12-05-2021 (Important News Clippings)

Afeias
12 May 2021
A+ A-

To Download Click Here.


Date:12-05-21

‘Courts are meant to scrutinise … they should ensure compliance with legislative mandates and thereby protect citizens’

Dhananjay Mahapatra, [ Legally Thinking, Edit Page, India, politics, Q&A, TOI ]

When a crisis hits a nation, all three organs of government – legislature, executive and judiciary – are supposed to rise to the occasion to provide succour to distressed citizens. Senior Advocate and Congress leader Kapil Sibal discusses their performance during the pandemic with Dhananjay Mahapatra:

In the Covid crisis, how have the legislature, executive and judiciary responded?

It is the executive that failed us. There was no effective national plan to deal with the pandemic. The National Disaster Management Authority headed by the PM under the Disaster Management Act, 2005, seemed to have abandoned our distressed citizens during the first phase of the pandemic. No authority, neither the executive nor the Supreme Court, monitored the minimum requirements to be provided in the relief camps in relation to shelter, food, drinking water, medical cover and sanitation. The court showed no urgency to make sure that the state honoured its primary responsibility towards its citizens. And the legislature is no longer an institution that is allowed to debate and discuss, nor are parliamentary committees effective forums which require bipartisan inputs for dealing with matters of national concern. Brute majority has taken over its deliberations.

The second phase has exposed the government’s complete lack of foresight in the way they have been caught napping. SC is now trying to streamline processes to protect people. Kudos to it for its present efforts. My concern is that despite its best efforts people will continue to suffer. Ramping up capacities to manufacture vaccines cannot happen overnight. When available, to vaccinate a billion people is no easy task. Even if access to oxygen is streamlined, availability of beds, ICUs in hospitals, especially in rural India, and a shortfall of health workers will present a real challenge.

SC was seized of the crisis last year through many PILs. As the highest court of the country, was it successful in protecting the rights of distressed people and industry?

I am deeply disappointed with SC in displaying confidence in government assurances during the first phase of the pandemic. Courts are meant to scrutinise, to ensure compliance with legislative mandates, and protect citizens. The court failed to do this in the first phase. During the second phase the court is now alive to the reality of the executive’s incompetence and lack of foresight. In situations like a national calamity a ‘continuing mandamus’ approach is a necessity. I congratulate the court for showing sensitivity to the heart-rending scenes that we are all witnessing.

You had represented many of these PILs – from seeking to ameliorate migrant workers’ plight to giving incentives to industries for revival. Was the SC receptive to these ideas?

Sadly not. The court was oblivious to the plight of migrants and the conditions in which they were managing to survive. It spent most of its energy in allowing for and monitoring transportation of stranded migrants. As far as the sectors of the economy beleaguered by the pandemic, the court again acted on the advice of the Kamath Committee and the decisions of RBI. Not that the court can make economic policy prescriptions. But they can scrutinise RBI’s own reports and seek answers. But they chose not to do that. The migrants lost and many MSMEs will not survive. Besides, availability of credit provided little help to sectors of the economy which found it difficult to survive.

What was the approach of the government to problems pointed out by the PILs in SC?

The government was in denial. Had the Supreme Court not taken up the matter suo motu they would have continued to be in denial. Government continues to say there is no shortage of oxygen even today. Even today government has made no effort to declare vaccines as an essential commodity to control their pricing. An ordinance should be promulgated to prevent hoarding and black marketing of oxygen cylinders and other items.

What should be the role of SC in such a crisis?

Continuing mandamus is the only answer. Besides this, fixing of accountability. There should be a Commission of Enquiry fixing accountability of individuals and institutions. Today the court is doing a commendable job.

This year SC has actively taken over monitoring of national issues while giving freedom to HCs to deal with state-level issues arising due to Covid pandemic.

I have already indicated the two different approaches of SC. One proactive, the other receptive to government assertions, reticent and relatively inactive. The constitution of the benches makes all the difference.

What is the way forward for SC?

The institution seems to be losing the confidence of the people. That is the common refrain. It is by their actions alone that the lost confidence can be restored.


