19-06-2019 (Important News Clippings)

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19 Jun 2019
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Date:19-06-19

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State of country’s police forces leaves a lot to be desired

TOI Editorials

In a welcome move, the Union home ministry has kicked off an exercise to rank the country’s best police stations. A similar exercise had been undertaken in 2017. But this time the exercise is expected to be more comprehensive with the police stations being judged on seven parameters such as crime prevention, proactive measures adopted, and citizens’ perception and feedback. The overall goal here is to spur competition between police stations and create incentives to improve policing. While this is indeed an innovative approach, attention also needs to be directed towards the resource crunch that a large number of police stations grapple with across the country.

For example, expenditure on police accounts for just around 3% of central and state government budgets. As of January 2016 – and little improvement has been made since then – state police forces had 24% vacancies. Thus, while the sanctioned police strength was 181 policemen per lakh persons, the actual strength was just 138 per lakh. This is in stark contrast to the UN recommended standard of 222 policemen per lakh persons. The manpower shortage means that police personnel are often overburdened, affecting the overall quality of policing. This in turn translates into poor police-public relations in large parts of the country.

Additionally, police forces are saddled with administrative and structural deficiencies ranging from obsolete weaponry and shortage of police vehicles to poor communication networks and technological inputs. Both the Police Telecommunication Network, which is used in crime investigation and transmission of crime-related data, and the Crime and Criminal Tracking Network and System, which is supposed to link every police station, are yet to be implemented in certain states. Given that security challenges are increasing – from cybercrimes to terrorism – such lacunae in police infrastructure are unacceptable. With BJP president Amit Shah becoming Union home minister, he should expedite greater coordination with the states and push through much needed police reforms.


Date:19-06-19

Tap Water For All

Provide comprehensive piped water coverage to lift Indians’ standard of living

TOI Editorials

Addressing chief ministers at a recent meeting of the governing council of Niti Aayog, Prime Minister Narendra Modi said government’s aim was to ensure piped water to every rural household by 2024. This is a commendable goal and a logical followup to the Swachh Bharat programme. Ensuring piped water to every household is at the heart of the overarching aim of governments to improve the quality of life for every Indian. To actualise this goal, Modi took an important step by integrating the government’s water management efforts.

The newly created Jal Shakti Mantralaya – to be helmed by Gajendra Singh Shekhawat – consolidates water policy and management, which had till recently been spread across seven ministries. According to one estimate, only around one in five rural households has a piped water connection. Within this, there is noticeable regional disparity. In this context, it is important the Centre adopts a coordinated approach to the problem. From a political standpoint, it helps that both Centre and states such as UP and Bihar, which lag the national average in piped water connections, have governments run by BJP and its allies.

The scale of the challenge for the government this time is even more complex than Swachh Bharat. Linking every household through taps to a collective source of water requires the state to be involved at every step. By way of comparison, building toilets could be hastened through financial subsidies provided to relevant households. Now, Centre and states have to work in conjunction. We need to witness greater government participation at all levels of project implementation. Even as the focus is on rural households, governments cannot lose sight of the fact that many urban slums are largely dependent on hand pump, each one shared by many households. The aim must be comprehensive coverage.

Piped water needs to be located in the larger policy context of easing India’s water stress. At a per capita level, water availability has been declining. Piped water projects therefore represent an approach which can harness technology to augment water conservation. To illustrate, Israel recycles around 94% of water it uses. Recycling can increase water availability even in times of rainfall deficiency. This can end the perennial water crises Chennai suffers, for instance. At another level, piped water to every household will significantly ease the burden women in rural India bear. Piped water can be a truly transformative project.


Date:19-06-19

प्रतिपक्ष बनकर दोहरी जिम्मेदारी निभाए विपक्ष

जनादेश जिसे मिला है उसके साथ सहयोग और लोकतंत्र पर खतरे की आशंका सही हो तो जमीन पर प्रतिरोध

योगेन्द्र यादव सेफोलॉजिस्ट और अध्यक्ष, स्वराज इंडिया

लोकसभा चुनाव का परिणाम आया है देश की बड़ी विपक्षी पार्टियों को मानो लकवा मार गया है। बदहवासी और बौखलाहट छाई हुई है। गठबंधनों की गांठ खुल रही है, पार्टियों की पोल खुल रही है। कार्यकर्ता नेताओं को ढूंढ़ रहे हैं और नेता ढूंढ रहे हैं कि हार का ठीकरा किस के सिर पर फोड़ा जाए। विपक्षी नेता ईवीएम को दोष दे रहे हैं, कांग्रेस अपने ही कार्यकर्ताओं को और सपा-बसपा एक दूसरे को। जो एक-दूसरे पर दोष नहीं दे रहे वे पहले दिन से ही मोदी सरकार में खोट ढूंढने में लग गए हैं। अपने-अपने राज में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र का गला घोटने वाली पार्टियां केंद्र में भाजपा को तानाशाह बता रही हैं। विपक्ष की नौटंकी चल रही है जनता देख रही है…

पहली नज़र में लग सकता है कि यह कोई नई बात नहीं है, कि 1984 में कांग्रेस की आंधी और 2009 में यूपीए की दूसरी जीत के बाद भाजपा की भी कमोबेश यही हालत थी। लेकिन, यह नज़र का धोखा होगा। इस बार विपक्ष का संकट सिर्फ चुनावी हार का बुखार नहीं है, जो कुछ महीनों में अपने आप उतर जाएगा। यह अस्तित्व का संकट है। कैंसर न भी हो तो कम से कम टीबी जरूर है। अगर इलाज न हुआ तो मरीज की जान को खतरा है। इस संकट का कारण यह है कि विपक्षी पार्टियां सच का सामना करने से मुंह चुरा रही हैं।

