27-11-2019 (Important News Clippings)

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27 Nov 2019
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Date:27-11-19

बहुमत परिक्षण के लिए हों निश्चित नियम

संपादकीय

संविधान दिवस पर महाराष्ट्र में राजनीतिक तमाशे का अंत, देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में सुधार की शुरुआत का अच्छा सबब बन सकता है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुपालन में, राज्यपाल ने विधानसभा के गठन के साथ प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति भी कर दी। इससे महाराष्ट्र में संविधान की जीत तो दिख रही है पर नेताओं के खेल से राजनीतिक शुचिता फिर हार गई है। संसद में संविधान की 70वीं वर्षगांठ मनाने के साथ ही देशभर में संविधान की प्रस्तावना के प्रसार के रस्मी आयोजन किए गए। आम जनता का कानून के प्रति सम्मान बढ़े, इसके लिए अब राजनेताओं को गंभीरतापूर्वक अपनी कथनी और करनी में बदलाव करना होगा। यदि अब भी डाॅ. आंबेडकर के राजनीतिक आदर्शों के साथ संवैधानिक उसूलों के सही अनुपालन का संकल्प नेताओं द्वारा नहीं लिया गया तो पूरी संसदीय व्यवस्था ही एक तमाशा बन जाएगी।

संसदीय प्रणाली को ब्रिटेन से अपनाने के साथ ही भारत में स्वस्थ संसदीय परंपराओं का विकास नहीं होना, पूरे संकट का मुख्य कारण है। महाराष्ट्र मामले में जगहंसाई से सबक लेकर मोदी सरकार यदि कानून में सुधारों के साथ नए कानून बनाने के लिए और ज्यादा ठोस पहल करे तो महाराष्ट्र के इस दाग से मुक्ति मिल सकती है। कानूनों में सुधार और बदलाव से लोकतंत्र के साथ अर्थव्यवस्था को भी शक्ति मिलेगी। महाराष्ट्र और उसके पहले अन्य राज्यों में हुए घटनाक्रम से जाहिर है कि चुनाव परिणामों के तुरंत बाद विधानसभा के गठन, प्रोटेम स्पीकर की नियुक्ति और मुख्यमंत्री के बहुमत परीक्षण की निश्चित व्यवस्था बनाने के लिए नियम बनना चाहिए। महाराष्ट्र में विधानसभा का कार्यकाल ख़त्म होने के बाद फड़नवीस को राज्यपाल द्वारा कार्यवाहक मुख्यमंत्री बनाना असंवैधानिक था। चुनाव के बाद सरकार बनाने में राज्यपाल के विशेषाधिकारों को यदि नियमबद्ध कर दिया जाए तो भविष्य में सभी को इसका फायदा मिलेगा। राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाने के लिए अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग का सिलसिला कांग्रेस के समय से ही शुरू हो गया था। अब रातोंरात सरकार बनाने के लिए राष्ट्रपति शासन खत्म करने के दुरुपयोग का एक नया अध्याय महाराष्ट्र से जुड़ गया है। अरुणाचल प्रदेश में दिसंबर 2015 में कांग्रेस के बागियों द्वारा होटल में विधानसभा की कार्यवाही की गई थी। महाराष्ट्र विकसित राज्य है, इसलिए शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन के नेताओं ने पांच सितारा होटल में ही शपथ ग्रहण कार्यक्रम कर लिए। नए प्रोटेम स्पीकर द्वारा विधानसभा में होने वाला शपथग्रहण तो सिर्फ एक संवैधानिक औपचारिकता ही है।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद तमाशे का अभी इंटरवल हुआ है और दूसरे चरण में अब अगाड़ी गठबंधन में सत्ता की मलाई के बंटवारे का असली खेल शुरू होगा। महाराष्ट्र में दोनों गठबंधनों के राजनेता आपस में इतना घुले-मिले हैं कि नई सरकार से भ्रष्टाचार और आपराधिक तत्वों के विरुद्ध ठोस कार्रवाई की अपेक्षा करना बेमानी है। भाजपा ने 2014 के चुनावों को अजित पवार के भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ा था। पांच साल की सरकार कोई भी ठोस कारवाई नहीं कर पाई और अब 80 घंटे की सरकार ने भ्रष्टाचार के मामलों को बंद करके पुलिस और न्यायिक व्यवस्था पर भी अनेक सवाल खड़े कर दिए हैं? उम्मीद है कि इस मामले पर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सख्त कार्रवाई की जाएगी।