Date:12-05-21

आपदा में अमानवीयता

संपादकीय

मानवीय तकाजा है कि आपदा के वक्त लोग एक-दूसरे का सहयोग करें, उन्हें जरूरी सुविधाएं और जीवन रक्षक सामग्री उपलब्ध कराएं, मगर कोरोना की इस दूसरी लहर में बड़े पैमाने पर ऐसी अमानवीय घटनाएं सामने आ रही हैं, जिन्हें देख-सुन कर दिल दहल जाता है। इस वक्त जब देश भर के अस्पताल ऑक्सीजन और इस संक्रमण के इलाज में काम आने वाली जरूरी दवाओं की कमी से जूझ रहे हैं, तब कई जगहों से कुछ दवा विक्रेताओं, वितरकों और सक्षम लोगों द्वारा इनकी जमाखोरी और कालाबाजारी की खबरें भी मिल रही हैं। रोगियों और शवों को ढोने वाले वाहन चालक मनमानी पैसा वसूलते देखे जा रहे हैं, तो अस्पतालों में बिस्तर दिलाने, ऑक्सीजन सिलेंडर और इस संक्रमण के लिए जरूरी मानी जा रही दवा रेमडेसिविर आदि उपलब्ध कराने के नाम पर हजारों रुपए ऐंठने वाले गिरोह भी बड़ी संख्या में सक्रिय हो गए हैं। इस समस्या को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका भी दायर की गई। अब केंद्र सरकार ने अदालत को आश्वस्त किया है कि सभी राज्य सरकारों से ऑक्सीजन सिलेंडर, दवाओं और दूसरी आवश्यक सामग्री की जमाखोरी और कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ सख्ती बरतने का अनुरोध किया गया है। अब तक इस मामले में एक सौ सत्तावन लोगों के खिलाफ कार्रवाई भी की गई है

विचित्र है कि जिन मामलों में लोगों को खुद नागरिक बोध और मानवीय संवेदना से संचालित होकर सहयोग के लिए आगे आना चाहिए, उनमें भी अदालतों और सरकारों को कड़ाई से पेश आना पड़ रहा है। हालांकि ऐसे वक्त में बहुत सारे लोग अपनी क्षमता के मुताबिक रोगियों की मदद के लिए तरह-तरह से सहयोग करते हुए मिसाल पेश कर रहे हैं। चाहे वह मुफ्त आक्सीजन पहुंचाना हो, लोगों को अस्पताल पहुंचाना हो, उन्हें भोजन, दवा आदि उपलब्ध कराना हो, हर तरह की मदद पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। कई लोग अपनी जमा पूंजी इसके लिए खर्च कर रहे हैं, तो कुछ अपने जेवर तक बेच कर लोगों की मदद को तैयार दिख रहे हैं। ऐसे लोगों से भी कालाबाजारी करने वाले कोई प्रेरणा नहीं ले पा रहे, तो इसे क्या कहेंगे। दरअसल, यह प्रवृत्ति भारत में नई नहीं है। आपदा के ऐसे अनेक दिनों में अमानवीय ढंग से सिर्फ अपने लाभ की चिंता करने वालों को सक्रिय देखा जाता रहा है। उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं होती कि उनकी इस प्रवृत्ति से लोगों की जान पर बन आती है।

कितना विचित्र है कि इस वक्त में कई ऐसे बड़े दुकानदार पकड़े गए हैं, जिन्हें न तो पैसे की कोई कमी है और न उनके कारोबार में मंदी है। फिर भी जरूरी दवाओं और ऑक्सीजन सांद्रक जैसे उपकरणों की जमाखोरी और उन्हें ऊंची कीमत पर बेच कर वे कमाई करने की अपनी भूख शांत करने में जुटे हैं। अब हालांकि दूसरे देशों से भारी मात्रा में चिकित्सीय सामग्री उपलब्ध कराई जा रही है, केंद्र और राज्य सरकारें भी अपनी पहल पर जरूरी सामग्री की किल्लत को दूर करने में कामयाब होती देखी जा रही हैं, जल्दी ही इस समस्या पर काबू पाने की उम्मीद जगी है। मगर इस आपदा में जो लोग दूसरों की जान की कीमत पर अपनी तिजोरी भरने में जुटे हैं, उन्हें मानवीय मूल्यों का पाठ पढ़ाने के बजाय कानून से ही सबक सिखाया जा सकता है। राज्य सरकारों को ऐसे लोगों के खिलाफ किसी भी प्रकार की रियायत नहीं बरतनी चाहिए। तभी दूर-दराज के इलाकों में फैल रही इस महामारी को रोकने में भी मदद मिल सकती है।”