लोकसभा चुनाव के परिणाम के दो बड़े सच हैं या यूं कहिए सच के दो पहलू हैं। पहला सच यह है कि देश की जनता ने भाजपा को और नरेंद्र मोदी जी को स्पष्ट जनादेश दिया है। बेशक, वोटर का मन बनाने में मीडिया के एक तरफा प्रचार, भाजपा द्वारा बेतहाशा पैसा बहाने और बालाकोट के घटनाक्रम की बड़ी भूमिका रही। यकीनन, चुनाव जीतने में सब मर्यादाएं तोड़ी गईं, सत्ता का दुरुपयोग हुआ, चुनाव आयोग ने भी पक्षपात किया। लेकिन, अंततः भाजपा ने यह चुनाव हेरा-फेरी से नहीं, जनता का विश्वास पाकर जीता। कुल-मिलाकर जनता ने नरेंद्र मोदी जी पर दोबारा भरोसा किया। जितना उन पर विश्वास किया, उससे ज्यादा विपक्षी पार्टियों और नेताओं पर अविश्वास व्यक्त किया। जनता ने प्रमुख विपक्षी पार्टियों के अवसरवाद, क्षेत्रवाद और जातिवाद को सिरे से खारिज कर दिया। सच के इस कड़वे पहलू को स्वीकार करने का साहस अब तक किसी बड़े विपक्षी दल या नेता ने नहीं दिखाया है।

विपक्षी नेताओंं और मोदी विरोधी को सच का दूसरा पहलू ज्यादा सुहाता है। वे बताते हैं कि इस हालात में और इस तरीके से भाजपा की विशाल जीत से लोकतंत्र को खतरा है, धर्मनिरपेक्षता संकट में है, भारत के स्वधर्म पर हमला है। मोदी राज के अब तक के रिकॉर्ड को देखते हुए यह शंकाएं निराधार नहीं हैं। कोई भी पार्टी या नेता जितने भी प्रचंड बहुमत से जीते हों, अगर वे लोकतंत्र या संविधान की बुनियाद पर चोट कर सकते हैं तो उसके प्रति जनता को आगाह करना और ऐसी किसी हरकत का जमीन पर मुकाबला करना हर लोकतांत्रिक शक्ति की जिम्मेदारी है। लेकिन चुनाव परिणाम में केवल इस आशंका को देखना जनादेश का सम्मान नहीं है।

यह चुनाव परिणाम सत्ता पक्ष के बाहर खड़े सभी दलों, नेताओं, बुद्धिजीवियों और सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर दोहरी जिम्मेदारी डालता है। एक, जनता के आदेश को ध्यान से, सिर झुकाकर सुनना। जनादेश का सम्मान करने का मतलब है जनता ने जिस सरकार को चुना है, उसके साथ संवाद और सहकार। जरूरी नहीं कि जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की हर नीति या कार्यवाही का समर्थन किया जाए। अगर सरकार जनता की आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरती तो उस की आलोचना और विरोध करना लोकतांत्रिक अधिकार और जिम्मेदारी है। लेकिन इतना जरूरी है कि जनता की आस्था में आस्था बनाई रखी जाए। दो, जनता को देश पर आसन्न खतरे के प्रति आगाह करना, सच का आईना दिखाना और विनम्रता से अपनी बात सुनाना। लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था पर खतरे की आशंका अगर सही साबित होती है तो सिर्फ जुबानी विरोध नहीं बल्कि जमीन पर प्रतिरोध करना भी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी है। सहकार और प्रतिरोध की इस दोहरी जिम्मेदारी को निभाना आज लोकतांत्रिक शक्तियों की सबसे बड़ी चुनौती है।

इस चुनौती का सामना करने के लिए हमें केवल विपक्ष नहीं बल्कि एक प्रतिपक्ष की आवश्यकता है। आम बोलचाल की भाषा में हम इन दोनों शब्दों में अंतर नहीं करते लेकिन, आज के संदर्भ में इस अंतर को समझना बेहद जरूरी है। भारतीय दार्शनिक परम्परा में किसी नए मत के प्रतिपादन से पहले यह जरूरी है की आप अपने विरोधी के तर्क को ईमानदारी और सुसंगत तरीके से प्रस्तुत करें। इसे ‘पूर्व पक्ष’ कहा जाता है। उसके बाद उस मत का खंडन पेश किया जाता है। तभी एक नए मत का प्रतिपादन किया जा सकता है। इसे ‘उत्तर पक्ष’ या ‘प्रतिपक्ष’ कहा जाता है। इस अवधारणा को राजनीति में उतारे तो प्रतिपक्ष का मतलब है सिर्फ विरोध के लिए विरोध नहीं, बल्कि निष्पक्ष समझ पर आधारित मूल्यांकन, उस आधार पर आलोचना और फिर विकल्प का प्रतिपादन।

विपक्ष की राजनीति आदतन और शाब्दिक विरोध की राजनीति है। प्रतिपक्ष की राजनीति नीति और सिद्धांत पर आधारित सहकार और प्रतिरोध की राजनीति है। विपक्ष के विरोध में सत्ता के बाहर होने की मजबूरी है, अवसरवदिता है, नकारात्मकता है। प्रतिपक्ष का विरोध सत्ता के प्रति निरपेक्ष है, सिद्धांत से प्रतिबद्ध है अपनी आलोचना में भी सकारात्मक है। विपक्ष अक्सर शाब्दिक विरोध करके संतुष्ट हो जाता है, विरोध के बाद विराम की मुद्रा में आता है, उसकी राजनीति विलंबित लय में चलती है। प्रतिपक्ष की राजनीति प्रतिदिन की राजनीति है, केवल सत्ता पक्ष की प्रतिक्रिया की राजनीति नहीं है बल्कि सक्रियता की राजनीति है। नीति और सिद्धांत के सवाल पर उसका विरोध एक गहरी प्रतिरोध की शक्ल लेता है। देश और लोकतंत्र को बचाना सिर्फ शाब्दिक चुनौती नहीं है। प्रतिपक्ष की राजनीति के लिए इस चुनौती को स्वीकार करने का मतलब है हर हालत में किसी भी कीमत पर देश और गणतंत्र के मूल्यों की रक्षा करना।