महाराष्ट्र में विधायक मुंहजबानी तौर पर भले ही किसानों के दर्द को उभारें पर हकीकत में देश के सभी राजनेताओं का एकमेव और अंतिम लक्ष्य अब सत्ता की मलाई हासिल करना हो गया है। सत्ता के लिए विधायकों द्वारा शुरू की गई आयाराम-गयाराम संस्कृति को दलबदल विरोधी कानून से रोकने की कोशिश हुई तो उसके बाद अब एक नई रिसोर्ट और फाइव स्टार संस्कृति का विकास हो गया। चुनावों के पहले मंत्री पदों के आधार पर किए गए राजनीतिक गठबंधनों का बनना और बिगड़ना दोनों देश की सेहत के लिए अच्छा नहीं है। विधायकों के सामूहिक समर्थन पत्रों के आधार पर फड़नवीस को मुख्यमंत्री और अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने से, राजनेताओं की नई आपराधिक शैली की शुरुआत हो गई है। महाराष्ट्र में समर्थन पत्रों की गड़बड़ी से पॉवर ऑफ अटॉर्नी की नई संस्कृति, जनता के साथ विश्वासघात और संविधान के साथ फ्रॉड है। विधानसभा के भीतर विधायकों को विशेषाधिकार मिलता है, लेकिन समर्थन पत्रों का यह घोटाला विधानसभा के गठन होने के पहले हुआ है। क्या इन मामलों में नई सरकार द्वारा दोषी विधायकों और नेताओं के विरुद्ध आपराधिक कारवाई की जाएगी। सत्ता के लिए दी जा रही पॉवर ऑफ अटॉर्नी के सिस्टम को यदि जड़ से ख़त्म नहीं किया गया तो संविधान की प्रस्तावना और देश की जनता दोनों बेमानी हो जाएंगे।

महाराष्ट्र में आधी रात की कार्रवाई से राजनीतिक और संवैधानिक संकट पनपा। सर्वोच्च न्यायालय में देर रात याचिका दायर हुई और रविवार अवकाश के दिन इस पर सुनवाई हुई। सर्वोच्च न्यायलय के फैसले की सराहना के साथ यह सवाल भी हो रहा है कि आम जनता के मामलों में ऐसी त्वरित सुनवाई क्यों नहीं होती? विधायिका और सरकार को ठीक करने के साथ क्या अब न्यायपालिका को खुद की व्यवस्था को भी दुरुस्त करने की जरूरत नहीं है? संविधान दिवस के मौके पर दिए गए संबोधन में मुख्य न्यायाधीश बोबड़े ने आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के माध्यम से अदालतों की कार्यक्षमता बढ़ाने की बात कही। सर्वोच्च न्यायालय ने सितंबर 2018 में न्यायिक कार्यवाही के सीधे प्रसारण के पक्ष में फैसला दिया था। कर्नाटक की तर्ज़ पर सर्वोच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र में भी विधानसभा की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के आदेश दिए। सीधे प्रसारण के बाद मामला जनता की अदालत में आ जाता है और गलत काम करने की गुंजाइश काफी कम हो जाती है। लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभाओं की तर्ज़ पर यदि अदालतों की भी कार्यवाही का सीधा प्रसारण हो तो न्यायपालिका में भी सुधारों की रोशनी का आगाज़ होगा, जिसकी महाराष्ट्र के साथ पूरे राष्ट्र को जरूरत है।