Date:12-05-21

आग की लपटों से निकलते सवाल

अरविंद मिश्रा

कोरोना काल हो या सामान्य वक्त, अस्पताल हमारी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गए हैं। पिछले एक साल से कोरोना जनित आपदा ने अस्पतालों और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे के प्रति हमारे नजरिए को मथने का काम किया है। एक ओर जहां कोरोना के इस अदृश्य ज्वालामुखी ने चिकित्सा की सार्वजनिक व्यवस्था को हतोत्साहित करने वाली नीतियों से लेकर लेकर निजी अस्पतालों की मनमानी को उजागर किया है, वहीं स्वास्थ्य क्षेत्र को नई संजीवनी देने के प्रयासों को भी बल दिया है। निस्संदेह कोरोना की इस लड़ाई में अस्पतालों की भूमिका अग्रणी है। संक्रमितों की बढ़ती संख्या की वजह से अस्पताल अपनी क्षमता से कई गुना अधिक काम कर रहे हैं। जब संक्रमण का दायरा प्रतिदिन चार लाख की संख्या को पार कर रहा है, ऐसे समय में अस्पतालों, कोविड देखभाल केंद्रों और एकांतवास केंद्रों में आगजनी बढ़ती घटनाएं नई चुनौती खड़ी कर रही हैं। पिछले कई वर्षों के मुकाबले इस साल अस्पतालों में आगजनी की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। हालात की गंभीरता को देखते हुए केंद्रीय गृह मंत्रालय को राज्य सरकारों को निर्देश देना पड़ा है कि कोविड अस्पतालों में आग की घटनाएं रोकने के लिए पर्याप्त इंतजाम किए जाएं। साथ ही यह भी कि बढ़ती गर्मी को देखते हुए अस्पतालों में आग लगने की घटनाओं से निबटने के लिए पूर्व तैयारी रखी जाए।

अस्पतालों में आग की घटनाओं की भयावहता का अंदाजा विगत कुछ महीनों के भीतर हुई दर्दनाक घटनाओं से लग जाता है। अगस्त 2020 से अब तक देश के अलग-अलग हिस्सों से अस्पतालों में आगजनी की दो दर्जन से अधिक बड़ी घटनाएं सामने आ चुकी हैं। कुछ समय पहले गुजरात के भरूच शहर में कोविड अस्पताल में आग लगने से अठारह लोगों की मौत हो गई थी। सूरत में पिछले महीने आयुष अस्पताल के आइसीयू वार्ड में आग लगने से चार कोविड मरीज मर गए। पिछले महीने ही मुंबई के एक अस्पताल में आग से पंद्रह लोगों को जान गंवानी पड़ी। साल के शुरुआत में ही सूबे के भंडारा जिले में सरकारी अस्पताल में आग लगने से दस नवजात शिशुओं के मौत की विचलित करने वाली तस्वीरें सामने आर्इं। पिछले महीने महाराष्ट्र के ही ठाणे और नागपुर में ऐसे ही हादसे हुए और कोविड मरीज मारे गए। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में निजी अस्पताल में आग पांच कोरोना संक्रमित मरीजों को लील गई। यह फेहरिस्त यहीं खत्म नहीं हो जाती। चिकित्सा केंद्रों में गंभीर हादसों का रूप लेती आग के कई अहम कारक हैं। इनमें मानवीय लापरवाही और अस्पताल के ढांचे को विकसित करते समय अग्नि सुरक्षा उपायों की अनदेखी सबसे प्रमुख हैं। इन कारकों को हम तात्कालिक और दीर्घकालिक रूप में पाते हैं।