क्या भारतीय लोकतंत्र को ऐसा प्रतिपक्ष मिल पाएगा? फिलहाल तो आसार दिखाई नहीं दे रहे, लेकिन चुनाव परिणाम के एक महीने के भीतर किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। इतिहास गवाह है कि राजनीति के इसी मलबे में से नई इमारत खड़ी होती है। विपक्ष के इसी प्रहसन से एक प्रतिपक्ष पैदा होना भी लाजिमी है।


Date:19-06-19

भारतीय कारोबारी समूहों की सीमित वैश्विक पहचान

कनिका दत्ता

करीब दो दशक पहले तीन कॉर्पोरेट गुरुओं ने एक पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक था: वल्र्ड क्लास इन इंडिया। इन लेखकों में से दो भारतीय थे। एक थे स्वर्गीय सुमंत्र घोषाल जो उस वक्त उभर रहे इंडियन स्कूल ऑफ बिज़नेस (सन 2004 में महज 56 वर्ष की उम्र में उनका निधन हो गया) के संस्थापक डीन थे और दूसरी गीता पीरामल, जो भारतीय कारोबारी जगत की सम्मानित इतिहासकार हैं। तीसरे लेखक थे क्रिस्टोफर बार्टलेट। बार्टलेट हॉर्वर्ड बिज़नेस स्कूल से हैं और उन्होंने घोषाल के साथ मिलकर वैश्विक कारोबारी निगमों की प्रकृति पर अन्य किताबें भी लिखी हैं। किताब खूब चर्चा में रही। उन दिनों मैकिंजी द्वारा प्रवर्तित आईएसबी की शुरुआत होने ही वाली थी लेकिन किताब केवल विभिन्न संगोष्ठियों में घोषाल की शानदार उपस्थिति की वजह से चर्चा में नहीं आई। वे दिन भारतीय उद्यमी जगत के लिए उम्मीद से भरे हुए दिन थे। सन 1990 के शुरुआती दिनों के अनुमान के उलट भारतीय कारोबार वैश्विक प्रतिस्पर्धा की लहर को झेल गए थे। तरुण दास के करिश्माई नेतृत्व में सीआईआई की औद्योगिक लॉबी की बातें नीति निर्माण के क्षेत्र में उच्चतम स्तर पर भी सुनी जाती थी। उस वक्त अविभाजित आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे चंद्रबाबू नायडू ने निवेश और तकनीक से जुड़े राजनेता के रूप में अपनी पहचान बनाई थी जो विकास को लेकर कॉर्पोरेट रुख रखता हो। यह उस दौर की बात है जब राष्ट्रीय राजनीति में नरेंद्र मोदी का उदय तक नहीं हुआ था। हवाई अड्डों से लेकर सड़कों तक और नए टेलीविजन से लेकर मोबाइल फोन तक भारतीय कारोबारी जगत जल्दी ही चीन का प्रतिद्वंद्वी बनता नजर आ रहा था।

वल्र्ड क्लास इन इंडिया नामक पुस्तक में देश में आमतौर पर व्याप्त आशावाद का जिक्र था। किताब में देश की विभिन्न कंपनियों की केस स्टडी प्रस्तुत की गई जिनमें उक्त तमगा हासिल करने का गुण था। इनमें रिलायंस, रैनबैक्सी, विप्रो, बजाज ऑटो, हीरो होंडा, एचसीएल, इन्फोसिस और हिंदुस्तान लीवर जैसे नाम शामिल थे। लेखकों के मुताबिक इन कंपनियों के पास फोकस वाली प्रबंधन नीति तो थी ही, साथ ही आम लोगों और प्रक्रियाओं पर भी पूरा जोर था। ये सारी बातें उन्हें भविष्य के लिए बेहतर बनाती थीं।

दो दशक के अंतराल के बाद इनमें से कुछ नामों को लेकर तिरछी मुस्कान देखने को मिल सकती है। रैनबैक्सी एक के बाद एक स्कैंडल में उलझी और इसका देश के औषधि क्षेत्र पर पर दशक भर अत्यंत बुरा असर पड़ा। छह वर्ष के अंतराल में कंपनी में दो मालिक बदले। उसके मूल प्रवर्तक कई बार विवादों तो कई बार मजाकिया कारणों से चर्चा में रहे। हीरो और होंडा ने चौथाई सदी की साझेदारी खत्म की और अलग-अलग राह पकड़ी, हालांकि बाजार हिस्सेदारी में दोनों शीर्ष दो स्थानों पर कायम रहीं। आईटी क्षेत्र की दिग्गज कंपनियां जितना प्रबंधन में बदलाव के लिए सुर्खियों में रहीं उतना ही वैश्विक आईटी सेवा शृंखला में अपने मूल्यवर्धन के लिए भी। उधर हिंदुस्तान लीवर देश के दैनिक उपयोग के उपभोक्ता वस्तु बाजार में अपनी शीर्षस्थ होने की प्रतिष्ठा गंवा चुका है। घोषाल की सूची बताती है कि कॉर्पोरेट समूहों की महानता के बारे में अनुमान लगाना कितना कठिन है। दूर से नजर डालने पर तो टाइटन, इंडिगो, एयरटेल, पेटीएम, फ्लिपकार्ट, ओयो, भारत फोर्ज, रॉयल एनफील्ड, सन फार्मा, जीएमआर, जीवीके और निजी क्षेत्र के बैंकों के उभार का अनुमान लगाना मुश्किल था।