Date:27-11-19

राजनितिक वर्ग की चालाकियां निष्प्रभावी करने वाला फैसला

संपादकीय

महाराष्ट्र में गुपचुप और फौरी तरीके से महामहिम द्वारा भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस को नए मुख्यमंत्री के रूप में दिलाई गई शपथ किसी काम की नहीं निकली। तीन दिन भी नहीं बीते कि राज्यपाल का ‘विवेक’ पूर्ण रूप से गलत साबित हुआ। जैसे ही देश की सबसे बड़ी अदालत ने खुलेआम ‘टेलीकास्ट के जरिये’ सदन के पटल पर बुधवार तक बहुमत हासिल करने के लिए कहा, भाजपा के सारे दावे ठंडे पड़ गए। लेकिन, सत्ता के खेल में हार-जीत, मान-अपमान और सही-गलत को गीता के स्थितिप्रज्ञं के भाव में लिया जाता है। भाजपा से आधी सीटें लाकर भी शिवसेना अपना मुख्यमंत्री चाहती थी, जो दबाव की राजनीति थी। यह राजनीतिक नैतिकता के सारे मानदंडों के खिलाफ भी था। नैतिकता के लिए हमारे पास दो सिद्धांत हैं। पहला गांधी का, जिसके तहत अच्छे साध्य के लिए साधन भी अच्छा होना चाहिए। दूसरा, ‘शठे शाठ्यम समाचरेत’ (दुर्जन के साथ दुर्जन जैसा ही व्यवहार)। भाजपा ने दूसरा वाला अपनाया। अजित पवार को पार्टी के जन्मदाता शरद पवार से अलग कर सोचा कि शपथ हो जाने के बाद सभी एनसीपी विधायक पद और अन्य लालच में पाला बदल देंगे। पर, शरद पवार को राजनीति का ‘दूसरा चाणक्य’ कहा जाता है। बहरहाल, दूसरे चाणक्य ने पहले चाणक्य को हरा दिया। लेकिन, चिंता राष्ट्रपति और राज्यपाल की संस्थाओं की गरिमा की है। एक ने भी यह नहीं पूछा कि देर रात राष्ट्रपति शासन हटाने की सिफारिश और वह भी बगैर कैबिनेट की अनुशंसा लिए क्यों? और दूसरे ने अपने पद की शपथ, संविधान की रक्षा और सरकारिया आयोग, नौ-सदस्यीय बोम्मई फैसले में दी गई स्पष्ट व्यवस्था के बावजूद कैसे एक व्यक्ति की चिट्ठी को बगैर किसी जांच-पड़ताल के ‘वेद-वाक्य’ मान लिया और केवल माना ही नहीं, गुपचुप ढंग से ‘नए मुख्यमंत्री और उप-मुख्यमंत्री’ को ‘संविधान में निष्ठा’ की शपथ भी दिला दी? जो भाजपा गली-चौराहे से लेकर टीवी डिबेट तक में बहुमत का दावा कर रही थी, सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के मात्र इतनी व्यवस्था देने पर कि बहुमत सिद्ध करने के लिए सदन में टीवी से प्रसारण और खुले रूप से वोटिंग होगी, सारी दावे फुस्स हो गए। क्या यही व्यवस्था संविधान की रक्षा करते हुए महामहिम नहीं कर सकते थे? लेकिन, एक बार फिर राज्यपाल संविधान के गरिमा की रक्षा अपेक्षित ढंग से नहीं कर सके।


Date:27-11-19

छोटे पड़ोसी को करीब लाने की जुगत

हर्ष वी. पंत, (लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय संबंधों के प्राध्यापक हैं)

राष्ट्रपति चुनाव में गोतबाया राजपक्षे की जीत के साथ ही श्रीलंकाई राजनीति में एक चक्र भी पूरा हो गया। वह श्रीलंका में शीर्ष पद पर पहुंचने वाले पहले सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं। हालिया चुनाव में जीत के तुरंत बाद उन्होंने अपने बड़े भाई महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री नियुक्त किया। महिंदा दो बार श्रीलंका के राष्ट्रपति रह चुके हैं। पांच साल पहले श्रीलंकाई मतदाताओं द्वारा बाहर का रास्ता दिखाने के बाद राजपक्षे परिवार एक बार फिर सत्ता के केंद्र में आ गया है। श्रीलंका पोडजुना पेरमुना यानी एसएलपीपी के नेता गोतबाया ने अपने प्रतिद्वंद्वी यूनाइटेड नेशनल पार्टी के सजित प्रेमदासा को भारी मतों के अंतर से मात दी। उनकी जीत का 10.25 प्रतिशत का अंतर इसे स्पष्ट रूप से दर्शाता है। हालांकि पूर्व राष्ट्रपति मैत्रीपाल सिरिसेना और पूर्व प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे पांच साल पहले भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के दम पर बेहतर सरकार के वादे के साथ सत्ता में आए थे, लेकिन आंतरिक मतभेद और प्रशासन के नाकाम मॉडल के चलते वे उन उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पाए, जो उन्होंने जनता में जगाई थीं। उन्होंने श्रीलंकाई जनता को निराश किया। इस तरह उन्होंने राजपक्षे युग की वापसी के लिए जमीन तैयार कर दी।