इस दो राय नहीं कि कोरोना के बढ़ते मामलों के बीच कोविड अस्पतालों पर क्षमता से कई गुना बोझ बढ़ा है। विशेषज्ञों के मुताबिक दूसरी लहर के साथ कई अस्पताल बिस्तर, चिकित्सा उपकरण और कुछ हद तक कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने में सफल रहे हैं। लेकिन समानांतर रूप से आग से होने वाले हादसों से बचाव के लिए इंतजाम दुरुस्त करने को कहीं प्राथमिकता नहीं दी गई। ज्यादातर अस्पतालों में बिजली का भार अचानक बढ़ जाने से आपूर्ति व्यवस्था अचानक ध्वस्त हो रही है। अस्पतालों में केंद्रीकृत वातानुकूलन संयंत्र, ऑक्सीजन संयंत्र सहित दूसरे कामों में बड़े पैमाने पर बिजली की खपत बढ़ गई है। ऐसे में तारों पर भार बढ़ता है, वे ज्यादा गरम हो जाते हैं और इसी से चिंगारी पैदा होती है। यही आग लगने की बड़ा कारण बनती है। कई स्थानों पर विद्युत के अति संवेदनशील सुचालक मेडिकल उपकरणों के संचालन में गैर प्रशिक्षित अमले को लगा दिया जाता है। कई बार यह छोटी-सी लापरवाही भी बड़े हादसे को न्योता देने के लिए पर्याप्त होती है। आगजनी की घटनाओं को तकनीकी गड़बड़ी जैसे तारों में चिंगारी आदि करार देकर असल वजहों से मुंह मोड़ लेने की प्रवृत्ति से समस्या जस की तस बनी रहती है।

इस विपत्ति काल में मेडिकल ऑक्सीजन की मांग तेजी से बढ़ी है। इसके उपयोग और परिवहन से जुड़ी सावधानियां बहुत जरूरी हैं। ऑक्सीजन अत्यतं जव्लनशील गैस होती है और एक चिंगारी भी बड़ा विस्फोट कर सकती है। विशेषरूप से गैर सरकारी संगठनों द्वारा बनाए जा रहे कोविड केंद्रों में जहां ऑक्सीजन सिलेंडर उपयोग में लाए जा रहे हैं, वहां आग से निपटने के पुख्ता उपायों पर बल देना होगा। पिछले एक महीने के भीतर देश के कई हिस्सों में कोविड अस्पतालों में हुई आगजनी की घटनाएं सावधानी बरतने का संकेत कर रही हैं। तात्कालिक उपायों के रूप में अस्पतालों को बिना समय गंवाए आग बुझाने के लिए पर्याप्त अग्निशमन यंत्रों जैसे फायर वॉल, ऑक्सीजन एक्सटिंग्विशर, स्प्रिंकलर, फायर हाइड्रेंट, हौजरील, फायल अलार्म, दमकल, जल की उपलब्धता व आपूर्ति की व्यवस्था को समय रहते दुरुस्त करना चाहिए। स्थानीय प्रशासन का यह दायित्व बनता है कि संकट की इस घड़ी में अस्पतालों में अग्निशमन, जल की उपलब्धता और आपदा प्रबंधक कार्यबल की तैनाती जैसी बुनियादी जरुरतों का इंतजाम करे। आग की घटनाओं से बचाने के लिए अग्निशमन दस्ते द्वारा समय-समय पर मॉकड्रिल के जरिए लोगों में जागरूकता के प्रयास किए जाते हैं। बेहतर होगा कि मॉकड्रिल कार्यक्रमों में अस्पतालों के आसपास रहने वाले लोगों को अनिवार्य रूप से सम्मिलित किया जाए। आपदा प्रबंधन का कोई भी कार्य जनसहभागिता के बिना अधूरा ही माना जाता है।