इसी तरह अगर वर्तमान कॉर्पोरेट जगत का सर्वेक्षण किया जाए तो बीते कल का आशावाद गलत प्रतीत होता है। वर्ष 2000 में जेट एयरवेज को एयर इंडिया का प्रतिद्वंद्वी माना जाता था और आईएलऐंडएफएस को भविष्य में बुनियादी निवेश का बहुत बड़ा खिलाड़ी समझा जाता था। जिन कंपनियों और संस्थानों को एक वक्त भारतीय कारोबारी जगत की जीवंतता का प्रतीक माना जाता था वे या तो दिवालिया हैं या फिर डिफॉल्ट कर चुकी हैं। इनमें से कई तो किसी न किसी तरह की धोखाधड़ी के मामले में उलझी हैं। यह संकट दशकों के खराब नीति निर्माण, सांठगांठ वाले पूंजीवाद, कुछ सरकारी संस्थानों की गलत सक्रियता और कुछ अन्य की अक्षमता की वजह से हुआ। परंतु लगभग हर रोज दिख रही अखबारी सुर्खियों के बीच शायद कॉर्पोरेट भारत की एक और कमजोरी की अनदेखी हो गई है। प्रतिस्पर्धा मानक शिथिल होने के तीन दशक बार चंद ही भारतीय कंपनियां ऐसी हैं जिन्हें सही मायने में विश्वस्तरीय कहा जा सकता है। ठीक सन 1970 और 1980 के दशक की तरह देश के सबसे ताकतवर कारोबारी समूह वैश्विक स्तर पर कुछ खास पहचान नहीं रखते। हालांकि इसके कुछ अपवाद भी हैं।

प्रथम दृष्टया इस रुझान में कुछ तो अतार्किक लगता है। कारोबारी सुगमता के मामले में हमारा स्तर कमजोर है और आपको लग सकता है कि शायद इसके चलते देश की बड़ी कंपनियों ने अपनी पूंजी कम प्रतिस्पर्धा वाले देशों में निवेश की हो। विदेशों में कारोबार चलाकर भारतीय बाजार में सेवा देना टैरिफ दरों में कमी आने के बाद हमेशा एक विकल्प रहा है। टेलीविजन, मोबाइल, घरेलू उपकरण बनाने वाली कई विदेशी कंपनियां ऐसा करती आई हैं। उन्होंने ओनिडा, वीडियोकॉन या माइक्रोमैक्स जैसे भारतीय प्रतिस्पर्धियों को चुटकियों में पीछे छोड़ दिया।

भारतीय उद्यमी जगत के इस सीमित वैश्विक नजरिये को कैसे परिभाषित किया जाए? इस सवाल का जवाब इस बात में निहित है कि हर स्तर पर विकृत पूंजीवाद के सहारे लालफीताशाही की जटिलताओं में से राह निकाल ली जाती है। जिनको इस खेल में महारत हासिल है उनके लिए यह सांठगांठ समान शर्तों पर नीतिगत सोच के साथ प्रतिस्पर्धा से बचने का रास्ता बन जाता है। असमान कारोबारी शर्तें आकर्षक हो सकती हैं लेकिन हालिया कारोबारी इतिहास यही बताता है कि लंबी अवधि में यह भारतीय उद्यमियों और उपभोक्ताओं दोनों के लिए नुकसानदेह है।


Date:19-06-19

हकीकत से दूर

संपादकीय

नीति आयोग की संचालन परिषद की पांचवीं बैठक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि सरकार का लक्ष्य सन 2024 तक देश को 5 लाख करोड़ डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने का है। यही वह वक्त होगा जब उनका दूसरा कार्यकाल समाप्त होगा। उन्होंने स्वीकार किया कि यह लक्ष्य चुनौतीपूर्ण है लेकिन इसे हासिल किया जा सकता है, बशर्ते कि राज्य सरकारें इसमें सहयोग करें। यह पहला मौका नहीं है जब मोदी या उनके वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों ने इस अवधि में यह लक्ष्य हासिल करने की बात कही हो। बहरहाल लक्ष्य को बार-बार दोहराने से वह आसान नहीं हो जाता। देश का जीडीपी फिलहाल करीब 2.8 लाख करोड़ डॉलर है। यानी तय लक्ष्य को पाने के लिए अगले पांच वर्ष में इसमें 87 फीसदी की बढ़ोतरी करनी होगी। ऐसे समय में जबकि अर्थव्यवस्था छह फीसदी से भी कम दर से बढ़ रही है, इस तेजी को हासिल करना लगभग असंभव नजर आता है। जनवरी से मार्च तिमाही की बात करें तो इस अवधि में वृद्धि दर 5.8 फीसदी रही। यानी उक्त लक्ष्य हासिल करने के लिए 12.8 फीसदी की समेकित वार्षिक वृद्धि दर हासिल करनी होगी। फिलहाल तो 8 फीसदी की दर हासिल करना भी मुश्किल है, दो अंकों की बात तो छोड़ ही दी जाए।

अप्राप्य लक्ष्य हासिल करना अच्छी बात नहीं है। अतीत में ऐसे अन्य लक्ष्य भी तय किए जा चुके हैं। उदाहरण के लिए 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का लक्ष्य। प्रधानमंत्री ने नीति आयोग की बैठक में भी इसे दोहराया। देश की अर्थव्यवस्था की दिक्कतों से निपटने के लिए कहीं अधिक तार्किक तौर तरीके अपनाने की आवश्यकता है। तात्कालिक लक्ष्य होना चाहिए उसे मौजूदा संकट से उबारना और मध्यम अवधि में उसे स्थायित्व के साथ आठ फीसदी वार्षिक की दर से आगे ले जाना। एक बार मौजूदा मंदी का हल निकाल लिया जाए तो वृद्धि को दो अंकों में ले जाने पर विचार किया जा सकता है। इसमें दो राय नहीं कि वृद्धि दर को जल्द से जल्द दो अंकों में ले जाना तात्कालिक लक्ष्य होना ही चाहिए। दिक्कत यह है कि अर्थव्यवस्था के समक्ष मौजूद दिक्कतों को हल करने के शुरुआती कदम तात्कालिक होने चाहिए। इस दौरान कुछ वर्ष में अर्थव्यवस्था का आकार दोगुना करने की मरीचिका नहीं दिखाई जानी चाहिए।