श्रीलंका के इन चुनावों में मुख्य रूप से सुरक्षा का मुद्दा केंद्र में रहा। इस साल की शुरुआत में ईस्टर के दिन आईएसआईएस द्वारा किए गए आतंकी हमलों के बाद इस द्वीपीय देश में सुरक्षा को लेकर तमाम शंकाएं पैदा हो गई थीं। उन भयावह हमलों में 260 से अधिक लोग मारे गए तो तमाम बुरी तरह से घायल हुए। गोतबाया ने लोगों की इन आशंकाओं को अपने पक्ष में खूब भुनाया। रक्षा मंत्री के रूप में उनका प्रभावी प्रदर्शन भी इसमें काम आया। उन्हें तमिल विद्रोहियों द्वारा छेड़े गए श्रीलंका के रक्तरंजित गृहयुद्ध को समाप्त करने का श्रेय जाता है। ऐसे में अधिकांश मतदाताओं विशेषकर बहुसंख्यक सिंहली तबके ने एक ऐसे वक्त में श्रीलंका की कमान उन्हें सौंपने में भरोसा जताया, जब वे खुद को काफी नाजुक स्थिति में देख रहे हैं। वैसे यही छवि गोतबाया के लिए सबसे बड़ी चुनौती भी होगी। उन्हें अल्पसंख्यकों का समर्थन नहीं मिला। ऐसे में यदि उन्हें राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल को सफल बनाना है तो ध्रुवीकरण की इस खाई को पाटना होगा। इस बीच अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संपर्कों को लेकर भी वह सहज नहीं होंगे। ऐसा इसलिए, क्योंकि एलटीटीई का दमन करने के दौरान वह मानवाधिकारवादियों के निशाने पर रहे। संयुक्त राष्ट्र ने श्रीलंकाई सुरक्षा बलों पर आरोप लगाया कि गृहयुद्ध के अंतिम चरण में उन्होंने 40,000 से अधिक लोगों को मौत के घाट उतारा। यही वजह है कि उनके लिए चीन और भारत जैसी क्षेत्रीय शक्तियां कहीं ज्यादा अहम हैं।

यह अच्छा है कि श्रीलंका के नए राष्ट्रपति से संपर्क साधने में भारत ने काफी तत्परता दिखाई। विदेश मंत्री एस. जयशंकर गोतबाया से मुलाकात करने वाले पहले विदेशी उच्चाधिकारी रहे। जयशंकर प्रधानमंत्री द्वारा दिए गए शुभकामना पत्र के साथ ही नवनिर्वाचित राष्ट्रपति को भारत दौरे का निमंत्रण भी दे आए। उन्होंने यह आमंत्रण भी स्वीकार कर लिया है। वह इसी हफ्ते बतौर राष्ट्रपति अपने पहले विदेशी दौरे के रूप में भारत आएंगे। इससे पहले चुनाव जीतने के बाद उन्होंने एलान किया था कि वह नहीं चाहते कि उनका देश किसी भी तरह के क्षेत्रीय शक्ति संघर्ष में शामिल हो। इसे उनके चीन के साथ कथित झुकाव का जवाब माना गया।

गोतबाया के साथ सक्रियता बढ़ाने में भारत की तत्परता समझी जा सकती है। इसका संबंध चीन के पक्ष में राजपक्षे के झुकाव को लेकर है। असल में भारत द्वारा अपनी असहजता स्पष्ट करने के बावजूद रक्षा मंत्री के रूप में गोतबाया ने चीनी युद्धपोतों को कोलंबो बंदरगाह पर लंगर डालने की अनुमति प्रदान की थी। इसके बाद महिंदा राजपक्षे ने भी वर्ष 2014 के चुनाव में अपनी हार का ठीकरा भारतीय खुफिया एजेंजियों के सिर फोड़ा था। हालांकि सिरिसेना सरकार श्रीलंकाई विदेश नीति में चीन के असंतुलन को संतुलित करने के वादे के साथ सत्ता में आई थी, लेकिन इस मोर्चे पर वह कुछ खास नहीं कर पाई। उनकी सरकार में ही चीन अपने कर्ज के एवज में श्रीलंकाई बंदरगाह हंबनटोटा पर काबिज होने में कामयाब रहा। चूंकि चीन ने हिंद महासागर को लेकर आक्रामक रणनीति बनाई है तो उसे अमली जामा पहनाने के लिए बीजिंग बीते पांच वर्षों में श्रीलंका में अपनी पैठ बढ़ाता गया। इस साल की शुरुआत में चीन ने श्रीलंका को एक युद्धपोत भी दिया।