ऐसा नहीं है कि हमारे यहां नियम और मानकों का अभाव है। भारतीय मानक ब्यूरो ने तो बाकायदा भवन निर्माण संहिता तैयार बना रखी है। हालांकि अनिवार्य न होने के कारण इन मानकों को लागू करना या न करना राज्यों की इच्छा पर निर्भर करता है। दो साल पहले यह मुद्दा लोकसभा में उठ भी चुका है। तब राष्ट्रीय भवन निर्माण संहिता को अनिवार्य बनाने की मांग की गई थी। 1970 में तैयार राष्ट्रीय भवन संहिता में 1983, 1987, 2005 में संशोधन कर उसे प्रभावी बनाया गया। फिर 2016 में इसे संशोधित किया गया। इस संहिता के भाग-4 में अस्पताल जैसे संस्थानों में अग्निशमन जैसे हादसों से बचाव के लिए विस्तृत निवारक उपाय बताए गए हैं। इसके लिए भवन सामग्री और उसकी परीक्षण पद्धतियों के मापदंडों के लिए लगभग एक हजार तीन सौ मानकों का उल्लेख है। एक साधारण व्यक्ति भले ही भवन निर्माण संहिता के प्रति जागरूक न हो, लेकिन अस्पतालों और सार्वजनिक भवनों के निर्माण के दौरान इसे अनिवार्यता के साथ लागू करना अनिवार्य होना चाहिए। दुर्भाग्य से राज्यों के लोक निर्माण विभागों को राष्ट्रीय भवन संहिता के प्रावधानों के प्रति जो गंभीरता दिखानी चाहिए, वह नदारद ही नजर आती है। कुछ मुठ्ठीभर सरकारी और निजी अस्पतालों को छोड़ दें, तो इनके निर्माण के दौरान अग्नि सुरक्षा की रस्मअदायगी के अलावा यहां राष्ट्रीय भवन निर्माण संहिता के प्रावधानों का पालन नहीं किया जाता है। अस्पतालों में होने वाली आग की घटनाओं को फॉरेंसिक विशेषज्ञ मानवीय लापरवाही और नियमों के प्रति उदासीनता का नतीजा करार देते हैं। बावजूद इसके कुछ मामलों को छोड़ दें तो राज्यों की एजेंसियों से मिलीभगत के कारण दोषियों पर सख्त कार्रवाई नहीं हो पाती है। यदि सक्षम प्राधिकार ऐसे मामलों में सख्त कार्रवाई करे तो निश्चित रूप से मानवीय जीवन को संकट में डालने वाले लोगों व संस्थानों की जवाबदेही तय की जा सकेगी। अग्निकांड की घटनाओं को लेकर बरती गई अस्पताल प्रबंधनों और स्थानीय प्रशासन की जरा-सी लापरवाही नई चुनौती को जन्म देती है। बेहतर होगा अस्पतालों में अग्निशमन से जुड़ी बुनियादी आवश्यकताओं को समय रहते दुरस्त कर लिया जाए। ध्यान रहे, अक्सर विपत्ति एक साथ कई मोर्चे पर आती हैं। संकट के समय चुनौतियों से मुंह फेरने के बजाय उनका समाधान ही सबसे अच्छा विकल्प है।


Date:12-05-21

छोटी-बड़ी कामयाबियों ये सीखकर करें मुकाबला

किरण मजूमदार शॉ

कोरोना महामारी की दूसरी लहर भारत को तबाह करने में लगी है। हमारी स्वास्थ्य व चिकित्सा व्यवस्थाओं की कमियां उजागर हो रही हैं और हम जीवन व आजीविका के स्तर पर बड़ी कीमत चुका रहे हैं। हमें इस लहर से मुकाबले के लिए पूरी गति और समझदारी से कदम उठाने की जरूरत है। साथ ही, यह सुनिश्चित करने के लिए विकेंद्रीकरण भी जरूरी है। स्थानीय प्रशासन को खुद की रणनीति तैयार करने की आजादी देना बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि उन्हें सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल से निपटने में सुविधा होती है, जानकारी, निगरानी व तत्काल कार्रवाई से लाभ होता है। विकेंद्रीकरण स्वामित्व और जिम्मेदारी के बंटवारे को प्रोत्साहित करता है।