वृद्धि दर में इजाफा लाने के लिए काफी तैयारी करनी होगी। उदाहरण के लिए वित्तीय तंत्र को निरंतर संकट का सामना करना पड़ रहा है, सरकारी बैंकों की चिंता बरकरार है और इस बीच गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की ओर से नई समस्या खड़ी हो गई है। बुनियादी ढांचागत विकास के लिए धनराशि कहां से आएगी यह सवाल बरकरार है।

आईएलऐंडएफएस मामले के बाद जाहिर है एनबीएफसी यह काम करने की स्थिति में नहीं हैं। निजी-सार्वजनिक भागीदारी मॉडल की अपनी अलग दिक्कतें हैं और सरकार हमेशा बुनियादी फंडिंग के लिए संसाधन नहीं जुटा सकती। कारोबारी आय में गिरावट है और निजी क्षेत्र की अतिरिक्त क्षमता भी संकट का कारण है। मौजूदा हालात में निवेश की न तो गुंजाइश है, न ही इसे लेकर कोई उत्साह है। भूमि और श्रम बाजार का लचीलापन भी लंबे समय से लंबित है। बिजली क्षेत्र भी निष्क्रिय बना हुआ है। कुल स्थापित क्षमता के बमुश्किल 50 फीसदी का इस्तेमाल हो पा रहा है। यह हालत तब है जबकि देश का बड़ा हिस्सा अभी भी बिजली की जरूरत महसूस कर रहा है। आखिर में, निरंतर दो अंक में वृद्धि हासिल करने के लिए बेहतर निर्यात और शिक्षित और उत्पादक श्रम शक्ति की आवश्यकता है। अब तक यह हमारी प्राथमिकता में नहीं रहा है। इसे जल्द से जल्द हल करना होगा। एक बार इस दिशा में कदम उठाए जाने के बाद हम दो अंकों की वृद्धि की बात कर सकते हैं।


Date:18-06-19

आतंकियों को पैसा

संपादकीय

अब तो यह साफ हो चुका है कि पाकिस्तान आतंकी संगठनों को वित्तीय मदद दे रहा है और इस पैसे का इस्तेमाल विशेषरूप से भारत में अशांति और अस्थिरता फैलाने में किया जाता रहा है। हालांकि यह पहले से स्थापित सत्य है और इस बारे में भारत ठोस सबूतों के साथ अपना पक्ष रखता रहा है। दुनिया के दूसरे देश भी यह अच्छी तरह जानते हैं कि पाकिस्तान आतंकी संगठनों को वित्तीय मदद देता है। लेकिन अब तो वे लोग जिन्हें पाकिस्तान से पैसा मिलता रहा है, खुद इस बात को कबूल रहे हैं। इसके अलावा, आतंकी संगठनों को वित्तीय मदद उपलब्ध कराने पर नजर रखने वाली संस्था- फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) ने भी खुलासा किया है कि पाकिस्तान आतंकी संगठनों को वित्तीय मदद रोकने के लिए कोई कार्रवाई नहीं कर रहा है। उसने इस दिशा में जो भी कदम उठाए हैं वे दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं हैं। हाल में पाकिस्तान के बारे में ऐसी जो खबरें आई हैं, वे चौंकाने वाली हैं। इससे एक बात स्पष्ट है कि पाकिस्तान पर चाहे जितना अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़े, वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आने वाला। हालांकि हाल में उसने पहली बार आतंकी हमले के बारे में भारत को सूचना देकर दुनिया के समक्ष अपने को भारत के हमदर्द के रूप में दिखाने की कोशिश की है। लेकिन अब तक का पाकिस्तान का जो इतिहास रहा है, उसे देखते हुए भरोसा करना भी खतरे से खाली नहीं होगा।

जम्मू-कश्मीर की अलगाववादी नेता आसिया अंद्राबी ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआइए) के समक्ष इस बात का खुलासा किया है कि पाकिस्तान से उसे जो पैसा मिलता था, उसका इस्तेमाल वह घाटी में सेना और सरकार के खिलाफ महिलाओं से प्रदर्शन करवाने के लिए करती थी। सिर्फ आसिया को नहीं, ज्यादातर अलगाववादी नेताओं को पाकिस्तान सिर्फ इसलिए पैसे देता है कि वे घाटी में अलगाववादी आंदोलन, धरने-प्रदर्शन, पथराव जैसी गतिविधियां चलवाते रहें। इसी पैसे से अलगाववादी नेताओं ने घाटी में कई जगहों पर जायदाद बना ली हैं और बड़े कारोबार खड़े कर लिए हैं। एनआइए जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी संगठनों को मिलने वाले पैसे की गहराई से जांच कर रही है, ताकि पैसे के मूल स्रोत तक पहुंचा जा सके। यह जांच इसलिए जरूरी हो गई थी कि अब तक अलगाववादी संगठनों के नेता यही कहते आए हैं कि उन्हें पाकिस्तान से इस तरह की कोई मदद नहीं मिलती और उनका मकसद आजाद कश्मीर के लिए संघर्ष है। पाकिस्तान भी यही कहता रहा है कि वह किसी आतंकी या अलगाववादी संगठन को मदद नहीं देता है। लेकिन एनआइए की जांच और अलगाववादी नेताओं के कबूलनामे ने पाकिस्तान को बेनकाब कर दिया है।