चीन ने श्रीलंका में 11 अरब डॉलर के भारीभरकम निवेश की योजना बनाई है। इसमें आठ अरब डॉलर उसे कर्ज के रूप में मिलेंगे। श्रीलंका चीन की महत्वाकांक्षी बेल्ट एंड रोट इनिशिएटिव परियोजना के साथ भी जुड़ा है। चीन श्रीलंका में बुनियादी ढांचा विकास की तमाम परियोजनाओं को सिरे चढ़ा रहा है। इनमें ऑयल रिफाइनरी से लेकर कोलंबो इंटरनेशनल फाइनेंशियल सेंटर, कैंडी को कोलंबो से जोड़ने वाला सेंट्रल हाईवे और कोलंबो बंदरगाह के आगे 1.4 अरब डॉलर की लागत से एक पोर्ट सिटी विकसित करने जैसी तमाम योजनाएं शामिल हैं। चीन के कर्ज जाल में फंसने के खौफ के बावजूद यह सब हो रहा है। इसी कारण श्रीलंका को हंबनटोटा बंदरगाह की लीज 99 वर्षों के लिए चीन को देने पर मजबूर होना पड़ा। ऐसे में हैरानी नहीं कि अपने चुनाव अभियान में गोतबाया ने हंबनटोटा बंदरगाह की लीज की शर्तों पर नए सिरे से विचार करने का वादा किया। साथ ही यह मंशा भी जताई थी कि वह एशियाई ताकतों से समान दूरी बनाए रखेंगे।

नई दिल्ली में गोतबाया के चीन की ओर कथित झुकाव को लेकर चल रही बहस एक तरह से व्यर्थ ही है। गोतबाया चीन के पक्ष में उतने ही झुके होंगे, जितना सिरिसेना के बारे में माना जा रहा था कि उनका झुकाव भारत की ओर होगा। हमें श्रीलंकाई नेतृत्व को लेकर ऐसा कोई पूर्वग्र्रह नहीं रखना चाहिए। क्षेत्रीय शक्ति संतुलन की रपटीली राह पर टिके रहने के लिए छोटे देशों को व्यावहारिक रुख अपनाना होगा। अपने पड़ोस में चीन की बढ़ती धमक को लेकर रक्षात्मक होने के बजाय भारत को अपनी ताकत के दम पर दांव लगाना चाहिए। आर्थिक मोर्चे पर चीन की बराबरी करना नई दिल्ली के लिए हाल-फिलहाल संभव नहीं। इसके बजाय भारत को अपनी सांस्कृतिक कड़ियों का लाभ उठाकर श्रीलंका को साधना चाहिए। इसमें वह श्रीलंकाई नेतृत्व को आश्वस्त कर सकता है कि आर्थिक सक्रियता ठोस नतीजे देती है।

यदि अपने हितों के लिए भारत को श्रीलंका के साथ की जितनी आवश्यकता है तो वह भी भारत के साथ व्यापक सक्रियता के बिना हिंद महासागर क्षेत्र की बड़ी ताकत नहीं बन सकता। यही हकीकत हमेशा भारत-श्रीलंका संबंधों को दिशा देती रहेगी। इसमें इस तथ्य से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं कि दोनों देशों में सत्ता किसके हाथ में है।


Date:27-11-19

चीन का दमन

संपादकीय

आर्थिक, कारोबारी और कई अन्य मामलों में उसकी राजनयिक सफलताएं बहुत बड़ी हैं। जो वर्तमान में कामयाब है, उसे हम आधुनिक कहते हैं, इसी परिभाषा के हिसाब से दुनिया ने चीन को एक आधुनिक देश का दर्जा भी दे दिया है। लेकिन कामयाबी के इस आवरण के पीछे चीन के पास जो शासन-व्यवस्था है और देश व समाज को चलाने की जो सोच है, उसे देखें, तो कहीं नहीं लगता कि चीन एक आधुनिक देश है। इस मामले में वह अभी भी 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध की उस सोच का ही एक विस्तार है, जो यह मानती है कि सब कुछ नियंत्रित करके ही व्यवस्था को सुचारु तौर पर चलाया जा सकता है। यह सर्वसत्तावादी सोच शासन तंत्र ही नहीं, लोगों की सोच को भी नियंत्रित और निर्देशित करने में विश्वास रखती है।