सामुदायिक भागीदारी महत्वपूर्ण है। दूसरी लहर का मुकाबला करने के लिए सरकार कोविड-रोधी व्यवहार और टीकाकरण की वकालत कर रही है। यदि इन उपायों को प्रभावी ढंग से लागू किया गया, तो देश भर में सामुदायिक स्तर पर सबकी सक्रिय भागीदारी की जरूरत पड़ेगी। ऐसे प्रकोपों से प्रभावी ढंग से निपटने में सामुदायिक भागीदारी का प्रभाव 7वीं शताब्दी के गांव आईम के उदाहरण से जाहिर होता है, जो इतिहास में ‘क्वारंटीन’ के सबसे उल्लेखनीय मामलों में से एक बन गया था। 1665-66 के बुबोनिक प्लेग के दौरान आईम के निवासियों ने प्लेग के प्रसार को रोकने के लिए खुद को तैयार किया। गांव के लोग अपने पड़ोसियों द्वारा छोड़े गए. भोजन और दवा का भुगतान करने के लिए छह छेदों में पैसा डालने आते थे। लगभग 1,000 की आबादी वाले गांव के एक चौथाई से अधिक लोग प्रकोप के अंत तक जान गंवा चुके थे, पर बाकी सब उस त्रासदी से लड़ने में कामयाब रहे।आईम के उदाहरण से पता चलता है, स्थानीय समुदाय मिलकर कोविड-रोधी व्यवहार लागू कर सकते हैं। वे घर के पास या कॉलोनी में कोविड टीकाकरण का आयोजन कर सकते हैं, जैसे कई आवासीय कल्याण संघ (आरडब्ल्यूए) बेंगलुरु में वृहत बेंगलुरु महानगर पालिका के सहयोग से कर रहे हैं।

स्थानीय निकायों के सहयोग से टीकाकरण शिविरों की योजना बनाने के अलावा, समुदाय की भागीदारी से कमजोर घरों की पहचान करने, बुजुर्गों और क्वारंटीन लोगों की सहायता करने और संक्रमण श्रृंखला का पता लगाने में अहम मदद मिल सकती है। लोग ऑक्सीजन कंसंट्रेट, ऑक्सीजन सिलेंडर व दवा जैसी मेडिकल आपूर्ति का ऑर्डर देने के लिए एक साथ आ सकते हैं।

सफलता की कहानियों से सबक लेना भी जरूरी है यह स्पष्ट है कि जिला-स्तरीय कोविड प्रबंधन सबसे अच्छा काम करता है। पहली लहर के दौरान केंद्र सरकार ने राज्यों का सहयोग करने के लिए व्यापक दिशा-निर्देश दिए थे, जिससे स्थानीय जरूरतों के मुताबिक, जिल स्तरीय पहल की रणनीतियां बनीं। इस विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण ने ही ‘केरल मॉडल, “भीलवाड़ा मॉडल ‘धारावी मॉडल या “कर्नाटक मॉडल जैसी सफलता की कहानियां रचीं। इनमें से कई विकेंद्रीकृत प्रयास दूसरी लहर में हाशिए परचले गए हैं। आज कें द्र व राज्यों, दोन में अधिक तालमेल की जरूरत है। केंद्रीकृत कोविड टास्क फोर्स औ रवॉर रूम आश्वस्त तो करते हैं, पर मौदे पर तेजी से पहल करने में प्रभावी नहीं होते हैं।

दूसरों की सफलता से सीखना आज से ज्यादा महत्वपूर्ण कभी नहीं रहा था। ऐसे समय में, जब मेडिकल ऑक्सीजन की आपूर्ति में कमी से दिल्‍ली और उत्तर प्रदेश हांफ रहे हैं, तब केरल में अतिरिक्त ऑक्सीजन है। पहत् केरल ऑक्सीजन के लिए पड़ोसी राज्यों पर ज्यादा निर्भर था, परे पिछले एक वर्ष में नए संयंत्र स्थापित कर उस अपनी ऑक्सीजन उत्पादन क्षमता बढ़ा ली। ऑक्सीजन आत्मनिर्भरता के ‘केरल मॉडल’ का अन्य राज्यों द्वा अनुकरण आवश्यक है।

वैक्सीन मूल्य निर्धारण भी महत्वपूर्ण है। टीकाकरण ‘ की धीमी गति से केंद्रीकृत योजना का संकट स्पष्ट है अलग-अलग कीमत पर वैक्सीन खरीदने की नीति सही नहीं है। इससे वैक्सीन खरीद की गति धीमी पड़ सकती है। अगले कुछ दिनों में उद्योग संघों, कॉरपोरेट संस्थाओ स्वयं सहायता समूहों, आरडब्ल्यूए,व राजनीतिक दल को कोरोना विरोधी बल में शामिल होना होगा और वाइ पंचायत स्तर पर कार्रवाई करनी होगी, अगर हम राष्ट्री स्तर पर वायरस से लड़ाई जीतना चाहते हैं।


 

Subscribe Our Newsletter