आतंक पर लगाम लगाने के लिए सबसे पहली जरूरत है कि आतंकी संगठनों को मिलने वाली आर्थिक मदद बंद हो। एफएटीएफ ने आतंकी संगठनों को वित्तीय मदद रोकने के लिए पाकिस्तान के लिए सत्ताईस मानक तय किए थे। लेकिन पाकिस्तान इनमें से पच्चीस मानकों पर खरा नहीं उतरा है। जाहिर है, आतंकी संगठनों को वित्तीय मदद रोकने की जो जिम्मेदारी उसे सौंपी गई, उस पर वह खरा नहीं उतरा। एफएटीएफ ने साल भर पहले पाकिस्तान को निगरानी सूची में डाल दिया था। लेकिन साल भर में पाकिस्तान सरकार ऐसा कोई ठोस काम नहीं कर पाई जिससे लगता कि वह आतंकी संगठनों पर लगाम कस रही है। हाल में एफएटीएफ की बैठक में भारत ने वे सारे ठोस सबूत रखे हैं जो यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि कैसे पाकिस्तान घाटी में अलगाववादियों को पैसा पहुंचा रहा है। एफएटीएफ के कड़े रुख से पाकिस्तान को अब समझ जाना चाहिए कि अगर वह आतंकी संगठनों की मदद करना बंद नहीं करेगा तो उसे इसकी भारी कीमत चुकाने को तैयार रहना चाहिए।


Date:18-06-19

बिजली वाहनों का भविष्य

बिजली से चलने वाले तंत्र के विकास के बाद कारें काफी महंगी हो जाएंगी और यह बढ़ी हुई कीमत आम ग्राहक को आकर्षित नहीं कर सकेगी। भारत सरकार इस समस्या के समाधान के लिए ‘क्रेडिट प्वाइंट’ जैसी सुविधा या टोल टैक्स आदि में कुछ खास किस्म की छूट का प्रावधान कर सकती है। चीन, अमेरिका या यूरोपीय संघ के सदस्यों की तरह इन वाहनों की खरीद पर सबसिडी देने का विचार फिलहाल भारत सरकार का नहीं है।

अतुल कनक

इस आवश्यकता को बहुत दृढ़ता के साथ रेखांकित किया जा चुका है कि सड़कों पर पेट्रोल या डीजल से चलने वाले वाहनों, विशेषकर कारों और दुपहिया वाहनों को बिजली से चलने वाले वाहनों से विस्थापित किया जाना चाहिए। यह न केवल पर्यावरण संरक्षण के लिए आवश्यक है, बल्कि यदि ऐसा कर पाना संभव हो सका तो पेट्रोलियम उत्पादों की खरीद में खर्च होने वाला देश का बहुत सारा धन भी बचाया जा सकता है। एक बार फिर सड़क परिवहन मंत्रालय को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है और इस बात की पूरी संभावना है कि वह ‘इलेक्ट्रिक व्हीकल्स’ यानी बिजली से चार्ज होकर चलने वाले वाहनों को प्रोत्साहित करने की अपनी योजना को ठोस रूप देने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेगा।

भारत ही नहीं दुनिया भर में पेट्रोल और डीजल से चलने वाले वाहनों के कारण पर्यावरण को होने वाले नुकसान के प्रति जागृति आई है और उन वाहनों को बेहतर विकल्प माना जा रहा है जिनकी बैटरी को बिजली से चार्ज करके आसानी से चलाया जा सकता है। चीन, अमेरिका और यूरोपीय संघ के देशों ने तो ऐसे वाहनों की खरीद पर आर्थिक प्रोत्साहन (सबसिडी आदि) देना भी प्रारंभ कर दिया है। भारत में भी कुछ प्रमुख कार उत्पादकों ने इस दिशा में महत्त्वपूर्ण पहल की है। बिजली से चलने वाले वाहन चूंकि भविष्य की जरूरत हैं और इस क्षेत्र में व्यापार की नई संभावनाएं छिपी हैं, इसलिए कुछ बड़ी कंपनियों ने तो इस दिशा में शोध, प्रयोग और अनुसंधान हेतु अच्छा खासा निवेश भी कर दिया है। उधर, भारत की सबसे बड़ी कार निर्माता कंपनी ने कुछ दिन पहले ही एक अप्रैल 2020 के बाद डीजल गाड़ियों का उत्पादन शनै: शनै: बंद कर देने का एलान कर दिया था। यह वह तारीख है जब वाहनों के लिए भारत-6 (बीएस-6) मानक अस्तित्व में आ जाएगा। तब मानकों के अनुसार डीजल इंजन बनाना डेढ़ लाख रुपए तक महंगा हो जाएगा।

दरअसल, पेट्रोल वाहनों की तुलना में डीजल से चलने वाले वाहन पर्यावरण को अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट 2018 के अनुसार दुनिया भर में सबसे प्रदूषित वायु वाले पंद्रह शीर्ष शहरों में से दस शहर भारत के हैं। इसने भी नीति-नियंताओं को इस बात के लिए विवश किया कि वे हवा में वाहनों के कारण फैलने वाले प्रदूषण के समाधान के बारे में सोचें। लेकिन शहरों के विस्तार के कारण सभी वाहनों पर तो पाबंदी नहीं लगाई जा सकती। बेशक सार्वजनिक परिवहन एक समुचित समाधान हो सकता है, लेकिन नागरिकों को निजी वाहनों के उपयोग से पूर्णत: वंचित कर देना किसी भी दृष्टि से श्रेयस्कर नहीं कहा जा सकेगा।