‘चाइना केबल’ नाम से चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के जो अंदरूनी दस्तावेज लीक हुए हैं, वे इस कहानी को बहुत अच्छी तरह से बयां करते हैं। खासकर चीन के शिनजियांग प्रांत के बारे में जो जानकारी सामने आई है, वह परेशान करने वाली है। यह चीन का वह इलाका है, जहां उइगर जनजाति के लोग रहते हैं। इनमें ज्यादातर लोग परंपरागत तौर पर मुस्लिम धर्म को मानने वाले हैं, लेकिन वे सब धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक आजादी और अधिकारों से बहुत दूर हैं। चीन के बडे़ और मुख्य भूभाग में हान भाषाभाषी लोगों का वर्चस्व है। चीन की कोशिश देश के सभी कोने में इसी हान संस्कृति को जबरन लागू करने की रहती है। यही उसने तिब्बत में किया है और यही वह शिनजियांग में कर रहा है। तिब्बत में दमन करने के बाद अब उसने यही सिलसिला उइगर समुदाय पर बढ़ाया है। पता चला है कि वहां एक विशाल परिसर में लाखों उइगर लोगों को कैद करके रखा गया है। मकसद है, इन लोगों को सोच के स्तर पर सुधारना। इस जगह को नाम दिया गया है- पेशेवर कौशल प्रशिक्षण संस्थान। वहां से बाहर आए लोगों के अनुसार, लोगों की सोच बदलने के लिए तमाम अमानवीय तरीके आजमाए जाते हैं।

वैसे ऐसी खबरों में कुछ नया नहीं है। कुछ दशक पहले तक ऐसी खबरें सोवियत संघ और चीन जैसे तमाम साम्यवादी देशों से आती थीं। तब ऐसी खबरों पर इन देशों कि प्रतिक्रिया होती थी कि ये पूंजीवादी दुष्प्रचार है। लेकिन चीन अब इस शब्दावली का इस्तेमाल करने की स्थिति में भी नहीं है। जिन्हें तब पूंजीवादी ताकतें कहा जाता था, वे इस समय चीन की तरक्की का मुख्य आधार बनी हुई हैं। इसलिए चीन ने अपनी प्रतिक्रिया में नए दौर की शब्दावली का इस्तेमाल किया है। उसने इन खबरों को फेक-न्यूज बताया है। पर, जैसे पहले वाली प्रतिक्रिया नहीं हजम होती थी, वैसे ही यह प्रतिक्रिया भी हजम होने वाली नहीं है।

इन स्थितियों के बीच एक उम्मीद बंधाने वाली खबर भी है। हांगकांग में हुए जिला परिषद चुनावों में लोकतंत्र समर्थकों को भारी जीत मिली है। ऐसे समय में, जब हम शिनजियांग को लेकर परेशान हैं, उस हांगकांग की जनता ने अपना फैसला सुना दिया है, जहां चीन अपने सर्वसत्तावादी तंत्र को विस्तार देने की ताक में है। दुनिया हालांकि चीन में होने वाले दमन का तरह-तरह से विरोध कर रही है, लेकिन इसके खात्मे का रास्ता अंत में वहां की जनता के प्रयासों से ही निकलेगा। जैसे सोवियत संघ या पूर्वी जर्मनी वगैरह में निकला।


