाजिक व्यवस्था का चक्रीय प्रभाव पड़ता है। यहां यौन अपराध को प्रतिष्ठा से जोड़ कर देखा जाता है। इसलिए बेटी के सुरक्षित जीवन के लिए उसे जल्दी-से-जल्दी ब्याह दिया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि प्रति हजार विवाहित महिलाओं में से 13 को उनका किशौर्य समाप्त होने के पहले ही (15 से 19 के बीच) बच्चा हो जाता है। कम उम्र में शादी करने की प्रथा गरीब और कमजोर तबके में ज्यादा देखी जाती है। जाहिर है, ऐसे परिवारों को या तो स्वास्य सेवाओं की जानकारी नहीं होती या उन तक उनकी पहुंच नहीं होती। इसका नतीजा यह होता है कि प्रसव के दौरान ही लाख में से 17.5 महिलाएं दम तोड़ देती हैं।

देश में हुई अनेक तरह की तरक्की के बावजूद और हर क्षेत्र में महिलाओं के आगे आने के बावजूद सिर्फ 18.2 प्रतिशत नौकरीपेशा महिलाओं को सवैतनिक प्रसूती अवकाश की सुविधा मिल पाती है। यहां 81.4 प्रतिशत महिलाओं को ही प्रसव के समय किसी पेशेवर स्वास्थकर्मी की सेवा उपलब्ध हो पाती है, शेष प्रसव भगवान भरोसे होते हैं। 46.5 प्रतिशत विवाहित महिलाओं की पहुंच किसी भी प्रकार के गर्भ निरोधक तक नहीं हो पाती और इसलिए गर्भ धारण करना उनकी अपनी इच्छा पर निर्भर नहीं करता और 28.8 प्रतिशत महिलाएं यह स्वीकार करती हैं कि उनके अंतरंग पुरु ष साथी ने उनके साथ शारीरिक हिंसा की। इस आंकड़े को देखते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय स्त्रियां अपने पारिवारिक जीवन को बचाए रखने या संकोच के कारण अक्सर इस तरह के मामलों में सचाई बाहर नहीं आने देतीं वरना यह प्रतिशत काफी ऊपर भी जा सकता है। पांच साल की उम्र में जब लड़कियों को स्कूल में दाखिल कराया जाता है, तो यह आशा की जाती है कि वे 12.9 वषों तक पढ़ाई कर सकेंगी, जबकि पुरु ष छात्रों के बारे में यह प्रत्याशा 11.9 वर्ष ही है। लेकिन औसतन 4.7 वर्ष की पढ़ाई के बाद उन्हें स्कूल छोड़ना पड़ता है क्योंकि नौ-दस की उम्र होते- होते मां-बाप उन्हें बाहर भेजना असुरक्षित महसूस करने लगते हैं, जबकि लड़के औसतन 8.2 वर्ष तक पढ़ाई करने के बाद स्कूल छोड़ते हैं। इस तरह धीरे-धीरे असमानता की यह खाई चौड़ी से और चौड़ी होती जाती है।

देश में पढ़ाई जारी रखने वाली 25 से ऊपर की सिर्फ 39 प्रतिशत महिलाओं को सेकेंड्री या उससे ज्यादा शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिलता है, जबकि इसी वर्ग में पुरु षों का प्रतिशत 63.5 है। विज्ञान, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग और मैस जैसे विषयों के जितने भी स्नातक पूरे देश में हैं, उनका 27.7 प्रतिशत हिस्सा ही महिलाओं के पाले में है। सामाजिक सुरक्षा, स्वास्य सेवाओं और शिक्षा में होने वाली गैर-बराबरी के कारण धीरे-धीरे महिलाएं श्रम बाजार और अर्थ उपार्जन के क्षेत्र में भी पीछे छूटने लगती हैं। इसमें दो राय नहीं कि लड़कियों के इस तरह पिछड़ने में उनके परिवारों की भूमिका भी काफी महत्त्वपूर्ण होती है। देश की श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी मात्र 23.6 प्रतिशत है, जबकि पुरु षों की भागीदारी 78.6 प्रतिशत है। 2011 को आधार वर्ष मानें तो प्रति वर्ष प्रति महिला हमारी राष्ट्रीय आय 2625 डॉलर है, जबकि प्रति पुरु ष 10712 डॉलर है क्योंकि सिर्फ 13 प्रतिशत मध्य और उच्च पदों तक महिलाएं पहुंच पाती हैं। शायद इसीलिए संसद में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व सिर्फ 11.7 प्रतिशत है। र्वल्ड इकोनॉमिक फोरम की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में महिलाओं की सेहत और आर्थिक भागीदारी के क्षेत्र में स्थिति पहले से और ज्यादा खराब हुई है।