ऐसे में बिजली से चलने वाले वाहन एक श्रेष्ठ विकल्प हो सकते हैं। भारत की योजना यह है कि सन 2030 तक सड़कों पर मौजूद वाहनों में से तीस प्रतिशत वाहन बिजली से चलने वाले हों। लेकिन यह रास्ता इतना आसान नहीं है। बिजली से चलने वाले तंत्र के विकास के बाद कारें काफी महंगी हो जाएंगी और यह बढ़ी हुई कीमत आम ग्राहक को आकर्षित नहीं कर सकेगी। भारत सरकार इस समस्या के समाधान के लिए ‘क्रेडिट प्वाइंट’ जैसी सुविधा या टोल टैक्स आदि में कुछ खास किस्म की छूट का प्रावधान कर सकती है। चीन, अमेरिका या यूरोपीय संघ के सदस्यों की तरह इन वाहनों की खरीद पर सबसिडी देने का विचार फिलहाल भारत सरकार का नहीं है। यों बीएस-6 मानक लागू होने के बाद डीजल कारों की कीमत में प्रत्याशित वृद्धि भी बिजली से चलने वाली कारों को प्रोत्साहित कर सकती है। यहां यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि कुछ साल पहले तक भारत में डीजल और पेट्रोल की कीमतों में बहुत अंतर रहा करता था। पेट्रोल की तुलना में डीजल बहुत सस्ता हुआ करता था। लेकिन अब स्थिति वैसी नहीं है।

लेकिन बिजली से चलने वाले वाहनों की खरीद के बाद ही उपभोक्ता वाहन के अपरिमित उपयोग के प्रति निश्चिंत नहीं हो सकेगा। बिजली से चलने वाली कारों में जिस लीथियम आयन बैटरी का इस्तेमाल होता है, उस बैटरी को एक बार पूरी तरह चार्ज करने के बाद सामान्य परिस्थितियों में कार को दो सौ से तीन सौ किलोमीटर तक चलाया जा सकता है। सामान्यत: शहरों में तीस से लेकर चालीस किलोमीटर तक गाड़ी प्रतिदिन चलती है। ऐसे में यह स्थिति पहली नजर में तो आदर्श प्रतीत होती है कि एक बार गाड़ी को चार्ज करने के बाद उसे अपनी मंजिल तक ले जाया जाए। लेकिन एक बार बैटरी खत्म होने के बाद उसे पूरी तरह चार्ज करने के लिए पूरी रात चाहिए। विशेषज्ञों के अनुसार द्रुत गति से चार्ज करने वाले चार्जिंग स्टेशनों पर बैटरी बीस से पच्चीस मिनट में पूरी तरह चार्ज हो सकती है। लेकिन यदि बार-बार यह फास्ट चार्जिंग की गई तो इससे बैटरी पर बुरा असर पड़ेगा और वह अपेक्षाकृत कम समय तक ही चल पाएगी। उधर, पेट्रोल या डीजल खत्म होने पर किसी भी नजदीकी पेट्रोल-डीजल स्टेशन पर, जिनकी संख्या बहुत है, मनमाफिक र्इंधन भरवाया जा सकता है। लेकिन देश में अभी इलेक्ट्रिक वाहनों के लिए चार्जिंग स्टेशनों की संख्या बहुत कम है और ऐसे में यदि बिजली से चलने वाली कार से किसी परिवार को लंबी यात्रा करनी पड़े तो उसे काफी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है।

चार्जिंग में लगने वाले समय से बचने के लिए एक उपाय यह भी हो सकता है कि ऐसे विश्वसनीय स्टेशन विकसित किए जाएं जो डिस्चार्ज बैटरी के बदले चार्ज की हुई बैटरी उपलब्ध करा सकें। हालांकि कुछ कंपिनयों ने इस दिशा में काम करना शुरू भी कर दिया है। लेकिन भारत में शहरों की दूरियां, सड़कों की हालत और लक्ष्य तक पहुंचने के लिए लोगों की आतुरता की प्रवृत्ति को देखते हुए इस दिशा में बहुत काम करना शेष प्रतीत होता है। विकसित देशों में सामान्यत: एक बैटरी एक लाख साठ हजार किलोमीटर या आठ वर्ष तक काम करती है। भारत में ये बैटरियां उपभोक्ताओं का कितना साथ निभा सकेंगी, यह आने वाला समय बिताएगा। लेकिन एक निश्चित अवधि के बाद बेकार हुई बैटरियों से निबटना भी समूची व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती होगा। प्लास्टिक कचरे से निबट रही दुनिया के सामने बेकार बैटरियों का ढेर लग जाएगा। ऐसे में आवश्यक है कि कारों के लिए बेकार हो चुकी बैटरियों को अन्य उपयोग में लाने के रास्ते सोचे जाएं। चीन और यूरोपीय संघ में तो कानून बना कर इन बैटरियों के समुचित व्यवस्थापन के लिए कार मालिकों को ही जिम्मेदार बनाया गया है और चीन में तो कुछ लोगों ने कार की बैटरियों को घरेलू उपयोग में लाने की दिशा में महत्त्वपूर्ण काम भी किए हैं।

यदि बिजली से चलने वाली कारें बड़ी संख्या में भारत की सड़कों पर आर्इं तो बिजली की निर्बाध आपूर्ति भी आवश्यक होगी और कुछ शहरों को छोड़ दिया जाए तो इस स्थिति को हासिल कर पाना बहुत दुरूह लगता है। बेशक जिन लोगों के घरों में गैरेज हैं या जो अपने घर के भीतर कार खड़ी करते हैं, वो रात भर में बैटरी सहजता से चार्ज कर सकेंगे, लेकिन जो लोग अपने घर के बाहर गली में वाहन खड़ा करते हैं या अपने घर से दूर कार खड़ी करते हैं, उनके लिए वाहन की बैटरी को नियमित रूप से चार्ज करना बड़ी परेशानी का कारण बनेगा। लेकिन तमाम परेशानियों के बावजूद डीजल और पेट्रोल के कारण होने वाले वायु प्रदूषण ने माहौल को जिस तरह दमघोंटू बना दिया है, उसे देखते हुए बिजली से चलने वाले वाहन हमारे समय की एक बड़ी जरूरत बन गए हैं। देखना है, सड़क पर बिजली से चलने वाले वाहनों की संख्या बढ़ा कर पेट्रोल-डीजल वाहनों की संख्या कम करने की सरकार की यह पहल कब और कैसा रंग दिखाती है ?