Date:26-11-19

कितना कुछ बदला है

जावेद अनीस

यह अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते का तीसवां वर्ष है। 20 नवम्बर, 1989 को संयुक्त राष्ट्र की आम सभा ने ‘‘बाल अधिकार समझौता’ पारित किया था। यह संधि ऐसा पहला अंतरराष्ट्रीय समझौता है जो सभी बच्चों के नागरिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अधिकारों को मान्यता देता है। इस समझौते को विश्व के 193 राष्ट्रों ने हस्ताक्षर करते हुए अपने देश में सभी बच्चों को जाति, धर्म, रंग, लिंग, भाषा, संपति, योग्यता आदि के आधार पर बिना किसी भेदभाव के संरक्षण देने का वचन दिया है। केवल दो राष्ट्रों अमेरिका और सोमालिया ने अब तक इस पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। बाल अधिकार समझौते पर भारत ने 1992 में हस्ताक्षर कर अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की। बच्चों के ये अधिकार चार मूल सिद्धांतों पर आधारित हैं-जीने का अधिकार, सुरक्षा का अधिकार, विकास तथा सहभागिता का अधिकार। अंतरराष्ट्रीय बाल अधिकार समझौते के 30 साल का सफर उतार-चढ़ाव भरा रहा है, हालांकि यह दुनिया के पैमाने के सर्वाधिक सर्वस्वीकृत मानवाधिकार समझौता है। लेकिन इस करार को तकरीबन हर देश से मंजूरी मिल जाने के बावजूद नियंतण्र स्तर पर अभी भी बच्चों की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। अभी भी हम ऐसी दुनिया नहीं बना पाए हैं, जो बच्चों के हित में और उनके लिए सुरक्षित हो। संयुक्त राष्ट्र बाल कोष (यूनिसेफ) की रिपोर्ट में चेताया गया है कि वर्ष 2017 से 2030 के बीच दुनिया के पैमाने पर पांच साल से कम उम्र के 6 करोड़ से ज्यादा बच्चों की मौत ऐसी वजहों से हो सकती हैं, जिन्हें टाला जा सकता है। आज मानव तस्करी के पीड़ितों में करीब एक तिहाई बच्चे हैं। युद्ध और सशस्त्र संघर्षो से भी सबसे ज्यादा प्रभावित बच्चे ही हैं। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि 2018 में सशस्त्र संघर्षो के दौरान दुनिया भर में करीब 12 हजार बच्चे या तो मारे गए हैं, या अपंगता के शिकार हुए। दुनिया भर में बच्चे पुराने खतरों से तो जूझ ही रहे हैं, उन्हें नये खतरों का सामना भी करना पड़ रहा है। स्वास्य, पोषण, शिक्षा और सुरक्षा जैसी परंपरागत चुनौतियों के साथ जलवायु परिवर्तन, साइबर अपराध जैसी नई समस्याओं से जूझना पड़ रहा है। भारत के संदर्भ में बात करें तो समाज और सरकारों का बच्चों के प्रति नजरिया उदासीन बना हुआ है। हालांकि हमारे देश में सरकार की तरफ से तो फिर भी बच्चों के पक्ष में सकारात्मक पहल की गई हैं, लेकिन एक समाज के रूप में हम अभी भी बच्चों और उनके अधिकारों को लेकर गैर-जिम्मेदार और असंवेदनशील बने हुए हैं। एक राष्ट्र और समाज के रूप में हम अपने बच्चों को हिंसा, भेदभाव, उपेक्षा, शोषण और तिरस्कार से निजात दिलाने में विफल रहे हैं। शिक्षा की बात करें तो संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार जहां 1994 में भारत की कुल जीडीपी का 4.34 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाता था, वहीं 2010 में घट कर 3.35 प्रतिशत रह गया है। जिंदा रहने के हक की बात करें तो ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट 2018 के अनुसार विश्व के कुल अविकसित बच्चों का एक तिहाई हिस्सा हमारे देश भारत में है। बच्चों की सुरक्षा की स्थिति को देखें तो देश में बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों में तेजी से बढ़ोतरी हो रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक पिछले एक दशक (2007 से 2017) के दौरान बच्चों के खिलाफ अपराध के मामलों में जबरदस्त तेजी देखने को मिली है, और यह आंकड़ा 1.8 से बढ़कर 28.9 फीसद तक जा पहुंचा गया है, जो कि हमारे देश में बच्चों के असुरक्षा के भयावह स्थिति को दर्शाता है। इसी प्रकार से बाल लिंगानुपात की बात करें तो देश में 0-6 वर्ष आयु समूह के बाल लिंगानुपात में 1961 से लगातार गिरावट जारी है। वर्ष 2001 की जनगणना में जहां छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी, वहीं 2011 की जनगणना में यह अनुपात कम हो कर 914 हो गया। हालांकि यूएनसीआरसी स्वीकार करने के बाद भारत ने कई नये कानून, नीतियां और योजनाएबनाई हैं। लेकिन भारत को अभी भी बाल अधिकार संधि के तहत किए गए वादे पूरा करने के लिए लंबा सफर तय करना है। बच्चों को अधिकार देने के लिए और अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण एवं माहौल बनाने की जरूरत है। संयुक्त राष्ट्र संघ बाल के 30 साल पूरे होने पर आज एक नियंतण्र बिरादरी के तौर पर हमें इस संधि में किए गए वादों को नये संकल्पों के साथ अपनाने की जरूरत है, जिसमें जलवायु परिवर्तन, साइबर अपराध, बढ़ती असमानता और असहिसुष्णता जैसी नई चुनौतियों से निपटने के उपाय भी शामिल हों।


Date:26-11-19

Hong Kong’s protest vote

Polls to the district councils allowed protesters to seek a vote for democratic change