स्त्री-पुरुष असमानता पर तैयार इस रिपोर्ट के मुताबिक, भारत पिछले साल के मुकाबले चार पायदान नीचे खिसक कर 112वें स्थान पर पहुंच गया है। भारत का स्थान चीन (106), श्रीलंका (102), नेपाल (101), ब्राजील (92), इंडोनेशिया (85) और बांग्लादेश (50) से भी नीचे है। यह रिपोर्ट बीते मंगलवार को ही जारी हुई है। ध्यान देने की बात यह है कि पिछले हफ्ते जारी यूएनडीपी की रिपोर्ट में भी भारत में स्त्री-पुरु ष असमानता के बढ़ने का संकेत दिया गया है। लैंगिक असमानता सामाजिक गैर-बराबरी की सबसे बड़ा वाहक है। यह लोकतंत्र विरोधी भी है। इसके बढ़ने से सामाजिक विषमताएं तो बढ़ती ही हैं, किसी राष्ट्र की उत्पादकता में भी कमी आती है। इससे उसकी सकल आय दर कम होती है, और विकास अवरुद्ध होता है। आखिर, कोई राष्ट्र अपनी आधी आबादी को पीछे छोड़ कर कैसे आगे बढ़ सकता है ?


Date:20-12-19

Reset the boardroom

NCLAT ruling on Tata Sons case flags deeper questions of corporate governance that need to be addressed urgently

Editorial

Three years after being abruptly unseated, Cyrus Mistry appears on course to being reinstated as executive chairman of Tata Sons, the holding company of one of India’s largest business conglomerates, with the National Company Law Appellate Tribunal (NCLAT) ruling on Wednesday that his sacking in October 2016 and the subsequent appointment of N Chandrasekaran was illegal. This is an extraordinary development in the history of corporate battles in India. It could have a destabilising impact on not just the scores of companies in the over $100 billion diversified group but also on markets and investors.

The tribunal has said that the manner in which Mistry was suddenly removed, the absence of any discussion at the board meeting on October 24, 2016, and his subsequent removal as a director in group companies, amounted to prejudicial and oppressive action. It has ordered that Mistry be reinstated as director of four Tata companies, while setting aside the decision to convert the company from a public to a private firm. The tribunal’s verdict will become operational only after four weeks with a window being provided for the Tatas to appeal to the Supreme Court. But irrespective of the final verdict in this case, there are some larger issues which need to be addressed by corporate India.

These questions concern corporate democracy or democratic behaviour in listed corporate firms, be they promoter-driven companies or professionally managed companies and appropriate governance structures including independent boards. It is important in a public corporation to make a clear distinction between decisiveness and arbitrariness. While corporate governance in any country may be shaped by several factors, including the cultural backdrop, it is also about ethical values, integrity standards and following the spirit of the law. At a fraught time when many Indian companies are struggling to manage their balance sheets, one of the grave risks that the latest ruling poses is that of further deepening the distrust of corporates by many investors hurt already by events in many firms over the past few years. That could be a dampener for long-term investment in India and for companies and entrepreneurs looking to bet on projects here. Much will depend on how swiftly the Supreme Court ensures an early closure to this corporate feud, and the behavioural change in India’s boardrooms over the next few years.


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