Date:18-06-19

Apathy and Denial

The deaths of manual scavengers in Gujarat must serve as a catalyst: The matter can no longer be brushed aside.

Editorial

Among the most significant steps undertaken by the Narendra Modi government in its first term was ending the culture of silence around sanitation. Unfortunately, the zeal of the Swachh Bharat Mission does not seem to have percolated to those at the bottom of the social and economic pyramid in urban India. The death of seven people — three hotel staff and four cleaners — in Dabhoi, a town in Vadodara district, Gujarat, while cleaning a septic tank, is a shameful symptom on many counts. First, it highlights how the provisions of the Prohibition of Employment as Manual Scavengers and their Rehabilitation Act, 2013 continue to be flouted. The deaths are also a reminder of the fact that official statistics, including in Gujarat, serve only to brush under the carpet the fact that manual scavenging continues.

According to the Gujarat Safai Kamdar Development Corporation, sewers are no longer cleaned manually. Yet, as recently as June 2018, four cleaners died after inhaling noxious fumes in a sewer in Vadodara. This seeming contradiction can be explained, at least partially, by the fact that private contractors, some of which are reportedly employed by municipalities across India, frequently flout the safety provisions of the 2013 Act. State governments appear to be in denial of this reality: An inter-ministerial task force set up in 2017 found in its survey across 12 states that the number of manual scavengers was under-reported by about 400 per cent. The implication is clear — most states either severely under-report, or are simply unaware, of the scale of the problem.

The path, going forward, is clear. First, municipalities and state governments across the country, following the example of Delhi and Hyderabad, must ensure that every sanitation worker is provided with equipment that ensures their safety. This must include basic materials like gloves, masks and helmets, to the sewer-cleaning machines that the Delhi Jal Board is ensuring that former manual scavengers, and the families of those who have died manual scavenging, are provided through low-interest bank loans. Second, operators in the private sector must be given both carrot and stick: Any violation of the Prohibition of Manual Scavengers Act must be dealt with severely and the use of the latest technology incentivised. Finally, the Swachh Bharat’s ambit must, on a mission mode, ensure that the apathy and denial that has surrounded the practice of manual scavenging, both in governments and the society at large, be put to an end.


Date:18-06-19

New Horizons

ISRO should invite private sector to join in building the proposed space station.

Ajay Lele, a research fellow at IDSA, Delhi, is author of “Mission Mars: India’s Quest for the Red Planet”

Last week, Indian Space Research Organisation (ISRO) head K Sivan spoke about India building its own space station by the end of the next decade. The announcement came as a surprise, but ISRO seems to have been working on this project for some time. The first indication came in 2017 when Rs 10 crore was budgeted for an orbital rendezvous and docking experiment between two satellites. Docking expertise is essential when two separate free-flying units in space are required to physically link with each other. This technique is important to link the space shuttle with the space station. The second indication was when the human space flight mission (2021/22) was announced in August 2018. This suggested that India was preparing to undertake microgravity experimentation.

India’s space station is expected to be very small with limited utility. It would be placed in an orbit, 400 km above earth. ISRO has mentioned it would start planning for the station only after the successful completion of a manned space flight, slated for 2022. ISRO has now called for proposals for experiments, including docking, to be carried out on the orbiting platform (PS4-OP). For the last few years, ISRO has been experimenting with its PSLV rocket in different ways. Now, a single PSLV rocket can put satellites in different orbits. PSLV launch vehicle is a four-stage rocket. On two occasions (PSLV-C44 and PSLV-C45 missions) in 2019, ISRO successfully converted the fourth stage (PS4) of the rocket into an orbital laboratory. Such laboratories are normally hosted on space stations.

Since the project is in the inception stage, some questions about the proposed space station should be asked.

First, is India trying to reinvent the wheel? Should India not have participated in the International Space Station (ISS) experiment? The ISS is now in the last leg of its existence and is expected to become redundant during 2024-28. India could not have been a part of the ISS in its heyday since it was excluded from such projects because of Delhi’s nuclear policy; ISRO and DRDO were taken out of the export control list only in 2011.

Second, what are the scientific benefits of microgravity experimentation? It offers the scientific community a range of subjects to conduct research in, from astronomy and meteorology to biology and medicine. Also, materials is one arena where India should make major investments. Breakthroughs in this field would have major commercial and strategic benefits.

Third, why is India planning for a very small space station? ISS, which is a joint project of 16 countries (the US, Russia, Europe, Japan, etc), is a 400-tonne station, while the proposed Chinese space station (Tiangong programme) is likely to be a 80-tonne station. India is proposing a 20-tonne station to serve as a facility where astronauts can stay for 15 to 20 days. Would it not be wise to have a project with much bigger dimensions where scientists can stay longer? There is a need for ISRO to learn from the past experiences of missions to the Moon and Mars. These missions offered limited scope for scientific experimentation since India’s heavy satellite launch vehicle, GSLV, was not ready in time, and ISRO could not send heavier scientific payloads. But with India making a breakthrough with cryogenic technology, ISRO is expected to have better options by the end of next decade to carry a heavier payload to the low earth orbit.

Fourth, is the project economically viable? Cost consideration could emerge as a major issue. So, India must involve the private sector in such projects. Recently, NASA has declared that the ISS would be open for commercial business and people could “purchase” a ticket to visit ISS. India could think of developing such projects under a public-private partnership model.

Major projects like the space station are national projects. They may not offer any immediate scientific/technological benefits, but investments must be sustained. Private industrial houses within India should be encouraged to participate in such projects.


 

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