Editorial

The Hong Kong administration led by Carrie Lam suffered a stinging setback on Sunday when voters rejected outright establishment candidates in elections to the city’s 18 district councils. Ms. Lam herself had indicated that the vote would be a proxy referendum on the way she handled months-long street protests, saying that a silent majority backed her administration. The protesters asked voters to express their support for the agitation through the vote to the district councils, the only authority in the city being selected by full universal suffrage. They seem to have listened to the protesters. A record 2.94 million voters turned up, representing 71.2% of the total registered electorate, up from 47% in the 2015 election. The initial results suggest that pro-democracy parties captured 17 of the 18 councils from the establishment parties. In the 452-member district council, pro-democracy parties have won 392 seats, while the strength of the establishment parties, which controlled 292 seats before the polls, was reduced to a historic low — 60 seats. Hong Kong’s city council elections are otherwise a sleepy affair. The councils have limited powers, mainly pertaining to local issues such as waste collection and maintaining public spaces. What drew international attention to this year’s election was the violent street protests. And with their overwhelming mandate to the pro-democracy parties, Hong Kong voters have made it clear where they stand on the issue.

Protests broke out almost six months ago when the city government pushed a legislation that would have allowed the extradition of Hong Kongers to mainland China. Both the government and the protesters have committed a series of mistakes ever since. The government initially refused to withdraw the extradition Bill despite mounting public anger. When the protests snowballed, the administration backed off on the Bill, but it was too little and too late. The protesters now demand Ms. Lam’s resignation, an investigation into the way the police handled the protests, more democracy and electoral reforms. The city government rejected these demands as “wishful thinking” and adopted an increasingly aggressive approach to quell the agitation, which led to pitched battles between the protesters and the police. Both sides used force (the protesters shut down the city’s main airport briefly, occupied a university and used Molotov cocktails and bricks to attack the security personnel, while the police fired hundreds of rounds of rubber bullets and tear gas shells to control the crowd) and the prolonged demonstrations have disrupted city life and pushed its once-thriving economy into recession. The crisis has entered into a stalemate. The question is whether the election results would sway the government to take a more conciliatory approach to resolve the problem. Ms. Lam has said that she would respect the mandate. One way of doing that is offering to talk to the protesters, seeking common ground to end violence and restore order in the city.


Date:26-11-19

The missing piece

New labour code was long overdue. Failure to push labour reform could further hurt India’s economic growth.

Editorial

Last week, the Union cabinet approved the Labour Code on Industrial Relations, 2019, which will allow companies to hire workers on fixed-term contracts across all sectors, to provide more flexibility to industry while ensuring equitable treatment to workers on social security benefits. This Code, which will have to be approved by Parliament, marks the merging of provisions of the Industrial Relations Act, the Trade Union Act and the Industrial Employment Act, the third of a set of four codes the government has proposed as part of a broader labour reforms push early on in its second term. Underway is the amalgamation of 44 national labour laws into four codes on wages, industrial relations, social security and welfare and occupational safety besides health and working conditions, to ease the burden on industry, and to protect the rights of workers.

The latest changes to labour laws follow a half-way house approach, with the threshold for government approval for sacking workers kept unchanged at 100, though there is flexibility for changing it through a notification. Getting these labour codes approved in the near term and persuading states, too, to come on board on a subject which is on the concurrent list, will be the next challenge. If there is scepticism on this count, it is because of the fact that, apart from Rajasthan, few, including large BJP-ruled states with a major industrial base such as Maharashtra, have warmed up to these labour reforms. Political economy considerations have meant that more than a quarter century after India’s opening up, the missing piece has been labour reforms. That has had an impact on India’s manufacturing sector — in terms of discouraging firms from making the next leap on productivity and in creating more jobs. This year’s Economic Survey made the point that units in states that have made the transition towards more flexible labour markets were 25.4 per cent more productive than their counterparts in states which had rigid labour laws.

There is indeed a strong case for greater flexibility on these laws to generate more jobs in an economy where 10 million young people enter the labour market annually and for easing the compliance burden for Indian industry. Even more so considering that Vietnam, Indonesia and Bangladesh are far more competitive in labour intensive sectors, positioning their economies to take better advantage of the scenario unfolding in China because of a tariff war and with foreign companies moving out. The Indonesian President, Joko Widodo, has already promised that major changes to labour laws will be on top of his agenda as he seeks to improve the quality of the country’s labour force. Given this competitive drive in the region to attract investment, any delay or failure to push through the proposed changes by a government which has the comfort of far more numbers this time could further hurt economic growth.


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